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खुद की तलाश है 'तमाशा' - इम्तियाज अली

प्रेम, भावना और संबंधों को सिनेमा के पर्दे पर नए आयाम देने वाले फिल्मकार इम्तियाज अली इन दिनों व्यस्त हैं फिल्म ‘तमाशा’ पूरी करने में। इस प्रेम कहानी में उन्होंने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण को बिल्कुल नए अंदाज में पेश किया है...

By Monika SharmaEdited By: Published: Wed, 09 Sep 2015 12:02 PM (IST)Updated: Wed, 09 Sep 2015 12:35 PM (IST)
खुद की तलाश है 'तमाशा' - इम्तियाज अली

प्रेम, भावना और संबंधों को सिनेमा के पर्दे पर नए आयाम देने वाले फिल्मकार इम्तियाज अली इन दिनों व्यस्त हैं फिल्म ‘तमाशा’ पूरी करने में। इस प्रेम कहानी में उन्होंने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण को बिल्कुल नए अंदाज में पेश किया है...

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क्या है ‘तमाशा’?
‘बाचीजा-ए-अतवाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे’ कह लें या ‘दुनिया रंगमंच है और हम एक्टर हैं। अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं।’ हमेशा यह एहसास होता है कि यह जिंदगी एक खेल है, तमाशा है। हमारे इर्द-गिर्द जो चल रहा है, वह सच है कि माया है, हमें पता नहीं। शायरों, कवियों, दार्शनिकों ने अपने-अपने समय पर हमें समझाने की कोशिश की है। ऐसा कहते हैं कि सारी दुनिया की कहानियां एक जैसी होती हैं। मेरी फिल्म में शिमला का एक बच्चा है। उसकी कहानियों में रुचि है, वह पैसा चुराकर कहानी सुनने एक किस्सागो के पास रहता है। किस्सागो आजीविका के लिए तो कुछ और करता है लेकिन पैसे देने पर वह कहानियां सुनाता है। वह बताता है कि सारी कहानियां एक जैसी होती हैं और तुम्हारी जिंदगी में भी वही कहानी चल रही है। मेरे नायक वेद वर्धन साहनी की कहानी सुनी हुई कहानियों के किरदारों से टकराती है। वह अपनी जिंदगी में उनकी कहानियां देखता है।

वेद वर्धन साहनी रोचक किरदार लग रहा है। थोड़ा विस्तार से बताएं?
वेद को एहसास नहीं है कि उसकी क्या क्षमताएं और योग्यताएं हैं। एक लड़की उसे याद दिलाती है कि तुम तो कोई और हो। मुझे तुम्हारे अंदर कुछ खास दिखता है, जबकि तुमने कोई और चोला पहन रखा है।

आज पूरे समाज में एक खलबली सी मची है। इस दौर में वेद का समाज से ताल्लुक है या वह अपनी कहानियों की दुनिया में खोया रहता है?
यही मेरी फिल्म की कहानी है। दुनिया में जीने और आगे बढ़ने के साथ उसका अपना ‘आप’ छूटता रहता है। यही स्ट्रगल है। सभी की नियति है कि उन्हें दुनियादारी की वजह से अपनी खासियत दबाकर आम (साधारण) हो जाना होता है। यह लड़ाई ताजिंदगी चलती है। यह हम सभी के तसव्वुर और हकीकत की लड़ाई है।

क्या वेद पर कोई सामाजिक दवाब भी है? क्या उसे खुशी मिल पाती है?
वेद का अंतस अलग है। बाहरी रूप में उसका अंतस नहीं उभर पा रहा है। वह असंतुष्ट रहता है। अपनी जिंदगी में उसका स्ट्रगल चल रहा होता है। हम कहते हैं कि समाज हमें रोकता है। मुझे लगता है कि हम खुद भी अपनी सीमाएं तय कर लेते हैं। हम जिसे समाज कहते हैं, हम वही समाज हो जाते हैं। खुद पर ही दबाव डालते हैं। वेद की लड़ाई खुद से है। वह सेफ प्ले करता है। वह डरा हुआ है। आईने के सामने खड़े होने पर दिल और दिमाग दोनों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। हम उनसे जूझते हैं और एक फैसला लेकर निकल पड़ते हैं।

हम सभी कुछ करने या न करने के लिए कहानी खोजते या तोड़ते हैं। हीरो तोड़ते हैं, तो जीत जाते हैं। ज्यादातर लोग कुछ न करने के बहानों और फैसलों से ही हारते हैं?
सही कह रहे हैं आप। हम अपने फैसलों के ही नतीजे हैं। ‘तमाशा’ के वेद को ही लें। उसके पिता विभाजन के बाद शिमला में आए थे। वेद के दादा को अपनी ड्यूटी पर अटल रहना पड़ा था। दिल के ख्यालों को बेकार मानकर छोड़ना पड़ा था। आज तीसरी पीढ़ी का लड़का विभाजन के समय का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं है। यह उस परिवार का लड़का है। पिता समझाते भी हैं कि बचपन में सभी कहानियां सुनते हैं लेकिन कोई उन कहानियों में नहीं रह जाता। तुम भी निकलो।

लड़की उसकी जिंदगी में कब और कैसे आती है?
लड़की पेरिस में है। वह कोर्सिका आने पर वेद से मिलती है। वह खुद क्राइसिस में है। दोनों मुलाकात के बाद तय करते हैं कि हम अपनी कहानी को एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी बनाएंगे। कैसे बनाएंगे? हम एक-दूसरे को बताएंगे ही नहीं कि हम कौन हैं? वादा करते हैं कि हम फिर कभी नहीं मिलेंगे। एक-दूसरे को अपने बारे में बताते समय केवल झूठ कहेंगे। आठ दिनों के बाद वे अलग हो जाते हैं। कई सालों के बाद वे फिर मिलते हैं। फिर लड़की को लगता है कि लड़के में इतना फर्क कैसे आ गया?

‘तमाशा’ में लड़की और लड़के के संबंधों और प्रेम की गहराई तथा तीव्रता कैसी है?
दोनों के बीच दिल का रिश्ता बनता है। लड़की वेद से बहुत प्रभावित होती है। उसकी फ्री स्पिरिट से खुश होती है। उसके साथ रहने में उसे अच्छा लगता है। वह मौज-मस्ती में लापरवाह जिंदगी जीता है। वह पहाड़ों से भी बातें कर सकता है।

‘तमाशा’ के किरदार भी आपकी दूसरी फिल्मों की तरह ट्रैवल करते हैं?
हां। शिमला, कोर्सिका, टोक्यो, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में किरदार मिलते हैं। वेद शिमला का है और तारा माहेश्वरी कोलकाता की है। फिल्म में उन दोनों की जर्नी है तो ट्रैवल भी है।

खुद इम्तियाज के ख्यालों की दुनिया और वास्तविक दुनिया कितनी करीब है?
मुझे बराबर लगता रहा है कि यहां मैं ऐसे रह रहा हूं लेकिन मैं कुछ और भी हूं। यह हम सभी को लगता है कि हम कुछ और हैं या होना चाहते हैं। मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ, समझ में नहीं आता। शायद यह मेरी अपनी समस्या है। मेरी खुशकिस्मती है कि मैं फिल्मों में आ गया। फिर भी यह नहीं लगता कि मैं उसके करीब आ पाया हूं, जो मेरा शुद्ध स्वयं है। मुझे खुद में ही प्रदूषण दिखता है। अच्छा आदमी बनने या होने का भ्रम पाल रखा है मैंने। कई बार खुशी के मौकों पर उदास हो जाता हूं और उदासी के मौकों पर दुखी नहीं होता।

इस फिल्म का गीत-संगीत कैसा है?
इस फिल्म में म्यूजिक सूत्रधार है। मेरी फिल्मों में ऐसा संगीत कभी नहीं आया। गीतों में रंगमंचीय तरीके से कहानी कही गई है। हमने लोकगीतों और लोकगाथाओं का इस्तेमाल किया है। ए.आर. रहमान ने काफी मधुर संगीत दिया है। इरशाद कामिल ने अपने गीतों में काफी प्रभावी संगीत दिया है। पारंपरिक तमाशा, नौटंकी आदि से प्रभाव लिए गए हैं। इस फिल्म के संगीत की ध्वनि में तमाशा है। ए.आर. रहमान की प्रतियोगिता अपने आप से है। वे फिर से सरप्राइज करेंगे।

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