पीले रतुआ के प्रकोप से गेहूं की फसल को बचाएं किसान: डीडीए
बहादुरगढ़ (विज्ञप्ति) कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के उप निदेशक डा. इंद्र सिंह ने बताया कि
बहादुरगढ़, (विज्ञप्ति): कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के उप निदेशक डा. इंद्र सिंह ने बताया कि गेहूं रबी मौसम की एक मुख्य फसल है, लेकिन इस फसल में यदि पीले रतुआ का प्रकोप हो जाता है तो फसल को काफी नुकसान पहुंचता है। इस रोग के लिए 8-13 डिग्री सेल्सियस तापमान बीजाणु जमाव व पौधों को संक्रमण के लिए चाहिए जबकि 12-15 डिग्री सेल्सियस तापमान पर यह रोग पूरे क्षेत्र में फैल जाता है।
उपनिदेशक ने बताया कि वातावरण का तापमान 23 डिग्री पहुंचने पर इस रोग का फैलाव रुक जाता है। पीला रतुआ गेहूं में एक फफूंद के द्वारा फैलता है, जिसकी वजह से पत्तियों पर धारियों में पीले रंग के छोटे-छोटे धब्बे कतारों में बन जाते हैं। कभी-कभी यह धब्बे पत्तियों व डंठलों पर भी पाए जाते हैं। इन पत्तियों को हाथ से छूने सफेद कपड़े व नैपकिन इत्यादि से छूने पर पीले रंग का पाउडर लग जाता है, ऐसे खेत में जाने पर कपड़े पीले हो जाते हैं। यदि यह रोग फसल में कल्ले निकलने की अवस्था में या इससे पहले आ जाए तो फसल में भारी हानि होती है। पत्तियों का सिर्फ पीला होना ही इस रोग के लक्षण नहीं है, बल्कि पत्तियों को छूने पर हल्दी जैसा पीला रंग इस रोग की मुख्य पहचान है शुरू की अवस्था में यह रोग खेत में 10-15 पौधों पर एक गोल दायरे के रूप में शुरू होता है तथा पूरा खेत इस रोग से भर जाता है। यह रोग छाया, नमी वाले क्षेत्रों में व उन खेतों में ज्यादा आता है, जहां नाइट्रोजन खाद का ज्यादा व पोटाश का बिल्कुल भी प्रयोग ना किया गया हो। रोकथाम के उपाय:
-आवश्यकता से अधिक सिचाई न करें व नाइट्रोजन खाद का कम प्रयोग करें।
-मिट्टी जांच के बाद संतुलित खाद डालें।
-फसल पर इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर दवाई का छिड़काव करें। यह स्थिति अक्सर जनवरी के अंत या फरवरी के शुरू में आती हैं। इससे पहले यदि रोग का प्रकोप दिखाई दे तो छिड़काव तुरंत करें।
-छिड़काव के लिए प्रोपीकोनेजोल 25 ईसी(टिल्ट) या टैबूकोनेजोल 25.9 ईसी (फालीकर 250 ईसी) या ट्रियाडिफेमान 25 डब्ल्यूपी (बैलीटोन) का 0.1 प्रतिशत की दर से घोल बना छिड़काव करें। इसके लिए 200 मिलीलीटर दवा 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
-छिड़काव के लिए पानी व दवा की मात्रा उचित रखें व छिड़काव सही ढंग से करें ताकि दवा पौधों के निचले तथा ऊपरी भागों में अच्छे ढंग से पहुंच जाए।