हमले की ताक में थे तालिबानी - कबीर खान
हॉलीवुड में वॉर फिल्मों का काफी चलन है। इनकी कहानियां अमेरिका से लेकर सात समंदर पार एशियाई मुल्कों के रिमोट इलाके तक ट्रैवल करती हैं। हिंदी फिल्मों में इस ट्रेंड की गंभीर शुरुआत का श्रेय कबीर खान को जाता है। वे ‘काबुल एक्सप्रेस’ और ‘न्यूयॉर्क’ में आतंकवाद के ग्लोबल परिप्रेक्ष्य
आतंकवाद पर केंद्रित फिल्मों में रोमांस और कॉमेडी का तड़का लगाने में महारथ हासिल है कबीर खान को। वो बता रहे हैं कि कैसे यशराज फिल्म्स के साथ हुई उनकी शुरुआत और बनी ‘काबुल एक्सप्रेस’...
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हॉलीवुड में वॉर फिल्मों का काफी चलन है। इनकी कहानियां अमेरिका से लेकर सात समंदर पार एशियाई मुल्कों के रिमोट इलाके तक ट्रैवल करती हैं। हिंदी फिल्मों में इस ट्रेंड की गंभीर शुरुआत का श्रेय कबीर खान को जाता है। वे ‘काबुल एक्सप्रेस’ और ‘न्यूयॉर्क’ में आतंकवाद के ग्लोबल परिप्रेक्ष्य में गए। ‘एक था टाइगर’ में घोस्ट स्पाई की बातें की, तो ‘बजरंगी भाईजान’ में भारत-पाक की सियासत व अवाम की सोच को कुरेदा। उनकी फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ प्रतिष्ठित बुसान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई। कबीर ने साबित किया है कि कमर्शियल फिल्में भी फेस्टिवल सर्किट का पार्ट बन सकती हैं। इतना ही नहीं, अपनी प्रारंभिक तीन फिल्मों से उन्होंने यशराज का कलेवर भी पूरी तरह तब्दील कर दिया। आज की तारीख में यशराज प्रोडक्शन विशुद्ध एक्शन व रक्तरंजित फिल्में बनाने लगा है।
घर से हुआ असर
कबीर खान बताते हैं, ‘मुझे फिक्शन से ज्यादा फैक्ट अपील करते हैं। पैन इंडिया, पैन एशिया व यूनिवर्सल अपील की कहानियां मुझे एक्साइट करती हैं। खासकर पॉलिटिकल बैकड्रॉप कहानी को अलग स्केल प्रदान कर देता है। वजह शायद मेरी खुद की जर्नी रही है। मैं दिल्ली से हूं। पापा प्रोफेसर रहे और राज्यसभा के लिए मनोनीत भी हुए थे, तो घर में हमेशा राजनीति से जुड़ी बातें हुआ करतीं थीं। हां, मां को उन सब चीजों से उतना मतलब नहीं होता था। वे बिग बी की फिल्मों की बहुत बड़ी फैन थीं। इस तरह फिल्मों के प्रति प्यार मां की तरफ से आया तो राजनीति का पापा के चलते।’
रियल कहानी पर फिल्म
फिल्मों के प्रति अपनी समझ में कबीर खान जामिया मिलिया इस्लामिया को भी एक कारण मानते हैं। वह कहते हैं, ‘जामिया मिलिया के फिल्म स्कूल में मैंने बतौर फ्रीलांस स्टिल फोटोग्राफर काम करना शुरू कर दिया था। उसके बाद मशहूर पत्रकार सईद नकवी को मैंने असिस्ट करना शुरू कर दिया। वहां से दुनिया घूमने का सिलसिला शुरू हुआ। सईद इंटरनेशनल रिपोर्टिंग को बढ़ावा देते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि विदेशों में हो रहे घटनाक्रम को हम अपने चश्मे से देखें व समझ सकें। उन्होंने मुझे खुलकर खेलने का मौका दिया। ‘काबुल एक्सप्रेस’ की कहानी अफगानिस्तान दौरे से निकली थी। फिल्म में पूर्व पाक फौजी जो तालिबानी बन जाता है, वह हमें अफगानिस्तान की जेल में मिला था। वहां सबसे खूंखार आतंकवादी सजायाफ्ता थे। उसको हमारे पास सैटेलाइट फोन दिखे तो वह हमसे फोन मांगने लगा। प्रारंभिक ना-नुकुर के बाद फोन दिए तो वह फोन लगाकर अपनी बेटी से बातें करने लगा। बाद में पता लगा कि उसने बीते तीन सालों से घर बात नहीं की थी। उस घटना के चंद सालों बाद ‘काबुल एक्सप्रेस’ बनी। मैंने कहानी तकरीबन वही रखी, जो मेरे साथ अफगानिस्तान में घटी थी।’
राह बनती गई
कबीर के लिए ‘काबुल एक्सप्रेस’ के शुरू होने और कलाकारों के सेलेक्शन की कहानी भी बड़ी रोचक और रोमांचक थी। वह बताते हैं, ‘मैं दिल्ली से मुंबई आ चुका था। मिनी (कबीर की पत्नी) एमटीवी चैनल में वीजे थीं। मैं कहानी लेकर निर्माताओं के दरवाजे खटखटाने लगा। कहीं से रजामंदी नहीं मिली। एक निर्माता मिले तो उलटा मुझसे कहने लगे, ‘आप कितना लगाओगे? आपको मालूम भी है कि 14 टेरेटरी होती हैं?’ दूसरे निर्माता मिले तो वे अपना गणित समझाने लगे। बताया कि ‘दो तरह की फिल्में होती हैं। एक प्री-फ्राइडे, दूसरी पोस्ट-फ्राइडे। हम प्री-फ्राइडे फिल्म ही बनाते हैं, जिसमें रिकवरी सुनिश्चित रहती है। एक रास्ता है कि आप अर्जुन रामपाल को ले आओ तो फिल्म बना देंगे।’ अर्जुन रामपाल तो दूर, उनके मैनेजर तक मुझे नहीं मिले। उस बीच मिनी की जान पहचान की वजह से मैं पहले अरशद वारसी से मिला, फिर जॉन अब्राहम मुझे मिले।’
मुश्किल थी शूटिंग
फिल्म बनाना कबीर खान के लिए आसान नहीं रहा, पहले प्रोड्यूसर और फिर अफगानिस्तान में शूटिंग के लिए वे काफी परेशान हुए। कबीर बताते हैं, ‘उन दिनों आदित्य चोपड़ा अपने बैनर की इमेज अलग स्थापित करना चाहते थे। उन्हें कहीं से मेरी स्क्रिप्ट मिली, जो उन्हें अच्छी लगी। अगले दिन फोन आया। पहले मुझे लगा कि कोई मजाक कर रहा है। मगर तीन मिनट बाद मामले की गंभीरता से मैं वाकिफ हो गया। फिर आदि से मीटिंग हुई। आदि से मैंने कहा कि अफगान इलाके में ही शूटिंग की जाए।
वे तैयार हो गए, पर वहां तालिबानियों को मालूम पड़ गया कि फिल्म की शूटिंग हो रही है। वे हमले की ताक में थे। उनकी मंशा का पता इंडियन इंटेलिजेंस को लगा। उन्होंने हमें इंडियन एंबेसी बुलाकर आगाह किया। मैंने सबको वापस इंडिया भेजने का मन बना लिया, पर आदि के फोन ने मेरी हिम्मत बढ़ाई कि अगर अफगानिस्तान में हम शूट नहीं कर पाते हैं तो दुनिया के किसी और कोने में कृत्रिम अफगानिस्तान क्रिएट कर देंगे, पर फिल्म बनकर रहेगी। बाद में अफगान सरकार ने हमसे कहा कि अगर आपने शूटिंग नहीं की तो तालिबानियों का मनोबल बढ़ेगा। आपको हम अपनी कमांडो सुरक्षा देंगे। आप यकीन नहीं करेंगे, उनके साये में हमने फिल्म पूरी की।’
अमित कर्ण