आखिर गुलजार ने पांच साल बाद की पिता की अंतिम क्रिया
अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाने से स्तब्ध गीतकार गुलजार ने उस समय उनकी अंतिम क्रिया नहीं करने का फैसला किया था और पाच साल बाद फिल्मकार बिमल रॉय के निधन के बाद ही उन्होंने यह काम किया। पत्रकार और समीक्षक जिया उस सलम की किताब हाऊसफुल: द गोल्डन इयर्स ऑफ बॉलीवुड के एक अध्याय में दिग्गज शायर
नई दिल्ली। अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाने से स्तब्ध गीतकार गुलजार ने उस समय उनकी अंतिम क्रिया नहीं करने का फैसला किया था और पाच साल बाद फिल्मकार बिमल रॉय के निधन के बाद ही उन्होंने यह काम किया।
पत्रकार और समीक्षक जिया उस सलम की किताब हाऊसफुल: द गोल्डन इयर्स ऑफ बॉलीवुड के एक अध्याय में दिग्गज शायर ने याद किया कि जब दिल्ली में मेरे पिता का निधन हुआ, मैं बिमलदा के साथ सहायक के तौर पर काम कर रहा था। मेरे परिवार ने मुझे इसकी सूचना तक नहीं दी। गुलजार ने बताया कि मेरे बड़े भाई मुंबई में रहते थे और इस हादसे को जानने के बाद उन्होंने उसी दिन दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी। दिल्ली के मेरे एक पड़ोसी ने कुछ दिनों के बाद मुझे इस बारे में बताया। तत्काल, मैं ट्रेन लेकर दिल्ली गया। उन्होंने कहा कि उन दिनों सबसे तेज चलने वाली फ्रंटियर ट्रेन दिल्ली तक का सफर 24 घटों में पूरा करती थी। जब तक मैं घर पहुंचा, सब कुछ समाप्त हो चुका था।
गुलजार तब एक संघर्षरत शायर थे और खाली दिल के साथ मुंबई लौट आए। उन्होंने कहा कि मैंने अपने पिता की अंतिम क्रिया कभी नहीं की। यह मेरे ऊपर भार था। चार साल बीत गए और बिमल राय अपनी जीवन यात्रा के आखिरी मुकाम पर थे। गुलजार ने कहा कि हर रात मैं रोता क्योंकि कैंसर बिमलदा को धीरे-धीरे पूरी तरह निगल चुका था। मैं उनके बगल में था, उनकी पसंदीदा पटकथा- अमृत कुंभ को पढ़ता। दिग्गज गीतकार ने कहा कि 8 जनवरी 1966 को जब उनका निधन हुआ हमने उनका अंतिम संस्कार किया और उसी के साथ मैंने अपने पिता की भी अंतिम क्रिया की।
किताब में बताया गया है कि 76 साल के गुलजार ने राय के साथ पहली बार 'बंदिनी' (1963) में साथ काम किया था। उनकी पहली रचना 'मोरा गोरा अंग.' थी लेकिन संगीतकार एसडी बर्मन ने गुलजार को यह गीत राय के सामने सुनाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें लगा था कि कहीं युवा कवि अपने बचकाना पाठ से राय का मूड खराब ना कर दें।
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