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देश में राजनैतिक फिल्मों पर क्यों होता है बवाल? जानें क्या कहते हैं बॉलीवुड के बड़े डायरेक्टर

राजनीति की आड़ में भ्रष्टाचार सत्ता के लोभ और प्रतिशोध की कहानियां हमेशा से ही सिनेमा का हिस्सा रही हैं। फिल्मकार राजनीति पर आधारित फिल्मों के जरिए विमर्श को जन्म देने की कोशिशें करते रहे हैं। कई बार उस पर विवाद भी होते हैं।

By Nazneen AhmedEdited By: Published: Fri, 15 Jan 2021 10:49 AM (IST)Updated: Sat, 16 Jan 2021 01:21 PM (IST)
देश में राजनैतिक फिल्मों पर क्यों होता है बवाल? जानें क्या कहते हैं बॉलीवुड के बड़े डायरेक्टर
Photo Credit - Movie Poster and Social Media Viral Photo

कीर्ति सिंह, मुंबई। राजनीति की आड़ में भ्रष्टाचार, सत्ता के लोभ और प्रतिशोध की कहानियां हमेशा से ही सिनेमा का हिस्सा रही हैं। फिल्मकार, राजनीति पर आधारित फिल्मों के जरिए विमर्श को जन्म देने की कोशिशें करते रहे हैं। कई बार उस पर विवाद भी होते हैं। इस क्रम में आजकल चर्चा में है 22 जनवरी को रिलीज होने जा रही रिचा चड्ढा अभिनीत फिल्म 'मैडम चीफ मिनिस्टर’। विवेक अग्निहोत्री कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर 'द कश्मीर फाइल्स’ बना रहे हैं।

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तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री पर फिल्म 'थलाइवी’ आने वाली है। अली अब्बास जफर निर्देशित वेब शो 'ताडंव’। राजनीतिक परिदृश्य में कहानियां गढऩे के पीछे क्या है फिल्मकारों की सोच व अप्रोच? इसकी पड़ताल कर रही हैं स्मिता श्रीवास्तव...

राजनीति एक वैश्विक विषय है। भारत की तरह दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र है। दूसरे देशों के संगठन, उनके नियम अलग हो सकते हैं, लेकिन सत्ता को हथियाने का तरीका या उसके दांव-पेंच बहुत अलग नहीं होते हैं। राजनीति से जुड़े विषयों पर जब फिल्में या शो बनते हैं तो विश्व स्तर पर लोग उनसे रिलेट कर पाते हैं। हमारे यहां 'राजनीति’, 'सत्ता’, 'नायक’, 'आरक्षण’, 'सरकार’ जैसी राजनीति आधारित बेहतरीन फिल्में पहले भी बनी हैं।

तथ्यात्मक रूप से सही होना जरूरी:

राजनीतिक विषयों में ड्रामा वाले एलिमेंट बहुत होते हैं। इस बाबत फिल्म 'आर्टिकल 15’ और वेब शो 'तांडव’ के लेखक गौरव सोलंकी कहते हैं, 'राजनीतिक विषय में एक्सप्लोर करने की गुंजाइश होती है। हमारे देश में, गली-मोहल्ले में, बैठकों, दफ्तरों सब जगह पॉलिटिकल बातें होती रहती हैं राजनीतिक रूप से जागरूक देश है। इसलिए इन कहानियों के दर्शक हैं। ड्रामा के साथ जब आप थ्रिलर शामिल कर देते हैं तो वह और दिलचस्प बन जाता है। हमारी इन कहानियों में समाज, नेताओं और विचारधारओं पर बातें होती हैं।

लेखकों के लिए यह काफी जिम्मेदारी का काम होता है। तथ्यात्मक रूप से देखना पड़ता है कि जो कह रहे हैं वह क्यों कह रहे हैं? हालांकि कहानी फिक्शन ही होती है, पर लोग उसमें सच्चाई का अंश खोज लेते हैं। बहुत सारी कहानियों में कुर्सी का खेल दिखाया जाता है। शतरंज की तरह चालें चलते नेताओं के किरदार दिखते हैं, पर वह राजनीति को देखने का सतही नजरिया है। उसकी गहराई में जाकर पता चलता है कि उसमें बहुत सारे इमोशंस और परतें होती हैं।’

ऐसी कहानियों का अपना दर्शक वर्ग है:

नक्सल समस्या पर 'बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’, दिवंगत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मौत पर फिल्म 'द ताशकंद फाइल्स’ बनाने के बाद विवेक अग्निहोत्री अब कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर 'द कश्मीर फाइल्स’ बना रहे हैं। आतंकियों की धमकी के बाद 1990 में लाखों कश्मीरी पंडितों को विस्थापन के लिए मजबूर होना पड़ा था। वह कहते हैं, 'ऐसी फिल्में लोग देखना चाहते हैं। देश में कश्मीर से लेकर केरल तक, महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक हमारे देश में राजनीतिक विषयों की भरमार है। 'द कश्मीर फाइल्स’ के लिए हमने करीब तीन साल रिसर्च की है। कश्मीरियों के विस्थापन पर बातचीत नहीं हुई। लोगों ने देखा कि उनके साथ हुआ क्या था। ऐसा नहीं था कि वे अचानक चले गए। उन पर अत्याचार हुआ, कत्लेआम हुआ था। इसके पीछे पूरी साजिश रची गई थी। इस बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है।

जब आप फिल्म बनाते हैं तो लोग उन सच्चाइयों से रूबरू होते हैं। रामायण, महाभारत हर कोई नहीं पढ़ता है, लेकिन उन पर निर्मित धारावाहिक अधिकांश लोगों ने देखे। अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमले को अगर टीवी पर नहीं देखा होता तो समझ नहीं पाते यह हुआ कैसे? उससे इमोशनल कनेक्ट नहीं बनता। मेरी कोशिश यह है कि 'द कश्मीर फाइल्स’ से लोग यह देख सकें कि उनके साथ हुआ क्या था। उन्हें उसके पीछे का पॉलिटिकल खेल समझ आएगा और भविष्य में कोई ऐसा गुनाह करने की कोशिश नहीं करेगा।’

मुश्किलें भी कुछ कम नहीं:

भारतीय राजनीति पर प्रकाश झा ने फिल्म 'राजनीति’, 'आरक्षण’ और 'सत्याग्रह’ जैसी फिल्में बनाई हैं। इन फिल्मों को लेकर उन्हें विरोध प्रदर्शन से लेकर कोर्ट कचहरी तक के चक्कर लगाने पड़े। राजनीतिक फिल्में बनाने में आने वाली अड़चनों पर 'थलाइवी’ के निर्माता शैलेश आर सिंह कहते हैं, 'हमारे यहां किसी भी चीज का विरोध करना बहुत आसान है। कोई भी सहजता से कह देता है कि उसकी भावनाओं को ठेस पहुंची है। जयललिता की बायोपिक पर भी दो मुकदमे हो गए थे।

उनकी भांजी ने आरोप लगाया कि उन्हें फिल्म में गलत तरीके से दिखाया गया है। फिर हमने बताया कि जिस दौर में हमारी फिल्म की कहानी खत्म होती है तब उनकी उम्र सिर्फ दो वर्ष की रही होगी तो हम फिल्म में आपके बारे में क्या गलत दिखा सकते हैं। इस तरह की चीजें होती रहती हैं। इसलिए ऐसी फिल्में बनाने में काफी कुछ देखना, समझना और स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है।’

काल्पनिक कहानियों में बदलाव के बिंदु:

अभी भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व राजनीति में ऊंचे पदों पर जितना होना चाहिए उससे बहुत कम है। इस दिशा में परिवर्तन की जरूरत है। इस बाबत गौरव सोलंकी कहते हैं, 'राजनीतिक पार्टियों में उनकी आवाज जितनी भी हो, लेकिन कहानी में जब आप काल्पनिक दुनिया बनाते हैं तो उसमें रियलिटी का प्रतिबिम्ब होता है, लेकिन उसको अपनी आवाज देते हैं। आप उसमें वे चीजें जोड़ते हैं जैसी दुनिया आप अपने आसपास देखना चाहते हैं। अनुराधा के स्थान पर पहले पुरुष किरदार को रखा गया था। जब थोड़ा लेखन आगे बढ़ा तो मुझे लगा कि वह किरदार महिला का होना चाहिए। कोशिश यही होनी चाहिए कि महिलाओं का प्रेजेंटेशन ऐसा हो कि समाज बदले।’

रचनात्मक स्वतंत्रता पर उठते सवाल:

फिल्में सकारात्मक विमर्श पैदा करती हैं तो कुछ घटनाओं के चित्रण से लोगों की विचारधारा प्रभावित किए जाने का आरोप भी लगता है। इस बाबत विवेक कहते हैं, 'इसमें क्या गुनाह है? प्यार दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज है। उस पर लव स्टोरी बनती है। फैमिली दुनिया में सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। अगर फिल्म आपको अच्छी बात के लिए प्रभावित कर रही है तो गलत क्या है। अगर मेरी फिल्म लोगों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि कत्लेआम नहीं होना चाहिए, कश्मीरियों के साथ दुव्र्यवहार हुआ...तो गलत क्या है? अगर 'द ताशकंद फाइल्स’ कहती है कि सच जानना आपका अधिकार है तो क्या गलत है। सिनेमा में राजनीतिक पार्टी या नेता की छवि से सोच को प्रभावित करने के बाबत अभिनेता सौरभ शुक्ला कहते हैं, 'सिनेमा समाज से प्रभावित होता है या समाज सिनेमा से। पहले तो यह तय कर लें। तभी तय कर पाएंगे कि सिनेमा किसे प्रभावित करता है।’

फिल्मकार का नजरिया अहम है निर्देशक अली अब्बास जफर कहते हैं, 'आजकल राजनीति को इस तरह से देखा जाने लगा है कि हर चीज जो पॉलिटिकल है, वह गलत होती है, लेकिन ऐसा नहीं है। बदलते दौर के साथ राजनीतिक विषयों पर फिल्में या शो बनाने की मुश्किलें बढ़ी हैं या कम हुई हैं, यह फिल्ममेकर पर निर्भर करता है। कई लोग चीजों को सनसनीखेज बनाने के लिए कंटेंट बनाते हैं तो कुछ लोग मुख्य मुद्दा और नजरिया देखते हैं। मैंने कभी सनसनीखेज चीज बनाने कोशिश नहीं की।

राजनीति में सिर्फ विवाद नहीं होते हैं। मुख्य मुद्दा है कि जब पावर किसी के हाथों में होती है तो वह कहीं न कहीं आपको थोड़ा सा करप्ट करती है। यह एक कोण है। अब उस विषय पर आधारित कहानी मुगलकाल, जूलियस सीजर के दौर में भी बन सकती थी। दुनिया के किसी भी कोने में बन सकती थी। मूल को समझना जरूरी है। बाकी सब किरदार आसपास ही होते हैं।’

सेंसरशिप का प्रभाव

हॉलीवुड में राजनीतिक पृष्ठभूमि और राजनेताओं पर अनेक फिल्में बनी हैं। इनमें द गेदरिंग स्टार्म (2002), लिंकन (2012), एलिजाबेथ (1998), ब्रेवहार्ट (1995), अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी की हत्या पर 'जेएफके’ (1991), 'निक्सन’ (1995) सरीखी अनेक फिल्में आई हैं। हॉलीवुड में राजनीति आधारित ज्यादा फिल्में बनने को लेकर फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे कहते हैं, 'अमेरिका, न्यूजीलैंड में फिल्मों पर सेंसरशिप नहीं है। इस वजह से वहां के फिल्मकारों के पास ज्यादा आजादी है। ओलिवर स्टोन निर्देशित फिल्म 'जेएफके’ के अंत में अमेरिकी नेता का मर्डर किस नेता ने कराया उसका नाम भी दिया था। उसके खिलाफ कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ। हमारे यहां सेंसरशिप के नियम काफी कड़े हैं।’


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