फिल्म रिव्यू: किस दौर का है यह अफसाना? एक हसीना थी, एक दीवाना था (डेढ़ स्टार)
शिव की परवरिश मुंबई के अंग्रेजीदां माहौल की है। लिहाजा देवधर के अवतार में वे जब शायरी करते हैं तो लगता नहीं कि उन्होंने अल्फाजों व जज्बातों को महसूस किया है।
-अमित कर्ण
मुख्य कलाकार: शिव दर्शन, नताशा फर्नांडिस, उपेन पटेल आदि।
निर्देशक: सुनील दर्शन
निर्माता: श्रीकृष्ण इंटरनेशनल
स्टार: डेढ़ स्टार (*1/2)
सिने जगत में कॉरपोरेट स्टूडियो और मल्टीप्लेक्स कल्चर के आगमन के बाद से लोगों का स्वाद बिल्कुल बदल चुका है। वे रियलिज्म के अभाव, लचर पटकथा और कमजोर अदाकारी को कतई बर्दाश्त नहीं करते। खासतौर पर फिल्म में जाने-माने चेहरों की मौजूदगी न हो तो। एक जमाने में सफल फिल्में दे चुके सुनील दर्शन की यह फिल्म उक्त कारणों के चलते असरहीन हो गई है। हॉरर,थ्रिलर और रोमांस उस ‘अंदाज’ में पेश हुई है कि वह दर्शकों से ‘एक रिश्ता’ नहीं बना पाई है। साफ लगता है कि यह आज के दौर से कई दशकों पहले की फिल्म है। नदीम के संगीत को छोड़ दें तो यह लेष मात्र भी प्रभाव नहीं छोड़ती। नताशा और सनी भारत से इंग्लैंड जाते हैं। वहां एक आलीशान महल में महीने भर बाद उनकी शादी होनी है। वहां पहुंचते ही नताशा के संग अजीबोगरीब घटनाएं होने लगती हैं।
महल के केयरटेकर और नताशा के चाचा इसे महल में 55 साल पहले हुई एक वारदात से जोड़ते हैं। साथ ही नताशा की जिंदगी में देवधर दस्तक देता है। सनी से अपने रिश्ते को लेकर असमंजस में पड़ी नताशा अपना दिल देवधर को दे बैठती है। कहानी आगे बढ़ती है। फिर जिन राज का पर्दाफाश होता है, वे नताशा की जिंदगी में तूफान ला खड़ा करता है। दरअसल, फिल्म का लेखन सधा हुआ नहीं है। घटनाक्रम में मोड़ लाने के लिए जिन वजहों का हवाला दिया गया है, वे खटकते हैं। 105 मिनट की लंबी फिल्म कहीं बांध नहीं पाती।
शाश्वत प्रेम की पुष्टि के लिए जो तर्क दिए व दिखाए गए हैं, उनमें कहीं वजन नजर नहीं आता। मसलन, आत्मा खुद भगवान से 14 दिनों की जिंदगी मांगकर जमीन पर आया है। गाने मधुर हैं। नौंवे दशक की याद ताजा करते हैं, पर उनकी लंबी फेहरिस्त है। यूं लगता है कि फिल्म का गठन गानों से ही हो गया है। कहानी तो रिक्त स्थानों की पूर्ति भर कर रहे हैं। सीन दर सीन में स्थानांतरण का तरीका भी गुजरे जमाने का लगता है। थ्रिलर का स्तर धारावाहिकों सा हो गया है। वह कई मौकों पर हास्यास्पद सा लगा है। देवधर बने शिव दर्शन और नताशा की भूमिका में नताशा फर्नानडीज को अदायगी के मोर्चे पर पुरजोर रियाज की दरकार है।
शिव की परवरिश मुंबई के अंग्रेजीदां माहौल की है। लिहाजा देवधर के अवतार में वे जब शायरी करते हैं तो लगता नहीं कि उन्होंने अल्फाजों व जज्बातों को महसूस किया है। उनका चेहरा उसकी गवाही नहीं देता। बोल और भाव-भंगिमा में बड़ा फासला दिखता है। नताशा फर्नानडीज की स्क्रीन मौजूदगी ठीक है, पर अदाकारी की औपचारिक ट्रेनिंग न होना उनके लिए अभिशाप बना है। इस पर उन्हें युदधस्तर पर काम करने की जरूरत है। उपेन पटेल ने अपनी वापसी सार्थक की है। वे सतत अपने किरदार में रहे। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। सुनील दर्शन ने लकदक लोकेशन को बखूबी कैमरे में कैप्चर किया है। काश कि एक सधी हुई कहानी भी उन्होंने कैप्चर की होती!
अवधि: 1 घंटा 45 मिनट 54 सेकेंड