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शहर की फिजा: प्रियंका दुबे मेहता

सायरन की तेज आवाज ट्रैफिक को चीरती भीड़ को तितर-बितर करती द्रुतगति से आगे निकलती गाड़ियां अक्सर दिल दहला देती हैं। एंबुलेंस यानी कि वह प्राणरक्षक वाहन जिसकी आहट से ही लोग किनारे हो जाते हैं

By JagranEdited By: Published: Mon, 10 May 2021 04:45 PM (IST)Updated: Mon, 10 May 2021 04:46 PM (IST)
शहर की फिजा: प्रियंका दुबे मेहता
शहर की फिजा: प्रियंका दुबे मेहता

तीन पहियों पर निकला इंसानियत का कारवां

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सायरन की तेज आवाज, ट्रैफिक को चीरती, भीड़ को तितर-बितर करती द्रुतगति से आगे निकलती गाड़ियां अक्सर दिल दहला देती हैं। एंबुलेंस यानी कि वह प्राणरक्षक वाहन, जिसकी आहट से ही लोग किनारे हो जाते हैं, जिसको देखते ही गाड़ियों की गति थम जाती है और जिसके गुजरते ही दिल से अनजान की सलामती की दुआ निकल उठती है। तो अब आप किसी आटो को भी देखें, तो भी इसी तरह की भावना रखें। उसे राह दे दें, क्योंकि पता नहीं कौन सा आटो एंबुलेंस हो। शहर में कुछ ऐसे आटो चल रहे हैं जो एंबुलेंस का काम कर रहे हैं। सुनील राव की रेवा फाउंडेशन और साईं सेवा फाउंडेशन द्वारा शुरू आक्सीजन सिलेंडर युक्त आटो की सेवा संदेश देती है कि जज्बा और मदद की भावना होनी चाहिए, फिर जरूरी नहीं कि पूरा का पूरा पेड़ उखाड़ा जाए, डूबते को सहारा तो एक तिनके का भी काफी होता है।

बेबसी का माहौल

माहौल कितना बदल गया है। परिस्थितियां किस कदर मानवता पर हावी हो रही हैं और कैसी लाचारी है कि लोग अपनों को भी कंधा नहीं दे पा रहे हैं। हालात के आगे किसी की नहीं चलती। प्रकृति के नियम बदल जाते हैं तो सामाजिक मान्यताओं की क्या बिसात। वे किस कदर गौण हो जाती हैं, इसका जीता-जागता नमूना हम देख रहे हैं। श्मशान स्थल पर लोगों का जमघट और किसी के चले जाने पर घरों में संवेदनाओं के शब्द, सब खत्म हो गया है। सेक्टर 65 स्थित सोसाइटी के रोहित द्रवित हृदय से अपने पिता के शव को लेकर अकेले श्मशान पहुंचते हैं तो बेबसी पर फफक पड़ते हैं, फिर कुछ संयत होते हैं, यह देखकर कि वहां सभी का एक सा हाल है। अकेले आए हैं, और अकेले ही जाने का कुदरत का नियम कुछ और सीमित हो गया है कि अंतिम यात्रा भी अकेले ही तय करनी होगी। प्रकृति का करुण विलाप

रूह कंपाती तेज आंधी, तो कभी ओलों के साथ तीव्र बौछारें और कभी तबाही का सा मंजर दिखाती बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक। कुछ दिनों से मौसम के पल-पल बदलते मिजाज को देखकर लगता है मानो प्रकृति भी सब्र खोती जा रही है। प्रकृति का यह क्रंदन बस न चल पाने की खिसियाहट और छटपटाहट का नतीजा है। जैसे अपने बच्चों को न बचा पाने और उन्हें इन हालात में तड़पता देखने की लाचारी इसे जार-जार रोने पर मजबूर कर रही हो। जब कुदरत का ऐसा विलाप हो तो इंसान का क्या हाल होगा, यह हर जगह नजर आ रहा है। अस्पताल के बाहर घंटों से खड़ी, हालात के आगे लगभग समर्पण कर चुकी उस बेटी की पथराई आंखें बरसात से नम थीं या फिर बेबसी की करुण धार से, जिसमें वह अपने को तिल-तिल तड़पता देखकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी, अंदाजा लगाना कठिन था। कुछ लोगों की लापरवाही जस की तस

आंखें खोलने को एक ही झटका काफी होता है, लेकिन हम झटके पर झटकों के बाद भी संभलने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिनके अपने गए, वे खोने का दर्द समझ कर सतर्क हो गए हैं, लेकिन जिन्हें अभी परमात्मा की दया से कुछ नहीं हुआ है, वे अपने को शेर समझ रहे हैं। महामारी ने बड़े-बड़े शेरों को जहां अपनी मांद में छिपने को मजबूर कर दिया है, वहीं कुछ लोग अभी भी शारीरिक दूरी, मास्क और सैनिटाइजेशन जैसी चीजों के बेकार की बातें मानकर दुकानों में पहुंच रहे हैं, बाजारों में खुलेआम अपनी खोखली शक्ति का मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं और दिखा रहे हैं कि परिस्थितियों का उन पर कोई असर नहीं है। सब्जी वाले से मोलभाव करते उस मास्कहीन युवक को देखकर गुस्सा भी आता है और दया भी, जो अपनी जिंदगी ही नहीं, अपनी लापरवाही से औरों की जिदगी भी खतरे में डाल रहा था।


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