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फिल्‍म रिव्‍यू: अ डेथ इन द गंज

रणवीर शौरी और कल्कि कोचलिन का अभिनय उल्‍लेखनीय है। शुटु के किरदार में विक्रांत मैसी प्रभावित करते हैं।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Thu, 01 Jun 2017 03:47 PM (IST)Updated: Thu, 01 Jun 2017 03:47 PM (IST)
फिल्‍म रिव्‍यू: अ डेथ इन द गंज
फिल्‍म रिव्‍यू: अ डेथ इन द गंज

- अजय ब्रह्मात्‍मज

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मुख्य कलाकार: ओम पुरी, तनुजा, कल्कि कोचलिन, विक्रांत मैसी, गुलशन देवैया, रणवीर शौरी आदि।

निर्देशक: कोंकणा सेन शर्मा

निर्माता: अभिषेक चौबे, आशीष भटनागर, नील पटेल आदि।

स्टार: ***1/2 (साढ़े तीन स्‍टार)

कोंकणा सेन शर्मा निर्देशित ‘अ डेथ इन द गंज’ बांग्‍ला फिल्‍मों की परिपाटी की हिंदी फिल्‍म है। इन दिनों बंगाल और देश के दूसरे हिस्‍सों से आए अनेक बांग्‍ला फिल्‍मकार हिंदी में फिल्‍में बना रहे हैं। पुराने बांग्‍ला फिल्‍मकारों की तरह वे बंगाल की पष्‍ठभूमि तो रखते हैं, लेकिन संस्‍कृति और संवेदना के लिहाज से उनमें बांग्‍ला टच नहीं रहता। ज्‍यादातर फिल्‍में उस शहरीकरण की शिकार होती है, जिसके तहत देश भर के दर्शकों का खुश करने की कोशिश रहती है। कोंकणा सेन शर्मा की फिल्‍म में ऐसी कोशिश नहीं है। उनकी फिल्‍म बांग्‍ला के मशहूर फिल्‍मकारों की परंपरा में हैं। इस फिल्‍म के लिए कोंकणा सेन शर्मा ने अपने पिता मुकुल शर्मा की कहानी को आधार बनाया है।

रांची के पास स्थित मैक्‍लुस्‍कीगंज में फिल्म का परिवेश है और यह साल 1979 की बात है। कोकणा सेन शर्मा और उनकी टीम ने बहुत खूबसूरती से ततकालीन माहौल को पर्दे पर रचा है। भाषा, परिवेश, परिधान और आचार-व्‍यवहार में पीरियड का यथोचित ध्‍यान रखा गया है। हां, भाषा को लेकर आम दर्शकों को दिक्‍कत हो सकती है, क्‍योंकि फर्राटे से अंग्रेजी और कभी-कभी बांग्‍ला बोली गई है। अगर हिंदी सबटाइटल्‍स के साथ यह फिल्‍म प्रदर्शित होगी तो ज्‍यादा हिंदी दर्शकों के बीच पहुंचेगी। मिस्‍टर और मिसेज बख्‍शी (ओम पुरी व तनुजा) मैक्‍लुस्कीगंज में रहते हैं। उनके रिश्‍तेदार छुट्टी बिताने और मौज-मस्‍ती करने के लिए यहां एकत्रित हुए हैं। वे सभी एक बड़े परिवार का हिस्‍सा हैं, लेकिन उनके व्‍यवहार और प्रतिक्रियाओं से साफ पता चलता है कि उनके निजी संबंध गहरे और आत्‍मीय नहीं रह गए हैं। एक-दूसरे पर शक और तंज करना सभी की आदतों में है।

नंदू, बिक्रम, बोनी, मिमी, ब्रायन, तानी वहां जमा होते हैं। सभी की अपनी दिक्‍कतें और परेशानियां हैं, जिन्‍हें दूसरे उसकी संजीदगी से नहीं समझ पाते। कहानी नंदू के भाई शुटु के इर्द-गिर्द रहती है। वह एक साथ अनेक फ्रंट पर जूझ रहा है। उसे तसल्ली देने वाला या ढंग से उसकी बात सुनने-समझने वाला कोई नहीं है। उल्‍टा सभी उस पर धौंस जमाते हैं। ऊपरी तौर पर पिकनिक के लिए जमा हुए सभी किरदार वास्‍तव में तनहा और परेशान हैं। कोंकणा सेन शर्मा किसी एक से सहानुभूति नहीं रखतीं। वह सभी के अंतस में जाती हैं और उसे अपनी बात कहने का मौका देती हैं। उन्‍होंने सभी किरदारों और उन्‍हें निभा रहे कलाकारों को अपनी तरह से खुलने का मौका दिया है। यही इस फिल्‍म की खूबसूरती है।

ओम पुरी के आकस्मिक निधन के बाद रिलीज हो रही यह उनकी पहली फिल्‍म है। हम उनकी मेधा और प्रतिभा से परिचित हैं। फिल्‍म देखते हुए यह भाव रेंगता है कि अब इस उम्‍दा कलाकार को किसी और किरदार में नहीं देख पाएंगे। यह फिल्‍म छोटे-बड़े सभी कलाकारों की अदाकारी के लिए याद रखी जा सकती है। सभी संगति में हैं और मिल कर कहानी को रोचक बनाते हैं। रणवीर शौरी और कल्कि कोचलिन का अभिनय उल्‍लेखनीय है। शुटु के किरदार में विक्रांत मैसी प्रभावित करते हैं। कोंकणा सेन शर्मा की निर्देशन शैली में उनकी मां अपर्णा सेन का हल्‍का प्रभाव है।

अवधि: 110 मिनट 


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