मेरे अभिनय के सफर का छठ से गहरा रिश्ता है, चंदा जमा करके होता था नाटक: पंकज त्रिपाठी
पंकज त्रिपाठी कहते हैं- जब माताजी छठ पूजा करती थीं तब मैं गांव हर दो साल में एक बार पहुंच जाता था। जब से मां ने छठ पूजा करना बंद कर दिया तब से नहीं जाना हो पाता है।
नई दिल्ली, जेएनएन। कोरोना काल में छठ पूजा भी सावधानी बरतते हुए सीमित दायरे में की जा रही है। ऐसे में अभिनेता पंकज त्रिपाठी को घर की याद रहरहकर आ रही है। हालांकि वो छठ से अभिनय के सफर वाले वाकये को याद करते हैं। चंदा जमा करके पूजा के आखिरी दिन तीन साल किए नाटक के बारे में बताते हैं। पंकज ने साझा की छठ से जुड़ी बातें और यादें।
इस बार की छठ पूजा कोरोना की वजह से सीमित दायरे में होगी?
हां, इस साल घर पर ही हैं। मेरी माता जी पहले छठ पूजा करती थीं, अब वह नहीं करती हैं। मेरी भाभी पटना में घर पर पूजा कर रही हैं। छत पर पूजा होगी। आर्टिफिशियल तालाब बनेगा।
छठ के मौके पर गांव जाना होता है?
जब माताजी छठ पूजा करती थीं, तब मैं गांव हर दो साल में एक बार पहुंच जाता था। जब से मां ने छठ पूजा करना बंद कर दिया, तब से नहीं जाना हो पाता है। इस बार मौका था, शूटिंग नहीं है, लेकिन कोरोना वायरस की वजह से सफर करना मुश्किल है। घर की छत पर त्योहार मनेगा। वीडियो कॉल करूंगा। फिलहाल सेहत प्राथमिकता है। छठी मइया से प्रार्थना करेंगे कि अगले साल सब ठीक कर दें, ताकि धूमधाम से इस पर्व को मना पाएं।
छठ पर्व से आपका कैसा लगाव रहा है?
यह प्रकृति की पूजा है। उगते और डूबते सूर्य की पूजा नदी किनारे होती है। सूर्य, नदी यह सब प्रकृति का हिस्सा हैं। नए अनाज से बना प्रसाद चढ़ाया जाता है। छठी मइया का त्योहार सिखाता है कि हमें प्रकृति की इज्जत करनी चाहिए। इसके रीति-रिवाज कठिन होते हैं। छठ पूजा तप वाला काम है।
घर पर जब आप पूजा के समय होते थे, तो किस तरह की मदद करते थे? आप शेफ भी हैं।
जब गांव में था, तब शेफ नहीं था। माताजी ठेकुआ बनाती थीं। आटे को लकड़ी के फ्रेम पर चिपकाया जाता था, उस पर डिजाइन होता था। लोई बनाकर उस पर डिजाइन वाला प्रिंट बनाने का काम मैंने बचपन में बहुत किया है।
मुंबई में इस त्योहार से जुड़ी कौन सी बातें याद आती हैं?
बहुत सी यादें जुड़ी हैं। यह एकमात्र ऐसा त्योहार था, जब पता था कि नए कपड़े आएंगे। छठ पर हमारे स्वेटर, शॉल, कंबल जो अंदर रखे होते थे, वह सब बाहर निकाल दिए जाते थे। सुबह तीन बजे के करीब घाट पर जाना होता था। साल में पहली बार उस दिन स्वेटर निकलता था। मेरे अभिनय सफर का छठ से गहरा रिश्ता रहा है। चंदा जमा करके पूजा के आखिरी दिन नाटक होता था। तीन साल तक मैंने वहां नाटक किया है। 15-20 दिन पहले से रिहर्सल शुरू हो जाता था, जो हम सब रात में किया करते थे। साउंड सिस्टम फिक्स किया जाता था। हम लाइट के लिए दो पेट्रोमैक्स (एक प्रकार के लैंप का ब्रांड) जला दिया करते थे, जिसके प्रकाश में नाटक होता था। लाउडस्पीकर और माइक बैट्री से चलती थी। बैट्री के साउंड में कोई शोरगुल नहीं होता था।
छठ पूजा के दौरान कई लोकगीत भी गाए जाते हैं। वह गीत आपको याद हैं?
बिल्कुल याद है। सुबह के वक्त केलवा जे फरेला घवद से ओह पर सुग्गा मेड़राय... गाया जाता है। घाट पर जाते वक्त काचही बास के बहंगियां बहंगी लचकत जाए... गाया जाता है। शारदा सिन्हा जी छठ पूजा के गाने के लिए काफी प्रसिद्ध रही हैं। वह इन गानों की आइकन रही हैं। कोसी भरते समय परिवार के हर सदस्य का नाम लेकर ये गीत गाए जाते हैं। गांव में जो लोग नहीं पहुंच पाते थे, उनका नाम दूसरे लेते हैं।
आप खुद कितने आस्थावान रहे हैं?
मैं बहुत आस्थावान हूं। दीवाली और छठ से पहले से ही घर, गांव, घाट की सफाई में मैं लग जाता था। हमारे खेत में गन्ने की खेती होती थी। कोसी के लिए गन्ना चढ़ता है। खेत का एक हिस्सा छठ व्रतियों को दान के लिए रखते थे। जिसको भी कोसी के लिए गन्ना लेना होता था, उन्हें हम दे देते थे। यह पुण्य का काम है। सामाजिक सरोकार वाला त्योहार है। (प्रियंका सिंह से बातचीत के आधार पर)