world disabled day 2021: कभी बोल-सुन नहीं सकने पर उड़ाते थे मजाक, गूंगा पहलवान को पद्मश्री मिलने पर झुके सिर
गूंगा पहलवान उर्फ विरेंदर सिंह ने बचपन में ही अपनी सुनने व बोलने की क्षमता खो दी थी। गांव में बच्चे उनकी इस कमजोरी का मज़ाक बनाते थे और घर पर भी वे ज़्यादा किसी को कुछ समझा नहीं पाते। मगर फिर सब कुछ बदल गया।
झज्जर न्यूज। आलोचना इंसान को कमजोर कर देती है, मगर कुछ लोगों की सफलता ही आलोचना में मिले तानों से शुरू होती है। एक ऐसा ही उदाहरण झज्जर के गूंगा पहलवान ने भी पेश किया है। झज्जर के अंतर्गत आने वाले गांव सासरौली के लाल गूंगा पहलवान उर्फ विरेंद्र सिंह को हाल में ही राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पदम श्री अवार्ड से सम्मानित किया है। मगर ये राह इतनी आसान नहीं थी। विरेंदर उर्फ गूंगा पहलवान ने बहुत दिक्कतों का सामना किया। आज उनका नाम हर किसी की जुबान पर है।
मगर इतना बड़ा अवार्ड मिलने पर भी गूंगा पहलवान के मन में कुछ कसक बाकी है। उनका कहना है कि उन्हें सम्मान तो देश का सबसे बड़ा मिला है, मगर हरियाणा सरकार ने उनकी अनदेखी की है। उन्हें वो अधिकार नहीं दिए जो बाकी दिव्यांग खिलाडि़यों को दिए जाते हैं। यही वजह है कि वे अवार्ड मिलने के अगले ही दिन धरने पर बैठ गए थे। सीएम मनोहर लाल की ओर से मिले आश्वासन के बाद उठे, मगर अभी भी यह विवाद चल ही रहा है।
वहीं पद्मश्री मिलने से पहले भी कुश्ती में अपनी पहचान बनाने वाले गूंगा पहलवान ने एक ट्वीट करते हुए लिखा था कि मुझे बड़े लोग स्पोर्ट नहीं करते, मेरे सपोर्टर आप है, कल आपका लाडला, आपका दोस्त, आपका बेटा, आपके स्नेह और आशीर्वाद से पद्म श्री बन जाएगा, राष्ट्रपति भवन में अवार्ड दिया जाएगा। होटल अशोका से ट्वीट करते हुए उन्होंने हरियाणवीं अंदाज में राम-राम करते हुए आभार व्यक्त भी किया।
बता दें कि विरेंदर सिंह ने बचपन में ही अपनी सुनने की क्षमता खो दी और इसी वजह से वे कभी बोल भी नहीं पाए। गांव में बच्चे उनकी इस कमजोरी का मज़ाक बनाते थे और घर पर भी वे ज़्यादा किसी को कुछ समझा नहीं पाते। पर कहते हैं न कि आपकी किस्मत और मेहनत आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा ही देती है। ऐसा ही कुछ विरेंदर के साथ हुआ, जब पैर में एक चोट लगने से उन्हें इलाज के लिए उनके पिता के पास दिल्ली भेजा गया।
वैसे तो विरेंदर के पिता चाहते थे कि इलाज के तुरंत बाद विरेंदर गांव चले जाएं, पर उनके एक दोस्त और साथी जवान सुरेंदर सिंह ने विरेंदर को वापिस नहीं जाने दिया। सुरेंदर सिंह को उनसे काफ़ी लगाव हो गया और वे विरेंदर को अपने साथ ‘सीआईएसएफ अखाड़ा’ ले जाने लगे। अजीत सिंह और सुरेंदर, दोनों ही पहलवान थे और अपनी ड्यूटी ख़त्म करने के बाद यहां आकर बाकी जवानों के साथ कुश्ती लड़ते थे। जहां विरेंदर की भी धीरे-धीरे कुश्ती में दिलचस्पी बढ़ने लगी और उन्होंने इस खेल में अपना हाथ आज़माना शुरू किया। कुश्ती के लिए विरेंदर के जुनून को देखते हुए, उनके पूरे परिवार ने उनका साथ दिया।
साल 2002 में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। वर्ल्ड कैडेट रेसलिंग चैंपियनशिप 2002 के नेशनल राउंड्स में उन्होंने गोल्ड जीता। साल 2005 में डेफलिम्पिक्स (पहले इन खेलों को ‘द साइलेंट गेम्स’ के नाम से जाना जाता था) के बारे में पता चला। जहां उन्होंने भाग लिया और गोल्ड जीता। बाद में ‘डेफ केटेगरी’ में भी उन्हें मौका मिला, उन्होंने भारत का सिर गर्व से ऊंचा किया।