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खेती की इस तकनीक से बढ़ेगी किसानों की इनकम, करनाल, कुरुक्षेत्र व अंबाला के 100 गांव बनेंगे क्लाइमेट स्मार्ट

करनाल कुरुक्षेत्र व अंबाला के सौ गांव क्लाइमेट स्मार्ट बनाए जा रहे हैं। इनमें आधुनिक खेती (Modern farming) तो होगी ही साथ ही किसी भी गांव में पराली या धान के अवशेष का तिनका भी नहीं जलाया जाएगा।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Sat, 03 Oct 2020 12:57 PM (IST)Updated: Sat, 03 Oct 2020 12:57 PM (IST)
आधुनिक खेती की तकनीक से बढ़ेगी किसानों की इनकम। (सांकेतिक फोटो)

करनाल [प्रदीप शर्मा]। पराली जलाने से जुड़ी चिंताओं के बीच करनाल, कुरुक्षेत्र व अंबाला के सौ गांव क्लाइमेट स्मार्ट बनाए जा रहे हैं। इनमें आधुनिक खेती तो होगी ही, साथ ही किसी भी गांव में पराली या धान के अवशेष का तिनका भी नहीं जलाया जाएगा।

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केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (Central soil salinity research institute -CSSRI ) इस माडल पर काम कर रहा है। ये गांव बर्निंग फ्री (ज्वलन मुक्त) होंगे। अवशेषों का सदुपयोग कैसे करें और इनके निस्तारण से कैसे आमदनी ली जा सकती है, इस पर भी संस्थान माडल प्रस्तुत करेगा।

किसानों की आय दोगुनी करने की दिशा में यह अहम कदम साबित होगा। किसानों को क्लाइमेट स्मार्ट खेती करने के तौर-तरीके भी सिखाए जा रहे हैं। इसमें पानी बचाने और फसल पर कम लागत में अधिक आमदनी के तरीके सिखाने पर फोकस है। केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान और अंतरराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं सुधार केंद्र दिल्ली का यह संयुक्त प्रोजेक्ट है।

केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के प्रधान विज्ञानी डॉ. एचएस जाट ने बताया कि किसान अवशेष जलाना बंद कर दें तो भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहेगी। अवशेष जमीन पर पड़े रहने से नमी बरकरार रहेगी। इससे फसल में एक पानी कम लगाना पड़ेगा। जहां जल संकट है, वहां एक पानी की कीमत समझी जा सकती है।

जाट बताते हैैं कि किसान एक साल में दो से तीन फसलें लेने के लिए 12 बार खेत की जुताई करता है। अपना ट्रैक्टर है तो एक बार में छह लीटर डीजल लगता है। डीजल 65 रुपये प्रति लीटर है। यानी एक बार में 390 रुपये खर्च होते हैं। 12 बार में 4680 रुपये सीधे तौर पर खर्च होते हैं।   गेहूं, धान में 180 किलोग्राम नाइट्रोजन देनी पड़ती है और मक्का में 175 किलोग्राम नाइट्रोजन देनी पड़ती है।

क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर

  • इस विधि में साल में महज दो बार खेत जोतने की करने की जरूरत होती है। वह भी फसल पर निर्भर है। कई फसलों जैसे गेहूं, मक्का में इसकी भी जरूरत नहीं होती। कुल मिलाकर चार हजार रुपये की बचत किसान को होती है।
  • महज 120 किलोग्राम नाइट्रोजन में काम चल जाता है, क्योंकि अवशेष गलने के बाद भूमि को नाइट्रोजन की पूर्ति की जाती है।
  • मक्का में 145 किलोग्राम से काम चल जाता है।

फसल के अवशेषों को गलाकर बनाएंगे खाद

डॉ. एचएस जाट बताते हैं कि करनाल के 30 व कुरुक्षेत्र-अंबाला के 35-35 गांवों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर पर काम किया जा जाएगा। इन गांवों में फसल अवशेषों में आग नहीं लगाई जाएगी, बल्कि जमीन में गलाकर खाद का काम करेंगे। अवशेषों को बिना आग लगाए खेत में ही मल्च कर आधुनिक और अच्छी खेती की जा सकेगी। उत्पादन भी अधिक होता है। पानी की बचत होती है और खर्च भी घट जाएगा।


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