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सीरियस हो रहा है अपना सिनेमा - इरफान खान

इरफान खान इन दिनों पांच-पांच मिनट की नींदें चुरा रहे हैं। वो काफी बिजी हैं और एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप (और भारत आने पर एक शहर से दूसरे शहर) का लगातार सफर कर रहे हैं। इस भागदौड़ में पांच मिनट की नींद भी उनको पूरी रात से ज्यादा का

By Monika SharmaEdited By: Published: Sun, 11 Oct 2015 10:38 AM (IST)Updated: Sun, 11 Oct 2015 10:49 AM (IST)
सीरियस हो रहा है अपना सिनेमा - इरफान खान

इरफान खान इन दिनों पांच-पांच मिनट की नींदें चुरा रहे हैं। वो काफी बिजी हैं और एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप (और भारत आने पर एक शहर से दूसरे शहर) का लगातार सफर कर रहे हैं। इस भागदौड़ में पांच मिनट की नींद भी उनको पूरी रात से ज्यादा का सुकून दे जाती है। लोकप्रियता के साथ ये सब तो होना ही था।

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जरूरी हैं फिल्म फेस्टिवल
पिछले दिनों अपनी फिल्म ‘तलवार’ के साथ इरफान टोरंटो में थे। वो वहां के अनुभव सुनाते हैं, ‘दर्शकों और समीक्षकों ने बहुत सराहा। अब तो टोरंटो में भारत से हर साल कुछ नई फिल्में जाती हैं। ये संकेत है कि भारत की फिल्मों में विविधता आ रही है। फेस्टिवल सर्किट के दर्शक समझ रहे हैं कि भारतीय फिल्मों में केवल नाच-गाना ही नहीं रहता। अब सीरियस स्टोरी भी कही जा रही है।’ टोरंटो से जुड़ी अनेक यादें हैं इरफान के पास, ‘मेरी पहली फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ भी टोरंटो गई थी, तब मुझे इतनी समझ नहीं थी। मुझे ‘मकबूल’ की याद है। उस समय मैंने फेस्टिवल का महत्व समझा था। ‘लंचबॉक्स’ के समय तो असली असर देखा। फेस्टिवल में जब फिल्म पसंद की जाती है तो उसका अलग मजा होता है। हमारी उम्मीदें बढ़ जाती है, जैसे ‘लंचबॉक्स’ को फेस्टिवल की हवा लगी तो सभी ने उसे देखा। ‘तलवार’ से वैसी ही उम्मीद रखी है।’

खुद करें खोजबीन
इरफान ‘तलवार’ में अपनी भूमिका के लिए राजी होने की वजह बताते हैं, ‘मेघना ने जब मुझे कहानी सुनाई तो अपना किरदार इसलिए अच्छा लगा कि वो ऐसा एक व्यक्ति था, जिसने मामले को सुलझाने के लिए तहकीकात की थी। ये फिल्म मेरे लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये धारणाओं से अलग जाकर कुछ कहती है। आप देखें कि कोई भी अधिक खोजबीन नहीं करना चाहता। हम टीवी पर जो देखते हैं या अखबार में पढ़ते हैं, उसी पर यकीन कर लेते हैं। अपनी राय और धारणा बना लेते हैं। आज के दौर में जानना और सवाल करना बहुत जरूरी है।’

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सवाल नहीं करते हम
इरफान कहते हैं कि हम एक डेमोक्रेटिक सोसाइटी में रहते हैं। वो नागरिकों की जागरूकता को जरूरी मानते हैं। वो तर्क देते हैं, ‘नागरिकों की जागरूकता के बगैर डेमोक्रेसी का कोई मतलब नहीं है। 100 में सिर्फ 15 प्रतिशत ही जागरूक हैं और 85 प्रतिशत की नादानी की वजह से सरकार बन जाती है तो ये अच्छा संकेत नहीं है। हम शिक्षित हैं पर अफसोस की बात है कि सामंती प्रथा का निर्वाह कर रहे हैं। एक राजा आएगा, जो हमारी तकलीफों को कम कर देगा। हम यह मान बैठे हैं कि जिसे हमने चुन लिया, वो हमारी जिंदगी बदल देगा। फिर हम सवाल नहीं करते। हमें अपना सच और हक समझना होगा। किसी के प्रभाव में राय बना लेना सही नहीं है।’

चल रहा है खेल अजब
इरफान सवाल करते हैं, ‘क्यों ऐसा होता है कि कुछ मुद्दों पर हम ऐसा चिपकते हैं कि बाकी जरूरी मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं? अजीब खेल चल रहा है। हम बंदर बने नाच रहे हैं और वे मदारी की तरह डमरू बजा रहे हैं। आम आदमी को समझना होगा। अब तो इंटरनेट है। हम खुद भी पता कर सकते हैं। अभी एक चलन बन गया है कि जहां शोर होता है, वहां लोग जमा हो जाते हैं। हम शोर बढ़ा रहे हैं। दरअसल सभी भोगने की लालसा में इतने लिप्त हो गए हैं कि अपनी सुधि भी नहीं ले रहे।’

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