प्रीती कुशवाहा, नई दिल्ली। 'थोड़ा सा प्यार हुआ है, थोड़ा है बाकी...' गाना सुनते ही आज भी जहन में एक ही चेहरा सामने आता है और वो है सुजल ग्रेवाल यानी राजीव खंडेलवाल। टीवी सीरियल 'कहीं तो होगा' से घर-घर में पहचान बनाने वाले, खास तौर पर फीमेल फैंस के दिलों पर छाने वाले, राजीव ने छोटे पर्दे से लेकर बॉलीवुड तक अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाया। कई वेब सीरीज पर में भी राजीव नजर आ चुके हैं।
राजीव खंडेलवाल अब एक बेहद संवेदनशील मुद्दे पर आधारित वेब सीरीज 'नक्सलबाड़ी' लेकर आ रहे हैं। ये वेब सीरीज़ 28 नवंबर को जी5 पर रिलीज़ हो रही है। टीवी से लेकर फिल्मों और अब वेब वर्ल्ड में धमाल मचाने वाले राजीव खंडेलवाल से उनकी वेब सीरीज पर बातचीत के कुछ अंश...
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क्या खास है 'नक्सलबाड़ी' की कहानी में?
'नक्सलबाड़ी' की कहानी नक्सलवाद के मुद्दों को छूती है। इस विषय पर ज्यादा फिल्में नहीं हैं। हमने अगल-अलग लागों पर अलग विषयों पर फिल्में देखीं हैं। नक्सलवाद पर कुछ फिल्में ही बनी हैं। 'नक्सलबाड़ी' उस मुद्दे को छूती है, जहां नक्सलियों का अपना एक नजरिया है। साथ ही पुलिस वालों को इसे लेकर क्या नजरिया है, ये उसे भी दिखाती है। वहीं, इससे किसका फायदा है, किसका नुक्सान है। ये वेब सीरीज उन सभी मद्दों को भी छूती है। इस कहानी में दिखाया गया है कि नक्सलियों का क्या एजेंडा है, उनकी क्या डिमांड है। वो इस बारे में क्या सोचते हैं, कैसे बहकाए जाते हैं या बहक जाते हैं। फिर उनका फायदा उठाया जाता है। इससे किसको मुनाफा होता है और किसको नुकसान। ये सब आपको इस कहानी में देखने को मिलेगा। ये एक एक्शन सीरीज है जहां पर राघव (राजीव खंडेलवाल) नक्सलियों से लड़ता है। इसकी वजह से उसका पर्सनल लॉस भी होता है। फिर वो कैसे बदला लेता है।
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नक्सलवाद की समस्या को लेकर आप क्या सोचते हैं?
नक्सलवाद का मुद्दा हमारे देश में कई दशकों से बना हुआ है, जिसकी वजह से हम सबको बहुत कुछ सहना पड़ा है। ना जाने कितने पुलिसवाले इस नक्सवाद की वजह से शहीद हुए हैं। वहीं, कई नक्सलवादी भी इसकी वजह से मारे गए। कितने आम लोगों को इसकी वजह से क्षति पहुंची है। ये मुद्दा कभी खत्म हो ही नहीं रहा है। वहीं जो लोग इस मुहिम से जुड़े हैं, उन्हें भी ये समझना चाहिए कि क्या उनका फायदा उठाया जा रहा है। ये एक ऐसी समस्या है जो कई दशकों से है तो इसका समाधान आज तक क्यों नहीं हुआ है। मुझे लगता है कि नक्सलवाद पर अब तक कम टेस्ट किया गया है। अब वक्त आ गया है कि अगर हमें अपने देश को वाकई आगे बढाना है तो इन छोटे-मोटे मुद्दों को खत्म करना चाहिए ताकि हमारे देश की उन्नति में रफ्तार आए।
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टीवी और फ़िल्में वैसे तो ज़्यादातर मुंबई में ही बनती हैं, मगर यह फ़ासला तय करना कितना मुश्किल रहा आपके लिए?
टीवी और फिल्मों में कोई फासला नहीं है। फासला सिर्फ देखने वालों के नजरिये में है। मेरा मानना है कि बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश या देश के किसी भी कोने को आप देख लें, जहां लोग टीवी भी देखते हैं और फिल्में भी। मुझे ऐसा लगता है कि लोग टीवी ज्यादा देखते हैं। वो अराम से घर का काम करते हुए टीवी देख सकते हैं, जबकि फिल्में देखने के लिए उन्हें बाहर जाना पड़ता है। वहीं, टीवी के किरदारों को वो हमेशा ही याद रखते हैं, जबकि फिल्मों के किरदारों को वो भूल जाते हैं।
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क्या टीवी के कलाकारों को फिल्म इंडस्ट्री नहीं अपनाती है?
ऐसा नहीं, अगर आप देखें तो फिल्मी स्टार्स को भी टीवी पर मौका नहीं मिलता है। टीवी पर कोई नहीं टिक सका आज तक। यहां तक कि अमिताभ बच्चन भी टीवी पर फेल हो गए। उन्होंने भी एक सीरियल 'युद्ध' किया था। लोगों ने देखा ही नहीं। टीवी में उन्हें किसी ने नहीं अपनाया। ये आप पर निर्भर करता है कि आप अपनी प्रतिभा, अपनी रंगत को कहां जमा सकते हैं। ये कहना गलत है कि टीवी के एक्टर को फिल्मों में संघर्ष करना पड़ता है, बल्कि फिल्मों के एक्टर को जगह ही नहीं मिलती है टीवी पर। ये सब बस सोचने का नजरिया है।
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टीवी से फिल्म तक सफर कैसे तय किया?
मैंने हमेशा एक्टिंग में अपने करियर की शुरुआत की है। आज भी मैं एक्टिंग ही कर रहा हूं। आज तक मैंने अपना पेशा बदला ही नहीं। हां, मीडियम ज़रूर बदला है, क्योंकि मीडियम हमेशा बदलते हैं ऑडियंस के लिए। अगर आपको मैं और मेरी एक्टिंग पसंद है तो आप मेरे सीरियल भी देखेगें, मेरी फिल्में भी और वेब सीरीज भी देखेंगे। आने वाले वक्त में, अगर मैं थिएटर करूंगा तो वहां भी आप मुझे पसंद करेंगे। मैं बहुत सुरक्षित हूं इस मामले में कि मुझे कोई मीडियम बांध नहीं सकता। अगर बांध दिया तो फिर मैं कलाकार किस बात का।
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टीवी सीरियल्स और फिल्मों की एक्टिंग में कितना अंतर है?
डेली सोप में काम करने और फिल्मों में काम करने में बहुत अंतर है। मैं डेली सोप में काम नहीं कर सका, इसलिए छोड़ दिया। मैंने 'कहीं तो होगा' और 'लेफ्ट राइट लेफ्ट' दो ही डेली सोप में काम किया और फिर छोड़ दिया क्योंकि मैं नहीं कर सका। इसके बाद मैंने छोटी-छोटी सीरीज में काम किया, जैसे 'सच का समना', 'रिपोर्टर्स', 'जज्बात'। डेली सोप का मतलब है कि आपको हर रोज समय पर टेलीकास्ट होना। ये आपको समय से बांध कर रखता है। फिल्मों और वेब सीरीज़ में इस चीज की बंदिश नहीं है।
ओटीटी के बढ़ते क्रेज के पीछे क्या वजह मानते हैं?
जैसे-जैसे समय बढ़ता जाएगा, नई-नई टेक्नोलॉजी आती जाएंगी, चीजें बदलती जाएंगी। वेब सीरीज में लोगों के लिए सहूलियत है कि वो जहां कहीं है, जब उनका मन करे वो अपनी पसंद, अपनी चाहत के अनुसार चीजें देख सकते हैं। इसमें दो घंटे की फिल्में भी हैं, आधे घंटे की सीरीज भी है। आपका जैसा दिल चाहे वैसा आप देखें। वहीं, बात रही सिनेमाघरों की तो जो सिनेमा प्रेमी हैं, वो तब तक सिनेमाहॉल जाकर फिल्में देखेंगे, जब तक फिल्में लगती रहेंगी।
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आप एक राइटर भी हैं तो राइटिंग से एक्टिंग तक के सफर के बारे में कुछ बताएं?
राइटिंग मेरा शौक है और मैं ये नहीं जानता कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूं या नहीं, लेकिन मुझे शब्दों को जोड़ना बहुत अच्छे से आता है। मैंने अपने शोज में अपनी सीरीज में बहुत सारी चीजें लिखीं हैं, लेकिन कभी क्रेडिट नहीं लिया, क्योंकि ये सिर्फ मेरा शौक है। मैं जब किसी के लिए लिखता हूं तो वो लाइनें सिर्फ मेरी होती हैं। मुझे तकलीफ होती है, जब कोई किसी की लाइनें और आइडिया चुरा कर देता है। आने वाले समय में हो सकता है कि एक दिन मैं अपनी लिखी हुई कहानी लोगों तक ज़रूर लेकर आऊं।
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आपने लॉकडाउन में क्या किया?
लॉकडाउन में अपने शौक को तराशा। खास तौर पर अपने म्यूजिक के शौक को निखारने की कोशिश की। गोवा गया वहां खेती-बाड़ी बहुत कुछ किया। लॉकडाउन का वक्त मेरा बहुत अच्छा बीता।