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Sardar Udham Review: शूजित सरकार के 20 साल लम्बे इंतज़ार का 'मीठा' फल है सरदार ऊधम, पढ़ें पूरा रिव्यू

Sardar Udham Review सरदार ऊधम की कहानी के केंद्र में भले ही जलियांवाला बाग नरसंहार के बदले की कहानी हो मगर यह सिर्फ़ बदले की कहानी नहीं है। सरदार ऊधम उस दौर की युवा पीढ़ी की छटपटाहट को सामने लाती है।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Sat, 16 Oct 2021 03:03 AM (IST)Updated: Mon, 18 Oct 2021 04:19 PM (IST)
Sardar Udham Review: शूजित सरकार के 20 साल लम्बे इंतज़ार का 'मीठा' फल है सरदार ऊधम, पढ़ें पूरा रिव्यू
Vicky Kaushal as and in Sardar Udham. Photo- Instagram

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। अमेज़न प्राइम वीडियो पर आयी शूजित सरकार की ताज़ा पेशकश 'सरदार ऊधम' एक क्रांतिकारी के जीवन की घटनाओं को दिखाने वाली फ़िल्म मात्र नहीं है, बल्कि यह देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले सरदार भगत सिंह जैसे आंदोलनकारियों की विचारधारा को समझने और समझाने की बेहतरीन कोशिश है।

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सरदार ऊधम की कहानी के केंद्र में भले ही जलियांवाला बाग नरसंहार के बदले की कहानी हो, मगर यह सिर्फ़ बदले की कहानी नहीं है। सरदार ऊधम उस दौर की युवा पीढ़ी की छटपटाहट को सामने लाती है, जो ब्रिटिश हुकूमत के ज़ुल्मों-सितम और अपने ही देश में आज़ादी से सांस ना ले पाने की पीड़ा से उपजी थी।

फ़िल्म सरदार ऊधम सिंह की शख्सियत के साथ-साथ आज़ादी की लड़ाई के प्रति उनके नज़रिए से भी परिचित करवाती है। ऊधम सिंह का मक़सद सिर्फ़ बदला लेना नहीं था। अगर ऐसा होता तो लंदन में पंजाब के पूर्व गवर्नर माइकल ओ डायर के घर में काम करते हुए, उसके साथ शिकार पर जाते हुए कई मौक़े ऐसे आये, जब वो डायर को मारकर जलियांवाला बाग का बदला ले सकते थे, मगर डायर के घर पर उसे मारना सिर्फ़ एक 'मर्डर' होता 'प्रोटेस्ट' नहीं। 

यहां मक़सद था, अपनी आवाज़ दुनिया के दूसरे मुल्कों तक पहुंचाना, ताकि ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जा सके। ब्रिटिश हुकूमत तक यह संदेश पहुंचाना कि हिंदुस्तानी अपने दुश्मनों को नहीं भूलते, 20 साल बाद भी उन्हें ट्रैक करके ख़त्म कर देते हैं, जैसा कि सरदार ऊधम के पकड़े जाने के बाद मीडिया में रिपोर्ट होता है। सरदार ऊधम, भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ उस दौर की अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के असर का भी एक व्यापक चित्रण है।

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शुबेंदु भट्टाचार्य और रितेश शाह ने सरदार ऊधम का स्क्रीनप्ले नॉन-लीनियर फॉर्मेट में रखा है, यानी दृश्य वर्तमान से अतीत के बीच सफ़र करते हैं और ऊधम सिंह की कहानी धीरे-धीरे खुलती है। कहानी का कालखंड 1919 (जलियांवाला बाग नरसंहार) से 1940 (माइकल ओ डायर की हत्या) तक का है। फ़िल्म की शुरुआत 1931 में अमृतसर जेल से होती है, जिसमें ऊधम बंद होते हैं। उस समय उनका नाम शेर सिंह था।

जेल से छूटने के बाद ब्रिटिश सरकार ने उनकी निगरानी के लिए सीआईडी लगा रखी थी, मगर ऊधम सिंह उसे झांसा देकर यूरोप भाग जाते हैं। 1933 में रूस पहुंचते हैं और 1934 में लंदन। ब्रिटिश जासूसी एजेंसी एमआई और स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस को शेर सिंह की तलाश है।

भगत सिंह की शहादत के बाद से भारत में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लकन एसोसिएशन (HSRA) का वजूद ख़त्म होने की कगार पर है। भगत सिंह ने जेल से ऊधम सिंह को लिखी आख़िरी चिट्ठी में देश से बाहर जाकर सपोर्ट जुटाने के लिए कहा था। लंदन में ऊधम की मुलाक़ात अबीर मुखर्जी, सूरत अली, कोप्पिकर, रिहाना सिद्दीक़ी, समीर बंधोपाध्याय, दत्ता और सुमेर सिंह से होती है, जो लंदन में लो-प्राफाइल रहकर भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे।

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13 मार्च 1940 को जब लंदन के कैक्सटन हॉल में चल रही भरी सभा में सरदार ऊधम पंजाब के पूर्व गवर्नर माइकल ओ डायर के सीने में तीन गोलिया उतारते हैं तो उसकी गूंज 12-15 देशों की मीडिया में सुनाई देती है। हालांकि, ब्रिटिश सरकार इसे आतंकी और कायराना गतिविधि करार देती है।

जनरल डायर को मारने के बाद ऊधम सिंह को पकड़ लिया जाता है। ब्रिटिश सरकार और पुलिस अधिकारियों यह जानकर हैरान रह जाते हैं कि पिछले 6 सालों से वो लंदन में रहकर डायर को मारने की योजना बना रहे थे। उन्हें लगता है कि इसके पीछे कोई संगठन है और आगे किसी और बड़ी घटना को अंजाम देने की योजना है। साथियों के नाम पूछने के लिए ऊधम को यातनाएं दी जाती हैं।

डायर की मौत के पीछे साजिश का पता लगाने ज़िम्मेदारी डिटेक्टिव जॉन स्वेन को सौंपी जाती है। जैसे-जैसे घटनाक्रमों का खुलासा होता है, एक स्पाई फ़िल्म की फील आने लगती है। लंदन प्रवास के दौरान ऊधम ने एक्सट्रा के तौर पर फ़िल्म में काम किया। सड़क पर लॉन्जरी बेचीं। आयरन फैक्ट्री में वेल्डर के तौर भी काम किया। एक फिएट कार भी ख़रीदी। ऊधम सिंह ने शेर सिंह, उदे सिंह, आज़ाद सिंह, फैंक ब्राज़ील नाम के कई पासपोर्ट के ज़रिए पूरे यूरोप में ट्रैवल किया था। ब्रिटिश जासूस अंत तक उनके असली नाम का पता नहीं लगा पाते। पूछने पर हाथ पर राम मोहम्मद सिंह आज़ाद नाम का टैटू दिखाते हैं, जो कौमी एकता का संदेश देता है। 

लंदन में ऊधम की मुलाकात कम्यूनिस्ट एलीना पामर से होती है, जो उनकी मदद करती है। आयरलैंड की आज़ादी के लिए लड़ रही आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (IRA) की मदद से ऊधम भारत में आंदोलनकारियों के लिए आर्म्स भिजवाते हैं। हालांकि, वो कोलकाता पोर्ट पर पकड़ लिये जाते हैं। 

उसी कालखंड में ब्रिटिश और जर्मनी के बीच जंग छिड़ती है। ब्रिटिश क्राउन को यह भी डर होता है कि अगर ऊधम सिंह को मौत की सज़ा दी गयी तो उसका असर ब्रिटिश की ओर से लड़ रहे सिख सिपाहियों पर पड़ सकता है। आख़िरकार, ऊधम पर डायर की हत्या का मुकदमा चलता है। जॉन हचिंसन और वीके मेनन को वकील नियुक्त किया जाता है, मगर अदालत में डिफेंस को मौक़ा नहीं दिया जाता और ऊधम को फांसी की सज़ा सुना दी जाती है। 

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सरदार ऊधम बहुत इत्मिनान से बनायी गयी फ़िल्म है, जो आज़ादी के मतवालों को क़रीब से महसूस करने का ज़रिया है। फ़िल्म के संवादों में एक रवानगी और ठहराव है। फिज़ूल की डायलॉगबाज़ी नहीं है। हालांकि, ऐसी कहानियों में ओवर-द-टॉप जाने का काफ़ी स्कोप होता है, मगर सरदार ऊधम व्यवहारिक और संतुलित अंदाज़ में अपनी बात रखती है। संवादों मं किरदारों की भाषाई सीमाओं को ध्यान रखा गया है। ऊधम सिंह हिंदी के साथ टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलते हैं। अंग्रेज़ किरदार ज़बरदस्ती हिंदी नहीं बोलते। रूसी किरदार रूसी बोलते हैं। सबटाइटल्स का इस्तेमाल किया गया है।

संवादों के ज़रिए क्रांतिकारियों के वैचारिक स्तर को समझने की कोशिश की गयी है। सरदार ऊधम के साथ इंटरेक्शन के दौरान सरदार भगत सिंह कहते हैं कि पहले हमें रिबेल कहा जाता था, मगर अब आतंकवादी कहते हैं। फिर भगत सिंह बताते हैं कि एक आंदोलनकारी या रिवॉल्यूशनरी और आतंकी में क्या फर्क होता है।

एक दृश्य में डिटेक्टिव स्वेन सरदार ऊधम से भगत सिंह के बारे में पूछता है तो ऊधम सिंह उससे पूछते हैं कि 23 साल की उम्र में तुम क्या कर रहे थे? वो बताता है कि उसकी शादी हो चुकी थी। एक बच्चा था और ब्रिटिश पुलिस में वो सबसे कम उम्र का जासूस बन चुका था। ज़िंदगी खुशगवार थी। इस पर ऊधम सिंह कहते हैं तो फिर उसे भगत सिंह के बारे में बात नहीं करनी चाहिए।

कई दृश्यों में ख़ामोशी का बेहतरीन इस्तेमाल है। लंदन प्रवास के दौरान ऊधम जलियांवाला बाग में फायरिंग का हुक्म देने वाले ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर की कब्र पर पहुंचते हैं, जिसकी 1927 में डेथ हो चुकी थी। इस दृश्य में सिर्फ़ आंखों और चेहरे के भावों के ज़रिए ऊधम के अंदर के दर्द को दिखाया गया, जो उन्होंने किशोरवय में जलियांवाला बाग में पड़ी हज़ारों लाशों को देखकर महसूस किया होगा।

किरदारों को गढ़ने में लेखन टीम ने बेहतरीन काम किया है। माइकल ओ डायर के किरदार में ब्रिटिश होने का दंभ साफ़ नज़र आता है। जलियांवाला बाग नरसंहार का उसे कोई पछतावा नहीं है। अफ्रीका और भारत जैसे मुल्कों को वो बर्डन ऑफ व्हाइटमैन कहता और उन पर शासन करना फ़र्ज़ मानता है। 

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ऊधम सिंह के किरदार को विक्की कौशल ने सचमुच जीया है। उनकी परफॉर्मेंस में ज़बरदस्त परिपक्वता देखने को मिलती है। इस किरदार के लिए उन्होंने उम्र के कई पड़ावों को पर्दे पर बड़ी सहजता के साथ पेश किया है। निश्चित तौर पर विक्की की यह अब तक सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंसेज़ में शामिल है। अमोल पाराशर ने भगत सिंह के किरदार में स्पेशल अपीयरेंस किया है और इस किरदार के कुछ अलग पहलुओं को दिखाने की कोशिश की है। डिटेक्टिव जॉन स्वेन के किरदार में  स्टीफन होगन, एलीन पामर के रोल में कर्स्टी एवर्टन, माइकल ओ डायर के रोल में शॉन स्कॉट, जनरल डायर के किरदार में एंड्रू हैविल प्रभावित करते हैं। 

लेखन टीम ने जलियांवाला बाग नरसंहार के दृश्यों को स्क्रीनप्ले में अंत के लिए बचाकर रखा है। पर्दे पर इस नरसंहार को इतनी संवेदना और भावनात्मक गहराई के साथ शायद ही पहले कभी पेश किया गया हो। इन दृश्यों को जिस विस्तार और बारीकी से दिखाया गया है, उससे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता का यह स्मारक अंदर तक झिंझोड़ जाता है और ऊधम का इससे व्यक्तिगत कनेक्शन भी दिखाया गया है। लाशों के ढेर के बीच जीवित लोगों को खोजना और ठेले पर रखकर ले जाना, ख़ून से लथपथ बच्चों का तड़पना, कर्फ्यू लगा होने की वजह से इलाज ना मिलना... दृश्य भावुक करते हैं।

शूजित सरकार ने कहा था कि इस फ़िल्म को बनाने के लिए वो मुंबई आये थे और लगभग 20 साल बाद उनका यह सपना पूरा हो सका है। सरदार ऊधम शूजित के इंतज़ार का मीठा फल है। फ़िल्म तकनीकी तौर पर काफ़ी उन्नत है। जिस तरह बारीकियों पर ध्यान दिया गया है, वो अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों को टक्कर देना वाली है। ब्रिटिश दौर के अमृतसर और लंदन को रीक्रिएट करने में सेट डिज़ाइनिंग और कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग (वीरा कपूर) ने बेहतरीन काम किया है। उस दौर की कारें, बसें, दफ़्तर, टेलीफोन, वर्दियां, इमारतें, रास्ते, बंदूकें... सब मुकम्मल लगता है। सिनेमैटोग्राफी (अविक मुखोपाध्याय) और एडिटिंग विभागों ने फ़िल्म के विंटेज लुक को उभारने में मदद की है। सरदार ऊधम शूजित सरकार स्टाइल का सिनेमा है, जिसमें डूबकर ही इसका लुत्फ़ उठाया जा सकता है।

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कलाकार- विक्की कौशल, अमोल पाराशर, बनिता संधू, स्टीफन होगन, कर्स्टी एवर्टन, शॉन स्कॉट, जोगी मलंग आदि। 

निर्देशक- शूजित सरकार

निर्माता- रॉनी लाहिरी, शील कुमार।

अवधि- 2 घंटा 42 मिनट

रेटिंग- ***1/2 


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