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डिग्री धारकों का एक ऐसा गांव, जहां बहू-बेटियां पुरुषों से भी आगे, देशसेवा का भी जज्बा

5500 की आबादी वाले गांव में लगभग 300 जेबीटी बीएड और एमए डिग्रीधारक हैं। इनमें 130 के करीब तो बहू-बेटियां हैं जो विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़कर साक्षरता का दीपक जला रही हैैं।

By Manoj KumarEdited By: Published: Thu, 06 Feb 2020 04:44 PM (IST)Updated: Thu, 06 Feb 2020 04:44 PM (IST)
डिग्री धारकों का एक ऐसा गांव, जहां बहू-बेटियां पुरुषों से भी आगे, देशसेवा का भी जज्बा
डिग्री धारकों का एक ऐसा गांव, जहां बहू-बेटियां पुरुषों से भी आगे, देशसेवा का भी जज्बा

हिसार [अशोक कौशिक] जिस समाज में हों शिक्षित सब नर-नारी, सफलता-समृद्धि खुद बने उनके पुजारी। जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव गारनपुरा कलां के हर बाशिंदे ने इस बात को आत्मसात कर लिया है। करीब 5500 की आबादी वाले गांव में लगभग 300 जेबीटी, बीएड और एमए डिग्रीधारक हैं। इनमें 130 के करीब तो बहू-बेटियां हैं जो विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़कर साक्षरता का दीपक जला रही हैैं। गांव में सरकारी शिक्षकों की संख्या 25 है। गांव की एक बेटी वकालत से भी जुड़ी है तो एक सीबीएलयू में असिस्टेंट प्रोफेसर है। लगभग सौ ग्रामीण सरकारी नौकरी से जुड़े हैं।

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इतिहास

ग्रामीण ज्ञानीराम, धर्मपाल, मानसिंह, गजे सिंह, लक्ष्मीनारायण,  मा.रोहताश व सज्जन कुमार ने बताया कि  करीब 200 साल पहले समीपवर्ती गांव दरियापुर से आए बेड़वाल गोत्र के ज्ञानाराम नामक व्यक्ति ने इस गांव को बसाया था। धीरे-धीरे यहां बेड़वाल गोत्र का बाहुल्य हो गया। अंग्रेजों को माल (भूमिकर) नहीं देने के कारण लोग यहां से पलायन कर गए। सिर्फ गोमदा नामक व्यक्ति ही यहां बचा। बाद में बडुन्दा (राजस्थान) से डूंगर और चैना, झाझडिय़ा गोत्र के दो भाई यहां आए और सारा माल देना स्वीकार कर रहने लगे। बाद में वे सिधमुख (राजस्थान) से अपने रिश्तेदारों को ले भी आए। इस प्रकार गांव का विकास होने लगा। कुल 18 हजार बीघे की जमीन की दो पट्टियां बनाई गईं, एक पुरा और दूसरी ज्ञानाराम। ज्ञानाराम के बसाए गांव का नाम गारनपुरा पड़ गया। नामकरण के विषय में दूसरा किस्सा यह है कि रेत के टीले पर बसे इस गांव का नाम पहले बटवा भी था। बाद में माल के आधार पर जमीन वितरण करने वाले अंग्रेज अफसर गारन तथा महला गोत्र के पुरा नामक व्यक्ति के नाम को मिलाकर गांव का नाम गारनपुरा पड़ा।

इनसे हैं गांव की पहचान

गोसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए स्वामी अजरानंद को पूरे क्षेत्र में पूजा जाता है। भिवानी, हिसार तथा हरिद्वार में उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं ज्ञान का प्रकाश फैला रही हैं। पहले कर्मचारी और अब किसानों के हितों के लिए संघर्षशील मा. शेर सिंह इसी गांव के हैं। वर्ष 1994 में कश्मीर में शहीद हुए दलबीर सिंह भी गांव के युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैैं। गायन, अभिनय और लेखन से हरियाणवी संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत सोनू गारनपुरिया भी इसी गांव से संबंध रखते हैं।

देशसेवा का है जज्बा

गांव के 11 युवा सेना से जुड़कर राष्ट्र प्रहरी के तौर पर कार्यरत हैं। अब तक सेना से जुड़कर देशसेवा करने वालों की बात की जाए तो संख्या 100 के पार है। दो परिवार तो तीन पीढिय़ों से सेना में सेवाएं दें रहे हैं। पहले गोपाल सिंह व उनके पुत्र होशियार सिंह व मान सिंह ने सेना से जुड़कर कर्तव्य का निर्वहन किया तो अब मान सिंह के पुत्र राहुल परिवार की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार से भगवान सिंह, उनके पुत्र ईश्वर सिंह, जयसिंह, दरिया सिंह, राज सिंह के बाद अब दरिया सिंह के पुत्र विनोद सेना में हैैं।

शिक्षित बनने के साथ-साथ संस्कारित भी बनें

एम कॉम, तीन बार नेट की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी व फिलहाल बीएड में अध्ययनरत प्रमिला बताती हैं समाज के विकास के लिए महिलाओं का शिक्षित होना बेहद आवश्यक है। शिक्षा के मायने केवल डिग्री पाकर रोजगार जुटाना भर भी नहीं है। शिक्षा में संस्कारों का भी समावेश हो ताकि सभ्य समाज का निर्माण हो। स्वयं को इस रूप में साबित करें कि आप औरों के लिए आदर्श हों।

शिक्षा की बदौलत पाया सम्मान

मांगेराम पूनिया का परिवार गांव ही नहीं पूरे क्षेत्र में सबसे शिक्षित होने के चलते सम्मान का पात्र है। उनकी बड़ी बेटी आशा पीएचडी और दो बार नेट करने के उपरांत भिवानी सीबीएलयू में अस्टिटेंट प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत हैं। मंझली उषा एमटेक के उपरांत बेंगलुरू में एक कंपनी में सालाना 15 लाख के पैकेज के साथ सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम कर रही हंै। छोटी बेटी सुदेश एमकॉम के अलावा दो बार नेट व एक बार एचटेट उत्तीर्ण कर चुकी हैं तथा पीचएडी जारी है। पुत्र उमेश आइबीपीएस उत्तीर्ण करने के बाद एक बैंक में अस्स्टिेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत है तो पीएचडी कर रहीं पुत्रवधू श्वेता भी कालेज प्राध्यपिका बनने के सपने को साकार करने में जुटी हैं।  

तदबीर से बदली तकदीर

ग्रामीण सीताराम, गुलजारी लाल और सतीश शर्मा बताते हैं एक दौर था जब चारों ओर नहर से घिरा होने बावजूद सिंचाई की सुविधा न मिलने के चलते तंज कसे जाते थे। भूमि होकर भी फसलों का उत्पादन न के बराबर था। पर धरतीपुत्रों ने खेती में बदलते समय के साथ कदमताल कर तदबीर (प्रयास)से तकदीर बदल डाली। नतीजन, रेतीले टीलों वाली भूमि पर आज गेहूं, सरसों, कपास जैसी परपंरागत फसल ही नहीं वरन स्ट्रॉबेरी की मिठास व महक से सराबोर है।

-------शिक्षा को लेकर ग्रामीणों की जागरूकता प्रशसंनीय है। प्रतिभाओं को समय-समय पर सम्मानित भी किया जाता है। ग्राम पंचायत शिक्षा व स्वच्छता के क्षेत्र में और सुधार को प्रतिबद्ध है।

रामधन, सरपंच, गारनपुरा कलां


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