फुटबॉल के सितारे फिर रहे मारे-मारे, कोई बेच रहा कपड़े तो कोई जूतों की दुकान पर कर रहा काम
बिहार में फुटबॉल के कई होनहार खिलाड़ियों का हाल बेहाल है और वो जीवन यापन के लिए सड़कों पर रोजगार करते नजर आ रहे हैं।
अरुण सिंह, पटना। दुनिया के सबसे महंगे खेल फुटबॉल और उसके खिलाड़ियों का हाल बिहार में बेहाल है। यहां के दिग्गज सितारे सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं। नेशनल में स्वर्ण पदक जीत चुके बाबर आलम को जीवन यापन के लिए ठेले पर कपड़े बेचने पड़ रहे हैं। दो जून की रोटी के लिए कांस्य पदक विजेता नादिर परवेज जूते की दुकान में काम करते हैं तो पांच बार संतोष ट्रॉफी खेल चुके सलाउद्दीन बस कंडक्टर हैं।
बेमानी है पदक लाओ, नौकरी पाओ की घोषणा : 2001 में तमिलनाडु में हुई राष्ट्रीय सब जूनियर चैंपियनशिप में स्वर्ण और 2006 में जमालपुर में अंडर-21 जूनियर नेशनल में कांस्य पदक समेत छह बार बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्य सरकार से सम्मानित बाबर पटना जंक्शन के पास ठेला लगाते हैं। 150 रुपये प्रतिदिन की कमाई में पांच सदस्यों के परिवार को पालना मुश्किल है। 2015 में मुख्यमंत्री की पदक लाओ और नौकरी पाओ की अपील से उम्मीद जगी। उपलब्धियों को लेकर वह सचिवालय के सामान्य प्रशासन विभाग गए। चार साल बाद सूची निकली, तो उनका नाम गायब था। इतना होने के बाद भी बाबर 33 की उम्र में जिला लीग खेल रहे हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि सुबह जरूर होगी।
सम्मान मिला, पर नौकरी नहीं : 2003 में भारतीय टीम के कैंप में चयन, 2004 में अंडर-21 राष्ट्रीय फुटबॉल में कांस्य पदक, 2009 से लगातार पांच बार संतोष ट्रॉफी में बिहार का प्रतिनिधित्व, इसके एवज में नादिर परवेज को राज्य सरकार की ओर से दो बार सम्मान मिला। 2010 में खिलाड़ी कल्याण कोष से उनके घुटने का ऑपरेशन भी हुआ, पर नौकरी नहीं मिली। हारकर पटना के दरियापुर गोला के पास जूते की दुकान में काम करने लगे। 30 साल के नादिर ने बताया कि तीन हजार रुपये महीने के वेतन से परिवार पालना मुश्किल है।
कप्तान कर रहा बस कंडक्टरी : पांच बार संतोष ट्रॉफी में बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके और वर्तमान में पटना फुटबॉल टीम के कप्तान मुहम्मद सलाउद्दीन ने नौकरी के लिए काफी प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। आखिरकार उन्होंने दुर्गापुर में बस कंडक्टरी करने का फैसला किया। माता-पिता और दो भाइयों का पालन कर रहे सलाउद्दीन ने बताया कि प्रतिदिन 300 रुपये मिलते हैं। स्थायी नौकरी न होने के कारण महीने में 10-12 दिन ही काम मिलता है, जिससे घर का खर्च निकलना मुश्किल हो रहा है।
खेती करने को मजबूर ममता ममता : तीन बार नेशनल में बिहार का प्रतिनिधित्व और दो बार भारतीय जूनियर फुटबॉल टीम के कैंप में शामिल रहीं सिवान की ममता मां की मृत्यु और पिता के लकवाग्रस्त होने के बाद बड़ी बहन के मायके में बटइया में जमीन लेकर खेती करने को मजबूर हैं। चार बहनों में सबसे छोटी ममता के बड़े भाई ने मुश्किल घड़ी में उनका साथ छोड़ दिया। 19 साल की ममता ने सरकार से मदद की गुहार लगाई है।