विभाजन की विभीषिका: विभाजन के समय का मंजर याद कर आज भी सिहर उठते हैं विशन दास चुटानी
14 अगस्त 1947 को देश का विभाजन हुआ। पाकिस्तान में रहने वाले हिदुओं को न जाने कितनी यातनाएं झेलनी पड़ीं। उन यातनाओं को और कत्लेआम के ²श्य को याद कर आज भी लोग सिहर उठते हैं।
महावीर यादव, बादशाहपुर (गुरुग्राम)
14 अगस्त 1947 को देश का विभाजन हुआ। पाकिस्तान में रहने वाले हिदुओं को न जाने कितनी यातनाएं झेलनी पड़ीं। उन यातनाओं को और कत्लेआम के ²श्य को याद कर आज भी लोग सिहर उठते हैं। विषम परिस्थितियों में भी अपने आप को संभाल कर बेहतर स्थिति में खड़ा किया। पाकिस्तान से विस्थापित होकर गुरुग्राम के चार आठ मरला में रहने वाली ऐसी एक शख्सियत हैं विशन दास चुटानी। विशन दास चुटानी ने संघर्ष कर शिक्षा विभाग में नौकरी की और 1997 में खंड शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए।
विशन दास चुटानी से दैनिक जागरण ने विभाजन विभीषिका को लेकर विस्तार से बातचीत की। विशन दास बताते हैं कि जब पाकिस्तान में कत्लेआम शुरू हुआ तो वे नौ साल के थे और कक्षा तीन के विद्यार्थी थे। डेरा गाजी खान जिले के नुतकानी गांव में रहते थे। 14 अगस्त 1947 से पहले माहौल बिल्कुल भाईचारे का था। हिदू मुस्लिम सभी एक साथ स्कूल में पढ़ते थे। गली मोहल्लों में सब प्रेम से रहते थे।
विभाजन का समाचार मिलने के बाद हालात एकदम बदल गए। पाकिस्तान में विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों ने माहौल को सबसे ज्यादा खराब किया। हालात खराब होते देख उनके परिवार वहां से निकलने की योजना बनाई। एक पारिवारिक मित्र ने उनको ऊंट दिए और सुरक्षित रास्तों से डेरा गाजी खान पहुंचाया। डेरा गाजी खान से ट्रेन नहीं थी। वहां से ट्रक से मुजफ्फरगढ़ पहुंचाया गया। वहां से ट्रेन से अटारी बार्डर पहुंचने के बाद उन्होंने राहत की सांस ली। सबसे पहले हिसार कैंट में रखा गया। काफी दिनों तक वहां रहने के बाद डेरा गाजी खान के रहने वाले सभी लोगों को गुरुग्राम भेजा गया। यहां टेंट में और मिट्टी के घर में रहकर गुजर-बसर किया। साथ ही पढ़ाई भी जारी रखी। द्रोणाचार्य कालेज से स्नातक की डिग्री लेने के बाद शिक्षा विभाग में नौकरी की।
पिता के साथ चावल बेचकर इस मुकाम तक पहुंचाया परिवार को
चार आठ मरला में रहने वाले ठाकरदास चावला 1947 के मंजर को याद कर आज भी बिलख उठते हैं। 14 अगस्त 1947 को जब विभाजन का समाचार आया तो सदियों से साथ रहने वाले लोगों के भी तेवर बदल गए। जिनके साथ हंसी-खुशी खेलते और दिन व्यतीत करते थे, वही लोग अब जान के दुश्मन बनते जा रहे थे। ठाकरदास चावला बताते हैं कि वे डेरा गाजी खान जिले के कोटानी गांव में रहते थे। विभाजन के समय वह कक्षा छह में पढ़ते थे। जब चारों तरफ से मार-काट और हिदूओं पर अत्याचारों के समाचार सुने तो उन्होंने स्कूल से सर्टिफिकेट निकलवा लिया। रास्ते में सरेआम लूटपाट होती थी। बहन बेटियों की इज्जत लूट ली जाती थी।
वह कुछ समय बाद गांव छोड़ पास के एक कस्बे में आ गए। वहां से उनके एक मित्र ने बताया कि हालात ठीक नहीं हैं। यहां से डेरा गाजी खान निकल जाओ। गाजी खान पहुंचने के लिए ट्रक का इंतजाम किया गया। जब डेरा गाजी खान जा रहे थे तो रास्ते में लूटपाट और कत्लेआम का समाचार मिला। दूसरे रास्तों से बचते-बचाते जैसे-तैसे कर डेरा गाजी खान पहुंचे। वहां से मुजफ्फरगढ़ से ट्रेन पकड़ कर निकले। ट्रेन जब लाहौर पहुंची तो कुछ लोगों ने लाहौर स्टेशन से पहले ही खड़ी ट्रेन पर हमला बोल दिया। भारतीय सेना के जवानों ने वहां हमारी जान बचाई। उसके बाद कैथल पहुंच गए। कैथल से रोहतक कैंप भेज दिया गया।
रोहतक कैंप के बाद गुरुग्राम के पास गैरतपुर बास गांव में उनको जमीन अलाट की गई। वहीं खेत में ही कच्चे घरों में कई साल गुजारे। परिवार का पालन पोषण करने के लिए पिता ने चावल बेचने का काम शुरू किया। जब गांव में चावल बेचने जाते थे तब भी लोगों के तरह-तरह के ताने सुनने को मिलते थे। पिता के साथ मथुरा से चावल लाकर घर-घर बेचने में उनकी मदद की। पिता ने हमेशा पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। साथ-साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। दिल्ली विश्वविद्यालय से परास्नातक की डिग्री ली। उसके बाद कई महकमों में नौकरी की। ठाकरदास चावला कहते हैं कि हमने सब यातनाएं झेलीं पर कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। अपने आपको खुद खड़ा किया। उनकी तीन बेटियां हैं। तीनों बेटियां पढ़-लिखकर नौकरी कर रही हैं। पुरुषार्थ से ही परिवार इस मुकाम तक पहुंचा है।