जासूस बनकर देखें मेरी फिल्म - दिबाकर बनर्जी
अलहदा किस्म की फिल्में बनाने के लिए मशहूर निर्देशक दिबाकर बनर्जी अब लेकर आ रहे हैं ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’। उनसे अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत के अंश...
अलहदा किस्म की फिल्में बनाने के लिए मशहूर निर्देशक दिबाकर बनर्जी अब लेकर आ रहे हैं ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’। उनसे अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत के अंश...
दर्शक आपकी फिल्मों को लेकर द्वंद्व में रहते हैं। इस फिल्म को देखने के लिए उनको किस तरह तैयार होना चाहिए?
अगर डायरेक्टर ही दर्शकों को बताए कि मेरी फिल्म को इस तरह देखो तो वह जरा अजीब लगता है। फिर भी, अगर ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ को देखने दर्शक बतौर जासूस जाएं, तो उन्हें बड़ा मजा आएगा। यह सोचकर देखें कि मुझे ब्योमकेश को हराना है, तो वे फिल्म के एक-एक क्षण का मजा ले सकेंगे। ब्योमकेश का तो हर सीन में क्लू है। हर सीन में दर्शकों को एक मौका है कि वे ब्योमकेश के साथ आगे बढ़ें। बस यह फिल्म एकाग्रचित्त होकर देखें।
हिंदी फिल्मों में दर्शक बड़ी आसानी से दृश्यों और संवादों का पूर्वानुमान कर लेते हैं। आप कैसे सरप्राइज करने वाले हैं?
इस फिल्म में एक से बढ़कर एक सरप्राइज हैं। हमने तो ट्रेलर में भी लिख दिया है ‘एक्सपेक्ट द अनएक्सपेक्टेड’। आप बस जासूस की तरह फिल्म को देखें। हर छोटी-बड़ी, ऊंची-नीची चीज को टटोलिए। इतना मैं कह सकता हूं कि आप जब फिल्म देखकर निकलेंगे तो आपको जरूर लगेगा कि आप किसी और दुनिया में गए थे।
आपको ब्योमकेश ने ही क्यों आकर्षित किया?
ब्योमकेश के प्रति मेरे आकर्षण की एकमात्र वजह यही थी कि यह किरदार इतना देसी गढ़ा गया था कि आप उसे भारत के सिवा और कहीं इमैजिन नहीं कर सकते। मैंने बचपन में उस किरदार को पढ़ा था तो उसकी सोच पर बड़ा गर्व हुआ था। वह जबरन देशभक्त या इंडियन होने का दावा नहीं करता था पर पक्का भारतीय जरूर था।
यह पीरियड फिल्म है। सन 1943 के कोलकाता की कौन सी तस्वीर आप पेश कर रहे हैं?
उन दिनों कोलकाता को लेकर सबसे उल्लेखनीय बात वहां जापान का आक्रमण था। भारतीय अंग्रेजों से त्रस्त तो थे ही, ऊपर से जापानियों को लेकर भय का माहौल भी था। अगर जापानी आर्मी भारत में आ जाती तो भारत का इतिहास बदल जाता। इस फिल्म में इतिहास का वह चक्र भी दिखाया गया है। एक बात और, दूसरे विश्वयुद्ध में ही अंग्रेजों ने हिंदुस्तान से भारी मात्रा में चावल समेट कर अपने रंगरूटों के लिए ग्रीस भेज दिया और बंगाल में हो गई भुखमरी। वह अंग्रेजों के द्वारा बनाया हुआ अकाल था। कुल मिलाकर एक किस्म की अनिश्चितता थी कि हम किसका साथ दें।
ब्योमकेश किस किस्म के केसेज को सॉल्व करता है? लॉ एंड ऑर्डर प्रॉब्लम या पॉलिटिकल प्रॉब्लम?
उस दौर में दोनों समस्याएं घुल-मिल गईं थीं। वर्ल्ड वॉर के टाइम पर ही स्मगलिंग हो रही थी। कोलकाता में दुनियाभर के जासूस थे। शहर में अंडरवर्ल्ड का साम्राज्य था। बर्मा से सारा अफीम आता और बाकी देश-दुनिया में जाता। एक और चीज, वहां का चाइनाटाउन। वहां हमने शूट भी किया। वह उस समय शहर की शान था। वहां स्मगलिंग भी होती थी। उसी दौरान ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन भी खत्म हुआ था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस बाहर थे, कोलकाता में एक अलग माहौल था। जापानी आक्रमण का अंदेशा भी था। वह सब चीजें हमने फिल्म में दिखाई हैं।
इन सब चीजों को एक ही कहानी में पिरोना कितना चैलेंजिंग था?
मैंने ब्योमकेश की कहानी पर जोर दिया है। बाकी चीजें फिल्म के बैकड्रॉप में हैं। फिल्म ब्योमकेश के पहले केस के इर्द-गिर्द है। मैंने अपने इंटरप्रेटेशन से ब्योमकेश को पर्दे पर उतारा है। हां, शरदिंदु बंधोपाध्याय की किताब से जिन तीस कहानियों के राइट्स मैंने लिए हैं, उनमें से कुछ चीजें लेकर ब्योमकेश के तीस सालों का सफर भी दिखाया है।
कलाकारों के चयन की वजहें क्या कुछ रहीं?
ब्योमकेश के तौर पर मुझे सुशांत सिंह राजपूत में मुझे काफी पोटेंशियल लगा। मुझे ऐसा कलाकार चाहिए था, जो इंटेलिजेंट भी लगे, पर आम इंसानी फितरत वाला भी हो। ब्योमकेश बख्शी के सहायक के तौर पर आनंद तिवारी ने उम्दा काम किया है। दिव्या मेनन को ढूंढा हमारे आर्ट डायरेक्टर सब्यसाची मुखर्जी ने। मेन लीड हीरोइन स्वास्तिका बंगाली फिल्मों की स्थापित अभिनेत्री हैं। अंगूरी के रोल में उन्होंने प्राण डाल दिए। हम उनके चयन को लेकर सशंकित थे, क्योंकि मुंबई, दिल्ली की ऑडियंस कहां उनसे कनेक्ट करेगी, मगर आखिर में आदित्य चोपड़ा की हामी पर उनका चयन हो गया!
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