आध्यात्मिक अहसास है 'मसान' - ऋचा चड्ढा
इस पखवाड़े छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल की दिल्ली से हुई शुरुआत में ओपनिंग फिल्म थी ‘मसान’। इस फिल्म ने इस वर्ष कान्स फिल्म फेस्टिवल में भी चमक बिखेरी है। इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली ऋचा चड्ढा से अमित कर्ण की बातचीत के अंश...
इस पखवाड़े छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल की दिल्ली से हुई शुरुआत में ओपनिंग फिल्म थी ‘मसान’। इस फिल्म ने इस वर्ष कान्स फिल्म फेस्टिवल में भी चमक बिखेरी है। इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली ऋचा चड्ढा से अमित कर्ण की बातचीत के अंश...
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‘मसान’ जैसी फिल्में दर्शक व फिल्मकार दोनों के लिए कितनी जरूरी हैं?
‘द लंचबॉक्स’ के बाद से यह धारणा ध्वस्त हुई है कि ऑफबीट फिल्में मनोरंजक नहीं होतीं। ‘मसान’ भी उसी मिजाज की है। यह मास और क्लास दोनों ऑडियंस को यकीनन पसंद आने वाली है।
‘मसान’ में अपने किरदार के बारे में कुछ बताएं?
इस किरदार का नाम देवी पाठक है। वह पंडित की बेटी है। बनारस में रहती है। उस पर मान्यताओं, रीति-रिवाजों व सदियों से चली आ रही परंपराओं के निर्वहन की जिम्मेदारी है। उसकी मां नहीं है। ऐसे में वह पिता के लिए मर्यादाओं का पालन भी करती है। बाकी दुनिया की सोच व अप्रोच की वह खास परवाह नहीं करती। एक दिन उसकी जिंदगी में कुछ ऐसा घटता है, जो समाज की नजरों में गलत है। उसकी जिंदगी दुश्वार हो जाती है। वह खुद किस तरह जंग लड़ती है, उस दौरान वह खुद को कैसे एक्सप्लोर करती है, वह एक आध्यात्मिक सफर व अनुभव से गुजरती है। यही कहानी है।
‘मसान’ के साथ बनारस में आपकी तीसरी फिल्म में है। कितना बेहतर जान व समझ गई हैं इस शहर को?
‘मसान’ में ज्यादा मजा इसलिए भी आया, क्योंकि देवी के पिता की भूमिका में संजय मिश्रा हैं। उनकी पैदाइश तो बिहार की है, पर पढ़ाई-लिखाई बनारस में हुई है। वहां उनके ढेर सारे दोस्त हैं, जो खाने-पीने की चीजें ले आते थे तो वहां बड़ा मजा आता था। हमने शूट भी उन गलियों-चौबारों व इलाकों में किया, जहां आज भी बनारस वैसा ही है, जैसा दशकों पहले हुआ करता था।
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बनारस को इस फिल्म में किस तरह दिखाया गया है?
पूरी फिल्म वहीं शूट की गई है। गंगा जैसी पवित्र नदी का जो अच्छा-बुरा हाल है, उसे फिल्म में दिखाया गया है। उस शहर का अपना फ्लेवर है। अमीर-गरीब, हिंदू-मुसलमान सब हैं। यह कला और अध्यात्म की सबसे पुरानी नगरी है। गंगा में मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार के बाद की रीतियां भी सिद्ध होती हैं। वह सब है। फिल्म में हरिश्चंद्र व मणिकर्णिका घाट को विजुअली दिखाया गया है। घाट पर जलती लाशों और उन्हें जलाने वालों के द्वंद्व को बखूबी दिखाया गया है।
‘गैंग्स आफ वासेपुर’ के बाद ‘मसान’ के जरिए आप दूसरी बार कान्स फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनीं। इस बार किस किस्म के अनुभव हुए?
मैं पूरी तैयारी से गई थी। खुद फिल्म ने इतनी चमक बिखेर दी कि उसे चर्चा में लाने के लिए बाकी तामझाम की जरूरत ही नहीं पड़ी।
वहां के फिल्म जानकारों की यहां की फिल्मों के प्रति क्या धारणा है?
यहां की कमर्शियल फिल्मों को वे सर्कस कहते हैं। वे उन्हें एंजॉय करते हैं लेकिन सीरियसली नहीं लेते। हमें तो ‘मसान’ तक के लिए उन्हें यकीन दिलाना पड़ा कि भई यह वैसी टिपिकल मसाला फिल्म नहीं है।
और वहां की ज्यूरी के बारे में क्या कहना चाहेंगी?
वे काम को गंभीरता से लेते हैं। वहां फिल्म को रिस्पेक्ट मिलती है। बाकी किसी चीज को नहीं। वे फिल्म की कास्ट व कलाकारों तक से नहीं मिलते। भारत में ऐसी आजादी कम है। कान्स में ज्यूरी तो हमसे बात तक नहीं कर रही थी। वे हैलो बोलकर निकल जाते थे, तभी कान्स में जीतने वाली फिल्म को देख कोई यह नहीं कह सकता कि फलां फिल्म को फेवर किया गया है।
फेस्टिवल के अलावा वहां के एक टॉक शो में भी आपने शिरकत की। भारत को लेकर उनके मन में क्या आम धारणा है?
उन्होंने मुझसे निर्भया केस के बारे में पूछा। मोगा में जिस लड़की को चलती बस से फेंक दिया गया, उस वाकये के बारे में भी मुझे जवाब देना पड़ा। मुझे देखते ही उन्होंने कहा कि आप इंडिया में एक्ट्रेस कैसे बन गईं...मतलब कि उन्हें भारत तालिबान स्टेट की तरह लग रहा था। मैंने पूरी कोशिश कर उन्हें बताया कि इंडिया का खूबसूरत चेहरा भी एग्जिस्ट करता है। हाल उतना बुरा नहीं है।