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मांदी गांव के लखीशाह ने किया था गुरु तेगबहादुर सिंह का अंतिम संस्कार

24 नवंबर 1675 ई. को दिल्ली के चांदनी चौक में का•ाी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार से गुरु तेग बहादुर सिंह का शीश धड़ से अलग कर दिया था।

By JagranEdited By: Published: Wed, 25 Nov 2020 06:44 PM (IST)Updated: Wed, 25 Nov 2020 06:44 PM (IST)
मांदी गांव के लखीशाह ने किया था गुरु तेगबहादुर सिंह का अंतिम संस्कार
मांदी गांव के लखीशाह ने किया था गुरु तेगबहादुर सिंह का अंतिम संस्कार

बलवान शर्मा, नारनौल: 24 नवंबर, 1675 ई. को दिल्ली के चांदनी चौक में का•ाी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार से गुरु तेग बहादुर सिंह का शीश धड़ से अलग कर दिया था। उनके शव का अंतिम संस्कार करने वाले कोई और नहीं, बल्कि नारनौल के मांदी गांव के लखीशाह बंजारे व उनके बेटे ने किया था। लखीशाह दिल्ली में पल्लेदारी का कार्य करता था और रकाबगंज में उनकी झोपड़ी थी। मांदी निवासी पूर्व चेयरमैन गोविन्द भारद्वाज बताते हैं कि गुरु तेग बहादुर सिंह की शहीदी के समय ओरंगजेब को खुश करने के लिए कुछ हत्यारे उनका शीश लेकर उन्हें खुश कर रहे थे तो इसी दौरान लखीशाह बंजारा अपने बेटे की मदद से गुरु तेग बहादुर सिंह के शरीर को अपनी बैल गाड़ी में ले गया। रकाबगंज स्थित अपनी झोपड़ी(घर) में गाड़ी को घुसाकर आग लगा दी थी। मांदी के ग्रामीण व जिलावासी इस बंजारे के साहस की गाथा आज भी सुनाते हैं। इतिहासकार एडवोकेट रतनलाल सैनी बताते हैं कि लखीशाह का जिले में ही नहीं,बल्कि सिख समाज में बड़े सम्मान के साथ नाम लिया जाता है। लखीशाह ने मुगलों की परवाह किए बगैर गुरुतेग बहादुर के शव को अपनी झोपड़ी में ले जाकर अंतिम संस्कार किया, जो कि अपने आप में बड़ी बात है।

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गुरु तेग बहादुर (1 अप्रैल 1621 - 24 नवंबर, 1675) सिखों के नवें गुरु थे। वे प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित 115 पद्य गुरु ग्रंथ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होंने कश्मीरी पंडितों तथा अन्य हिदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम कबूल करने को कहा पर गुरु तेग बहादुर सिंह ने कहा कि शीश कटा सकते हैं केश नहीं। फिर औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर सिंह का सबके सामने सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं, जहां गुरु तेग बहादुर सिंह की हत्या की गई थी तथा जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग़ बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। एक सिख भाई जैता सिंह ने उनके शीश को आनंदपुर साहिब लाने की दिलेरी दिखाई। गुरु गोविद सिंह ने भाई जैता के साहस से प्रसन्न होकर उन्हें रंगरेटे-गुरु के बेटे का खिताब दिया। गुरु तेगबहादुर सिंह के शीश का दाह-संस्कार आनंदपुर साहिब में किया गया था। लखी शाह और उनके पुत्र अपने गांव रकाबगंज ले गए और घर(झोपड़ी) में आग लगाकर गुरु तेग बहादुर सिंह का दाह-संस्कार किया। आज यहां गुरुद्वारा रकाबगंज, दिल्ली सुशोभित है। आज भी लोग उन्हें हिद की चादर कह कर याद करते हैं।


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