किसान आंदोलन में अब नहीं दिखते कदम-कदम पर खुले लंगर, मददगार संगठनों ने भी खींचे हाथ
टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन में अब वे खुले लंगर कहीं नहीं है। कदम-कदम पर जहां प्रसाद और खाना उपलब्ध होता और कहीं से भी कोई भी आंदोलन में आकर आसानी से ठहर जाता था। अब वैसा कुछ नहीं है। जहां पर लंगर चलते थे वहां पर अब कुछ नहीं है।
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ : तीन कृषि कानून के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन में अब वे खुले लंगर कहीं नहीं है। कदम-कदम पर जहां प्रसाद और खाना उपलब्ध होता और कहीं से भी कोई भी आंदोलन में आकर आसानी से ठहर जाता था। अब वैसा कुछ नहीं है। जहां पर लंगर चलते थे वहां पर अब आलम ऐसा है कि जैसे यहां कभी कुछ था ही नहीं। जिन-जिन तंबुओं में विशाल लंगर चलते थे। दिनभर चाय बनती रहती थी। उसके साथ कुछ न कुछ खाने को होता था। रोटी-सब्जी हलवा और जलेबी भी होती थी वहां पर अब ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि कोई राह चलता भी तंबू के अंदर न झांक सके।
अब खाने का यहां पर पहले जैसा खुला इंतजाम नहीं है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि कोई भी तंबू में अंदर भी नहीं घुस पाता। बाईपास की बात करें तो आंदोलनकारियों के लिए यहां पर कई फ्री-माेल शुरू किए गए थे। जहां से उन्हें जरूरत का सामान मुफ्त उपलब्ध कराया जाता था, लेकिन अब ऐसा कोई मोल यहां पर नहीं चल रहा है। सेक्टर-नौ मोड़ के नजदीक खालसा एड की ओर से जो व्यवस्था शुरू की थी, वह भी बंद कर दी गई। यहां पर चाय-पानी से लेकर खाना अौर मिठाई तक सब कुछ वितरित होता था। इससे चार कदम आगे बड़ा सा लंगर चलता था, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है।
लंगर में दिनभर जमघट रहता था, वहां अब सन्नाटा पसरा हुआ है। किसी तंबू में अगर लंगर चल भी रहा है तो सिर्फ आसपास में ठहरे आंदोलनकारियों के लिए ही है। या फिर कोई बाहर से आता है तो उसको यहां पर खाना खिलाया जाता है। बाकी ज्यादा लोगों के लिए व्यवस्था नहीं है। इसीलिए तो ज्यादा आंदोलनकारी भी यहां पर नहीं डटे हुए हैं। यह अलग बात है कि हरियाणा- पंजाब से आंदोलनकारियों को बुलाने के लिए रोजाना आह्वान किया जा रहा है, मगर वे आ नहीं रहे हैं। आठ महीने से ज्यादा समय बीतने के कारण आंदोलनकारियों का जोश अब मायूसी ओढ़ने लगा है। दूसरी ओर मददगार संगठनों ने भी हाथ खींच लिए हैं।