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आधुनिकता की चकाचौंध में मकर सक्रांति की परंपराएं अब बनी इतिहास

एलसी वालिया, सतनाली : मकर सक्रांति (संकरात) का पर्व यूं तो देशभर में अपने-अपने ढंग से मनाया

By JagranEdited By: Published: Sat, 13 Jan 2018 07:42 PM (IST)Updated: Sat, 13 Jan 2018 07:42 PM (IST)
आधुनिकता की चकाचौंध में मकर सक्रांति की परंपराएं अब बनी इतिहास
आधुनिकता की चकाचौंध में मकर सक्रांति की परंपराएं अब बनी इतिहास

एलसी वालिया, सतनाली : मकर सक्रांति (संकरात) का पर्व यूं तो देशभर में अपने-अपने ढंग से मनाया जाता रहा है, लेकिन अतीत की बात करें तो अहीरवाल क्षेत्र की संकरात का नजारा कुछ अलग ही होता था। हालांकि गुजरे जमाने की रोचक यादें बुजुर्ग पीढ़ी भुला नहीं पाई है। कुछ जगहों पर अब भी इस पर्व की पुरानी यादों को जीवंत रखने का प्रयास होता दिखाई पड़ता है, लेकिन हाइटेक जमाने का सच यही है कि क्षेत्र की संकरात से जुड़ी अधिकांश परंपराएं अब इतिहास बन चुकी है।

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परंपराओं के पीछे छूटने का सिलसिला मशीनीकरण युग की शुरुआत के साथ हो गया था। अहीरवाल में उस समय बैलों को छुड़वाने की एक रोचक व पशुओं के प्रति गहरा प्रेम प्रदर्शित करने वाली परंपरा कायम थी, लेकिन अब युवा पीढ़ी इससे अनजान है। किशोर पीढ़ी तो बारिये, कीलिये व पनवाल जैसे उन शब्दों से ही अनजान है, जो इस परंपरा में अहम होते थे। चूरमे की परंपरा हालांकि अब भी बड़ी संख्या में लोग निभा रहे हैं, लेकिन ऊंखल-मूसल की गूंज अब कम सुनाई पड़ती है। चूरमा बनाने के लिए भी अब पुरानी ओखली का स्थान आज की मिक्सी ले चुकी है। परंपराओं में आए बदलाव से अब अहीरवाल की अनूठी संकरात की रंगत फीकी पड़ रही है।

पशु प्रेम का उदाहरण था बैलों को छुड़वाना

संकरात का विशेष आकर्षण बैलों को छुड़ाना था। बैलों को छुड़वाने के लिए महिलाओं द्वारा बारिये लाव की मदद से कुंए से पानी खींचने वाले बैलों की जोड़ी को हांकने वाला किसान, कीलिये, कुएं से बाहर आने पर चिड़स को खाली करने वाला किसान व पनवाल खेत में ¨सचाई करने वाले किसान के घर बैलों के लिए जहां दाना-पानी भेजा जाता था, वहीं इन तीनों के लिए चूरमा भिजवाया जाता था। बदले में उनकी ओर से महिलाओं को यह आश्वासन मिलता था कि संकरात के दिन वे बैलों से काम नहीं लेंगे।

तड़के ही शुरू हो जाती थी चहल-पहल

मकर सक्रांति के दिन सुबह तीन-चार बजे ही तैयारी शुरू हो जाती थी। मध्यरात्रि के बाद पौ फटने तक घर-घर ऊंखल-मूसल की गूंज सुनाई पड़ती थी। उस घर को सबसे अधिक भाग्यशाली समझा जाता था, जिस घर में सबसे पहले भोजन तैयार होता था। सुबह आग पर भूनकर खाई जाने वाली शकरकंद की मिठास भी अब फीकी है।

नजर नहीं आती गीत गाती टोलियां

दो-तीन दशक पहले संकरात के दिन जोहड़ों व पनघटों पर गीत गाती युवतियों की टोलिया नजर आती थीं। युवतियों में सुबह जल्दी उठकर पनघट पर पहुंचकर ठंडे पानी से नहाने की होड़ रहती थी, लेकिन अब बाथरूम संस्कृति ने पनघट से जुड़ी परंपराओं को इतिहास का हिस्सा बना दिया है।

रहती थी जल्दी उठकर सफाई की होड़

महिलाओं में सुबह सबसे पहले उठकर आंगन व गलियों की सफाई करने की होड़ रहती थी। जोहड़ों व पनघटों के किनारे अलाव भी जलाया जाता था, लेकिन सामूहिक रूप से गलियों की सफाई की जगह अब हर परिवार खुद के आंगन तक सिमटता जा रहा है।

बुजुर्गों को जगाने की परंपरा कायम

मकर संक्रान्ति पर दान देने व बुजुर्गों को जगाने की परंपरा आज भी कायम है। बहुएं जहां सास को तिल, वस्त्रादि दान करती है, वहीं ससुर को भी सम्मान के लिए पांचों वस्त्र भेंट दिए जाते हैं। यह खुशी की बात है कि परंपराओं के बदलाव के बीच भी बुजुर्गों के सम्मान को मकर सक्रांति पर ध्यान में रखा जा रहा है।

पीछे छूट गई गुड़ की भेली

संकरात का एक बड़ा आकर्षण माता-पिता द्वारा बेटियों की ससुराल भेजी जाने वाली संकरात भी है। हालांकि यह परंपरा आज भी कायम है, लेकिन अब भावनाओं पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। कुछ समय पूर्व जहां गुड़ की भेली, घी तथा तिल भेजे जाते थे, वहीं अब मिठाइयां व नकदी ने गुड़ की भेली को पीछे छोड़ दिया है।


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