Exclusive: जानें- कहां से मिला पंकज त्रिपाठी को मिर्ज़ापुर में 'कालीन भइया' बनने का अनुभव
Exclusive पंकज त्रिपाठी को अमेज़न प्राइम वीडियो की वेब सीरीज़ मिर्ज़ापुर से काफी फेम मिला है। उन्होंने बताया कि वह पूर्वांचल में रहे हैं बिहार की राजनीति की अच्छी समझ रखते हैं। जहां ऐसे किरदार को समझना आसान हो जाता है। पढ़िए- पूरा इंटरव्यू
नई दिल्ली, जेएनएन। वेब सीरीज 'मिर्जापुर' में कालीन भैया के किरदार ने पंकज त्रिपाठी के करियर को नई दिशा दी। आगामी 23 अक्टूबर से अमेजॉन प्राइम वीडियो पर 'मिर्जापुर-2' स्ट्रीम होने वाली है। ऐसे में उनसे स्मिता श्रीवास्तव ने बातचीती की है। जानिए उन्होंने क्या बातें साझा की है...
लॉकडाउन के दौरान अपने काम का विश्लेषण करने का कितना मौका मिला?
काम को तो नहीं, लेकिन जिंदगी को एनालाइज करने का मौका खूब मिला। पिछले कुछ वक्त से मैं बहुत तेज गति से भाग रहा था। थोड़ा रुकना, सुकून और शांति महसूस करना बहुत जरूरी था। लगातार कई प्रोजेक्ट कर रहा था, अब सब काम थोड़े आराम से करना चाहूंगा।
किरदार से पहचाना जाना कितना अच्छा होता है?
इससे यह पता चलता है कि वह किरदार लोगों तक पहुंचा। लोग अब मेरा नाम जानने लगे हैं, वरना पहले तो वही सुल्तान, पंडित, कालीन भैया, इन्हीं किरदारों से जानते थे। कालीन भैया तो इतना लोकप्रिय हो गया है कि अब ये मेरा निकनेम बन गया है।
आपके लगभग हर वेब शो के अगले सीजंस आ रहे हैं। उन्हीं किरदारों को बार-बार निभाने में क्या चुनौतियां आती हैं?
जब मैंने 'मिर्जापुर-2' की शूटिंग शुरू की तो मेरा सुर थोड़ा गड़बड़ था। तब निर्देशक ने याद दिलाया कि आप पहले सीजन में ऐसा करते थे। फिर एक सीन दिखाया गया। तब कालीन भैया के स्पेस में आ गया। हर किरदार का अपना जोन होता है। जब अगले भाग में काम करते हैं तो उस जोन में जाना होता है। अब एक्टर हैं तो उसकी नब्ज पकड़ लेते हैं।
वेब सीरीज में कुलभूषण खरबंदा आपके पिता के किरदार में हैं। उनके साथ किसी सीन या दूसरी बातों को लेकर चर्चा होती थी?
मैं उनके साथ बैठकर उनके जमाने की बातें सुनता था। उनके दौर में फिल्मों का माहौल कैसा था। वह थिएटर से आए अभिनेता हैं तो उनके साथ बैठना और बातें करना मेरे लिए सिखाने वाले अनुभव की तरह रहा। जब मैं गांव जाता हूं तो वहां भी बुजुर्गों के साथ बैठकर उनके अनुभव सुनता हूं। दूसरों के अनुभव हमें समृद्ध बनाते हैं।
आपने कहा था कि किरदारों को जीने के लिए नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का फिक्स डिपॉजिट खत्म हो गया है। अब वह कैसे रीफिल होगा?
वह ट्रैवलिंग से रीफिल होता है, गांव जाने से होता है। यह रीफिल किताबों से भी होता है। फिलहाल यात्रा और गांव जाना सब बंद है तो इन दिनों खूब पढ़ रहा हूं। बीते दिनों अनुराग पाठक, दिव्य प्रकाश दुबे, सत्य व्यास, प्रवीण कुमार, गोपालगंज के सर्वेश तिवारी और बलिया के अतुल राय को पढ़ा।
कई एक्टर कहते हैं कि सिनेमा देखने से सीखने को मिलता है। आपको इसमें कोई मदद मिली?
मैं सिनेमा से प्रेरित होकर सिनेमा नहीं करता। मैं देखने से ज्यादा पढ़ना सही समझता हूं। पढ़ते वक्त मैं अपना विजुअल बनाता हूं। एक नॉवेल दो लोग पढ़ेंगे तो वहां दो किस्म के विजुअल्स बन सकते हैं। उसमें मेरे जीवन के अनुभव भी होंगे।
कॉलेज के दौरान आप सात दिन जेल में रहे थे। क्या वह अनुभव क्राइम आधारित किरदारों को करते वक्त काम आता है?
हर किसी का अनुभव उसे एक आकार देने में बहुत मायने रखता है। मैंने हिंदुस्तान की लगभग सभी नदियों का पानी पिया है। तरह-तरह के लोगों से मिला हूं। वह अनुभव कालीन भैया या मेरे दूसरे किरदारों में दिखेगा। मिर्जापुर की दुनिया को मैं जानता हूं। मैं खुद पूर्वांचल से हूं। बिहार में चुनाव आने वाले हैं। मैं बिहार चुनाव आयोग से भी जुड़ा हूं। चुनाव से संबंधित तार्किक चीजों से लेकर चुनावी सरगर्मियां, राजनीति आदि से परिचित हूं। कालीन भैया के किरदार में मेरे ये अनुभव बहुत काम आते हैं।
अगर दुनिया को बदलने का मौका मिले तो क्या बदलना चाहेंगे?
बहुत मुश्किल है बताना, बहुत कुछ बदलना चाहूंगा। हमारे एक टीचर थे जो बोलते थे कि तानसेन नहीं कानसेन बनो। सामने वाला क्या बोल रहा है, पहले उसे सुनो। सुनने के बाद उसे बुनो कि वह ऐसा क्यों बोल रहा है? फिर उसके बारे में सोचो। तब अपनी राय बनाओ कि इसने ऐसा क्यों बोला? आज के दौर में हम सुनते नहीं है। जो सलाह देते हैं, कई बार उन्हें ही पता नहीं होता कि यह उनकी अपनी राय है या फिर उस राय में भरा गया किसी और का नजरिया है।
कहा जा रहा है कि छोटे शहर से आए लोगों के लिए सफलता को संभालना मुश्किल होता है। आपने सफलता को कैसे संभाला?
यह बुनावट की बात होती है। मुंबई में मेरे घर के सामने बहुत से पौधे लगे हुए हैं। किसी भी पौधे की जड़ अगर कमजोर हो जाएगी तो मामूली सी आंधी भी उसको गिरा सकती है, इसलिए अपनी जड़ों से जुड़े रहना बहुत जरूरी है। मैं सिर्फ अपने गांव या बिहार की बात करूं तो वे जड़ें भावनात्मक भी होती हैं। कुछ साल पहले मैं सीतापुर में फिल्म 'कागज' की शूटिंग कर रहा था। भीड़ में वहां कुछ जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर गांव के कुछ बुजुर्ग किसान भी थे। मैं उनको बहुत देर तक देखता रहा। मैंने उनसे बात नहीं की, लेकिन उनको देखकर मेरे अंदर एक करुणा पैदा हुई। वे भी जड़ें थीं। यह समझना जरूरी है कि सफलता पर्मानेंट नहीं है। जब हम ही पर्मानेंट नहीं हैं तो सफलता कैसे पर्मानेंट हो जाएगी।
एक्टिंग में मौलिकता सहजता से आती है, लेकिन वह सहजता आसान नहीं होती है...
सहजता का अभ्यास करना पड़ता है। चालीस साल का अनुभव है, जिसमें से 12 साल तक कोई काम नहीं किया था। मुंबई में खाली बैठा था। जैसे धूप में हमें सनबर्न होता है, लेकिन इसी धूप में हमें विटामिन-डी भी मिलता है, ठीक वैसे ही खाली समय में मैं खाली नहीं था, अपने क्राफ्ट पर काम कर रहा था। उसने मेरे जीवन और बतौर अभिनेता मुझमें बहुत कुछ जोड़ा, इसीलिए कॉमेडी और गंभीर किरदारों के साथ ही अच्छा प्रवचन भी कर लेता हूं।