संस्कारशाला: बदलाव को स्वीकार करने की भावना से आत्मसंयम का बीजारोपण संभव: अदिति मिश्रा
आत्मसंयम क्या है। आत्मसंयम का अर्थ अपनी इच्छाओं अपनी चाहतों पर नियंत्रण रखना।
आत्मसंयम क्या है। आत्मसंयम का अर्थ अपनी इच्छाओं, अपनी चाहतों पर नियंत्रण रखना। अब प्रश्न यह है कि यह कैसे संभव है। जन्म से ही हम बच्चों को सिखाते हैं कि यह उनका कमरा है, यह उनकी किताबें हैं, यह उनके खिलौने हैं। आज के बच्चे 'मेरा-तुम्हारा' करने में विश्वास रखते हैं, तो यह उनका नहीं बल्कि समाज का दोष है। शुरुआत से ही उन्हें 'हमारे-तुम्हारे' का भेद बताया जाता है तो वे किस तरह से सीखेंगे कि उन्हें समानता और त्याग जैसी चीजें क्या होती हैं। वे अपनी चीजों, अपनी इच्छाओं को त्याग पाने में असमर्थ होते हैं। और यही वजह है कि उनमें आत्म संयम का गुण नहीं आ पाता। बच्चों में आत्मसंयम को गुणों के संचार के लिए उन्हें डिटैचमेंट या अनासक्ति का गुण सिखाना होगा। बच्चों को बताया जाना चाहिए कि भौतिकता से दूर रहें व बाहरी चीजों में खुशियां न तलाशें। ऐसा करने से उन्हें परेशानी होगी। कुछ स्कूलों में बच्चों की कक्षा के साथ प्रतिवर्ष उनके वर्ग या सेक्शन भी बदल दिए जाते हैं। कुछ स्कूल ऐसा नहीं करते, ऐसे में बच्चों को अपनी कक्षा, अपने सहपाठियों के बीच सहज महसूस होने लगता है और वे बदलाव को स्वीकारने की आदत नहीं डाल पाते।
बच्चों को बताएं कि वे अपनी मेहनत और लगन के बूते कुछ ऐसा प्राप्त करें जिससे आंतरिक खुशी हो। यह खुशी उनसे कोई नहीं छीन सकता। इसके लिए उन्हें दान के लिए प्रेरित करें। उनकी स्कूल यूनीफार्म, उनकी पसंदीदा किताबें और खिलौने किसी जरूरतमंद को दान करने की सीख दें। इससे वे डिटैचमेंट को स्वीकार कर सकेंगे। जब उन्होंने यह सीख लिया तो वे अपने कंफर्ट जोन से निकलना सीख जाएंगे। ऐसे में उनके अंदर स्वत: ही आत्मसंयम का गुण विकसित होने लगेगा। वे जब असल खुशी को समझना सीख जाएंगे तो एक बेहतरीन व्यक्तित्व के धनी हो जाएंगे। असल खुशी की पहचान आत्मसंयम की प्रशस्त राह है।
अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों के सामने उदाहरण बनें और उन्हें बताएं कि क्षणिक चीजों में खुशी न तलाशें क्योंकि यह खुशियां क्षणभंगुर होती हैं, इनके जाते ही बच्चा निराश हो जाता है। जब बच्चा खुशियों को पहचानना, अच्छे-बुरे में फर्क करना और 'अपने' से बाहर निकलना सीख जाएगा तो वह आत्मसंयम के मूल्य का पहचान सकेगा। आत्मसंयम असल में है ही वह स्थिति जिसमें आप अपनेआप को किसी भी वस्तु, व्यक्ति और स्थान के मोह में इतना नहीं बंधते कि उससे अलग होना मुश्किल हो जाए। यह बहुत आसान भी नहीं है लेकिन अगर अभिभावक और शिक्षक चाह लें तो बच्चों में प्रारंभिक स्तर से ही इस गुण का संचार बखूबी कर सकते हैं।
- अदिति मिश्रा, डायरेक्टर प्रिसिपल, दिल्ली पब्लिक स्कूल, सेक्टर 45