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बेनूर आंखों से जिंदगी की बिसात पर शह-मात का खेल, फिर हासिल किया मुकाम Panipat News

जुंडला के राकेश नरवाल ने दृष्टिहीनता को बाधा नहीं बनने दिया। कमजोर आर्थिक हालातों के बावजूद चेस में मुकाम हासिल किया।

By Anurag ShuklaEdited By: Published: Mon, 06 Jan 2020 04:28 PM (IST)Updated: Mon, 06 Jan 2020 06:45 PM (IST)
बेनूर आंखों से जिंदगी की बिसात पर शह-मात का खेल, फिर हासिल किया मुकाम Panipat News
बेनूर आंखों से जिंदगी की बिसात पर शह-मात का खेल, फिर हासिल किया मुकाम Panipat News

पानीपत/करनाल, [यशपाल शर्मा]। कुदरत ने उसके साथ न्याय नहीं किया। महज आठ साल की उम्र में आंखें बेनूर हो गईं। जिंदगी ने कदम-कदम पर परीक्षा ली। हालात कभी मुफीद नहीं रहे, मगर उसके कदम न तो रुके और न ही थके। हौसला ऐसा कि एक बार सफलता की रफ्तार पकड़ी तो अच्छे-अच्छों को पीछे छोड़ दिया। हम बात कर रहे हैं करनाल जिले के एक छोटे से कस्बे जुंडला के राकेश नरवाल की। 

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क्षेत्र के लोगों के लिए अब यह नाम नया नहीं है। शतरंज के माहिर राकेश ने दृष्टिहीनता के दाग को पदकों के पतझड़ से ऐसा धोया कि अब चारों ओर उनका ही गुणगान है। राकेश अब चेन्नई में होने जा रही दृष्टिबाधित नेशनल ओपन चेस टूर्नामेंट में हिस्सा लेने पहुंचे हैं।  

राष्ट्रीय स्तर पर जीत चुके 11 मेडल

आठ वर्ष की आयु में मोतियाबिंद के कारण आंखों की रोशनी खो चुके राकेश नरवाल बताते हैं कि आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उन्हें बेहतर इलाज नहीं मिल सका। दृष्टिबाधितों के लिए पानीपत स्थित संस्थान में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान छठी कक्षा में वर्ष-1997 में पहली बार चेस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। इस मुकाबले के लिए प्रबंधक सदस्य उन्हें कमजोर मान रहे थे, हालांकि उन्होंने जब यहां बेहतर प्रदर्शन किया तो सबने सराहा। यहां से शुरू सफर आज तक जारी है। 

अब तक 11 मेडल जीत चुके

मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में हुई स्पर्धाओं में वह अब तक 11 मेडल जीत चुके हैं। वर्ष-2001 में स्पेन में वल्र्ड चैंपियनशिप में भी उन्होंने हिस्सा लिया और वर्ष-2002 में दिल्ली के नेहरू स्टेडियम में हुई प्रतियोगिता का खिताब भी जीता। वर्ष-2004 में नॉर्थ जोन मुकाबलों के दौरान हेमलता नाम की युवती से मुलाकात हुई बाद में वही जीवनसाथी भी बनी।

सरकार और प्रशासन से मिली मायूसी

नरवाल के मुताबिक स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के दौरान खेल जारी रखना थोड़ा चुनौती भरा रहा। आर्थिक हालात हमेशा अड़चन बनते रहे। उम्मीद थी कि शायद उनकी प्रतिभा देख शासन या प्रशासन की ओर से कोई मदद मिलेगी, मगर यहां मायूसी ही हाथ लगी। 25 अक्टूबर 1982 को जन्मे राकेश के पिता प्रेमचंद भी देख नहीं सकते। इस वजह से माता आर्य देवी ने ही मजदूरी करके उनका पालन-पोषण किया। राकेश की जिजीविषा का यह सबसे बड़ा सुबूत है कि उन्होंने जिंदगी में कभी हार नहीं मानी और फरवरी-2019 में ग्रुप-डी की परीक्षा पास की सरकारी नौकरी हासिल की। आज पूरा परिवार उनके वेतन पर ही आश्रित है।


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