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गुस्से की उपज है कॉमेडी - वरुण ग्रोवर

स्टैंडअप कॉमेडी करने और उसे लिखने के बाद वरुण ग्रोवर ने फिल्मों के गाने भी लिखे हैं। 'दम लगाके हईशा' के गाने लिखने के बाद उन्होंने मसान की स्क्रिप्ट लिखी है। अजय ब्रह्मात्मज ने वरुण से बात की। पेश हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश।

By Monika SharmaEdited By: Published: Wed, 05 Aug 2015 11:29 AM (IST)Updated: Wed, 05 Aug 2015 12:01 PM (IST)
गुस्से की उपज है कॉमेडी - वरुण ग्रोवर

स्टैंडअप कॉमेडी करने और उसे लिखने के बाद वरुण ग्रोवर ने फिल्मों के गाने भी लिखे हैं। 'दम लगाके हईशा' के गाने लिखने के बाद उन्होंने मसान की स्क्रिप्ट लिखी है। अजय ब्रह्मात्मज ने वरुण से बात की। पेश हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश...

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अब आप फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बन चुके हैं। अब तक की जर्नी पर अगर रोशनी डाल सकें?
यही कि जिन चीजों में मेरी दिलचस्पी है, वही करूं। ऐसे प्रोजेक्ट हाथ में न लूं, जो सिर्फ पैसे या सर्वाइवल के लिए किए जा रहे हों। सौभाग्य से अब तक सब ठीक चल रहा है। दो जुलाई को मुझे मुंबई में आए ग्यारह साल हो गए। इत्तेफाकन एक जुलाई को पहली फिल्म ‘मसान’ जिसका स्क्रीन प्ले मैंने लिखा, उसकी ऐतिहासिक स्क्रीनिंग जागरण फिल्म फेस्टिवल में हुई। टीवी में भी मैंने अपनी मर्जी के काम ही किए। वे चाहे स्टैंडअप कॉमेडी हो या कुछ और। उसके बाद चार-पांच और टीवी शो आए। फिर लिरिक्स राइटिंग की शुरुआत हुई। वे काम भी दिल के करीब ही हैं। वहां भी अपनी मर्जी के ही काम चुनता हूं। तभी अब तक खाते में गिनती की चार-पांच फिल्में ही हैं। उनमें काम बेहतर ही रहा है। एक भी गाना ऐसा नहीं है, जिसे सुनकर सर शर्मिंदगी से झुके।

स्टैंडअप कॉमेडी ‘जयहिंद’ का एक्सटेंशन है या कुछ और?
नहीं, वो काम तो मैं बहुत पहले से कर रहा हूं। 2004 में मुंबई आया और 2005 से स्टैंडअप कॉमेडी लिख रहा हूं। ‘जयहिंद’ 2009 में शुरू हुआ था। उससे पहले मैं रणवीर शौरी, विनय पाठक और राजू श्रीवास्तव के लिए लिखता था। ‘जयहिंद’ से मुझमें जो आत्मविश्वास आया, वह बढ़ता गया। उस दौर में स्टैंडअप कॉमेडी की अवधारणा नई थी। साथ ही सरकार ने भी विभिन्न क्लबों में लाइव म्यूजिक के लाइसेंस जारी करने बंद कर दिए थे। ऐसे में गायकों की जगह हम जैसे स्टैंडअप कॉमेडियन की डिमांड बढ़ गई।

इंडिया में एक माहौल दिख रहा है कॉमेडी को लेकर। उसको लेकर सम्मान में भी काफी इजाफा हुआ है। उसका सफल नमूना कपिल शर्मा बने हुए हैं। कल्ट बन गए हैं। ऐसा क्यों हुआ है कि हम हंसने की जगह ढूंढ रहे हैं?
जगह तो पहले भी ढूंढी जाती थी। हां, इंटरनेट के आने से कई अहम, गैरअहम चीजों की भी अवेयरनेस बढ़ी है। लोगों का गुस्सा भी बढ़ा है। मेरा मानना है कि कॉमेडी गुस्से की उपज है। ज्यादातर कॉमेडी प्रहार है। जहां कहीं पॉलिटिकल क्राइसिस ज्यादा होती है... कॉमेडी वहां खूब होती है। मिसाल के तौर पर मौजूदा सरकार के समर्थक व विरोधी दोनों का गुस्सा व सेंस ऑफ ह्यूमर बढ़ा है। सोशल साइटों पर उनकी झड़पें मजेदार हैं।

मसान कैसे व कब झोली में आई?
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के दौरान नीरज घेवन ‘मसान’ का आइडिया लेकर आए थे। मैं उनकी शॉर्ट फिल्म देख चुका था तो यकीन था कि हम जो भी करेंगे, वे ठीक ही होगा। खराब नहीं होगा। वहां से हम साथ हुए और सौभाग्य से यह अवार्ड भी जीत रही है। उसके चलते फिल्म लेखन के दरवाजे खुल गए हैं। एक फिल्म फ्रेंच डायरेक्टर मिचेल की है। वे हिंदी फिल्म बनाना चाह रही हैं। यह फ्रेंच सटायर है। उसका देसीकरण हम कर रहे हैं। एक और फिल्म है।

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