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करनाल प्रगतिशील किसानों ने खोजा धान के अवशेष का तोड़, वेस्ट डी कंपोजर से ऐसे बना रहे खाद

Stubble management करनाल के प्रगतिशील किसान (Progressive farmers) पराली प्रबंधन में जुटे हैं। यह किसान पराली को जलाने के बजाय इससे खाद बना रहे हैं। इसके लिए इन प्रगतिशील किसानों ने देशभर के कई शोध संस्थानों में ट्रेनिंग ली।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Tue, 06 Oct 2020 02:45 PM (IST)Updated: Tue, 06 Oct 2020 02:45 PM (IST)
करनाल प्रगतिशील किसानों ने खोजा धान के अवशेष का तोड़, वेस्ट डी कंपोजर से ऐसे बना रहे खाद
करनाल मेंं प्रगतिशील किसान पराली से तैयार कर रहे खाद। (सांकेतिक फोटो)

जेएनएन, करनाल। प्रगतिशील किसानों ने धान के अवशेषों का तोड़ निकाल लिया है। कुछ समय पहले 50 किसानों ने मिलकर जैविक व प्रदूषण मुक्त खेती करने का संकल्प लिया। इसके बाद अपने प्रयास शुरू किए। 50 किसानों का यह समूह अब 500 से अधिक में तब्दील हो चुका है। इन्होंने फॉर्मर प्रोड्यूसर आर्गेनाइजेशन बना ली।

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करनाल के किसानों के इस समूह ने न केवल लोगों को मिल रहे रसायनयुक्त भोजन की चिंता की, बल्कि फसलों के अवशेषों के जलाने से हो रहे पर्यावरण प्रदूषण की भी चिंता की। किसानों ने देशभर के कई शोध संस्थानों में ट्रेनिंग ली। इस दौर में उनका संपर्क गाजियाबाद के राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र से हुआ।

संस्थान के निदेशक डॉ. किशन चंद्रा से किसानों ने अवशेषों की दिक्कत शेयर की। संस्थान द्वारा तैयार किए गए वेस्ट डी कंपोजर के बारे में किसानों को अवगत कराया। उन्होंने इसके बारे में विस्तृत जानकारी ली। इन किसानों ने इस वेस्ट डी कंपोजर को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। अवशेषों को इस सोल्यूशन से आसानी से गलाया जा सकता है।

करीब 2500 एकड़ में नहीं जलेंगे अवशेष

प्रगतिशील किसानों का यह समूह करनाल क्षेत्र में 2500 एकड़ से अधिक में खेती कर रहा है। पिछले सीजन में कैमिकल फ्री गेहूं तैयार किए, और इस बार 90 एकड़ में केमिकल फ्री धान लगाई हुई है। सबसे अहम बात यह है कि समूह ने फसलों के अवशेषों को नहीं जलाने का संकल्प लिया है। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने का निर्णय लिया।

कैसे काम करता है वेस्ट डी कंपोजर

वेस्ट डी कंपोजर गाय के गोबर व बैक्टीरिया से तैयार किया गया है। राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र गाजियाबाद द्वारा तैयार किया कंपोजर एक 200 एमएल की पैकिंग में उपलब्ध है। एक एकड़ के अवशेष गलाने के लिए 200 लीटर पानी में ढाई किलो गुड़ डालना होता है। इसको मिक्स कर पांच दिन के अंदर सोल्यूशन तैयार हो जाता है। इसके बाद सोल्यूशन को पानी के जरिये खेत में डाला जाता है। 15 से 20 दिन में 70 प्रतिशत अवशेष गल जाते हैं। इसके बाद दूसरी फसल ले सकते हैं। एक माह में 100 प्रतिशत अवशेष गल जाते हैं।

फसल अवशेष प्रबंधन को सीखना जरूरी होगा

एफपीसी के अध्यक्ष डॉ. एसपी तोमर ने कहा कि फसल अवशेष प्रबंधन को सीखना होगा। यह समय की मांग है। अवशेषों को जलाने के बजाय मिट्टी में ही मिला देने चाहिए। इससे फायदा यह होगा कि वह खाद में तब्दील हो जाएंगे। ज्यादा दिक्कत किसानों को धान अवशेषों में आती है। किसानों को चाहिए कि फसल को हाथ से कटवाएं और उसकी पराली बनाकर पशुओं का आहार बनाया जाए। जो नीचे के अवशेष बचते हैं उनके मिट्टी में मिलाना चाहिए। वेस्ट डी कंपोजर इसके लिए अच्छा साधन है।

उत्पादन में 10 फीसद तक की बढ़ोतरी

फसलों के अवशेष न जलाने व ग्रीन मैन्योरिंग करने से उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। डॉ. एसपी तोमर के मुताबिक 10 से 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी इस प्रक्रिया से हुई है। अवशेष खाद का काम करते हैं। किसानों को जागरूक होने की जरूरत है। भविष्य में यदि स्वास्थ्य को ठीक रखना है तो प्रदूषण व रसायनों से बचना होगा।  


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