सपने पूरे होने तक खुद को सहेजा - राजकुमार हिरानी
मौलिक कहानियों के दम पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सबसे ज्यादा कमाऊ फिल्में दी हैं राजकुमार हिरानी ने। ‘पीके’ के बाद उनकी अगली फिल्म है संजय दत्त की बायोपिक। अपनी फिल्मों और जिंदगी के अनुभव उन्होंने साझा किए अमित कर्ण से
मौलिक कहानियों के दम पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सबसे ज्यादा कमाऊ फिल्में दी हैं राजकुमार हिरानी ने। ‘पीके’ के बाद उनकी अगली फिल्म है संजय दत्त की बायोपिक। अपनी फिल्मों और जिंदगी के अनुभव उन्होंने साझा किए अमित कर्ण से...
फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ से लेकर अब तक मैंने जोखिम भरे विषयों व ट्रीटमेंट पर ही फिल्में बनाई हैं। मिसाल के तौर पर ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ के बारे में जब लोगों ने सुना कि मैं हॉस्पिटल में अधिकांश फिल्म शूट करूंगा और बोरिवली नेशनल पार्क में रोमांटिक गाना होगा तो वे हंसते थे। वे मुझसे कहते कि मेरा दिमाग तो फिर नहीं गया है? मेरा मानना है कि फिल्मों का बेसिक मकसद लोगों को एंटरटेन करना है। उन्हें हंसाते, गुदगुदाते, प्रेरित करते हुए सोशल मैसेज दे सकें तो उससे बेहतर और कुछ नहीं।
अब शाहरुख खान आए किसानों की मदद के लिए आगे
हैरतअंगेज है कहानी
संजय दत्त की बायोपिक मैं इसलिए नहीं कर रहा हूं कि उनके प्रति सहानुभूति का माहौल बने। उस जैसे इंसान की जिंदगी में इतना कुछ हुआ है कि वो किसी को भी हैरत में डाल सकता है। ढेर सारे उतार-चढ़ाव झेलने के बावजूद खुद को न टूटने देना भी बड़ी बात है। लोगों को उनकी बायोपिक बोरिंग न लगे, उसका पूरा ध्यान रखा है। काफी रिसर्च की है। पर ढाई घंटे की फिल्म में इंसान की जिंदगी के सभी पहलुओं को तो समेटा नहीं जा सकता।
किरदार हो मुफीद
मैं स्टार को ध्यान में रख स्क्रिप्ट नहीं लिखता। इससे स्क्रिप्ट के साथ न्याय नहीं हो पाता। जैसे ‘पीके’ में आमिर खान की कास्टिंग परफेक्ट थी। 40 पार होने के बावजूद उनके चेहरे पर मासूमियत है। उनकी आंखें बड़ी-बड़ी हैं और कान थोड़े से बाहर निकले हुए भी हैं। ऐसे में उन्हें एलियन की शक्ल देने में मुझे ज्यादा मुश्किल नहीं हुई। संजय के किरदार के लिए रणबीर कपूर की कास्टिंग मुफीद है। रणबीर भी संजय दत्त की जवानी के दिनों की याद दिलाते हैं। दोनों खासे विनम्र भी हैं। ऐसे में रणबीर उन्हें बेहतर तरीके से पोट्रे करेंगे।
टूटने नहीं दिया खुद को
अपने सपने साकार होने तक खुद को सहेज कर रखना बहुत अहम है। कई लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने 1984-87 बैच में एफटीआईआई पुणे से एडिटिंग का कोर्स किया, पर डायरेक्टर बनने में मुझे 16 साल लगे। उस दौरान कैसे खुद को टूटने नहीं दिया? उसके जवाब में मैं ये कहता हूं कि मुझे डेढ़ दशकों का इंतजार महसूस ही नहीं हुआ। उस दरम्यान कॉरपोरेट फिल्में बनाता रहा। एडिटिंग के काम मिलते थे, वो करता रहा। हां, दिमाग में इस बात को जरूर संजोए रखा कि आगे चलकर निर्देशक ही बनना है। एडिटिंग के काम करने के अलावा और नौकरी से वक्त निकाल कर कहानी लिखता रहता था। आखिरकार ‘मिशन कश्मीर’ में विधु विनोद चोपड़ा को असिस्ट करने के बाद ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ बना डाली।
अमिताभ ने बयां किया बढ़ती उम्र का दर्द, काम मिलना हुआ मुश्किल!