'द कश्मीर फाइल्स' से लेकर 'आंधी' तक, इतिहास की कड़वी यादों पर बनीं हैं ये फिल्में
सिनेमा को समाज का आईना कहा जाता है। समाज में घटित होने वाली घटनाओं को ही फिल्ममेकर अपनी कहानी का आधार बनाते हैं। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने उन जख्मों पर बात की है जिस पर आज भी हर कोई बात नहीं करता है।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने वह कड़वा सच सामने रख दिया है, जिससे आप डर सकते हैं, सिहर सकते हैं, चिढ़ सकते हैं मगर इन्कार नहीं कर सकते। पूर्व में स्टीवन स्पीलबर्ग द शिंडलर्स लिस्ट के साथ विश्व सिनेमा में ऐसा साहस कर चुके हैं, वहीं भारतीय सिनेजगत में भी इसके उदाहरण मौजूद हैं। स्क्रीन पर सच कहने का साहस, सच में झूठ का घालमेल करने की सिफारिशें और सच के साथ खड़े रहने का साहस करने पर चुकाई जाने वाली कीमत की पड़ताल करता स्मिता श्रीवास्तव का आलेख...
सिनेमा को समाज का आईना कहा जाता है। समाज में घटित होने वाली घटनाओं को ही फिल्ममेकर अपनी कहानी का आधार बनाते हैं। इनमें कई बार इतिहास की कड़वी यादें भी होती हैं। वर्ष 1990 में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार, घाटी से हुए उनके पलायन और दर्दनाक नरसंहार पर आधारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने उन जख्मों पर बात की है जिस पर आज भी हर कोई बात नहीं करता है। यह फिल्म उन लाखों कश्मीरी पंडितों की आवाज बनी है जो तीन दशक से ज्यादा समय से अपने साथ हुए अत्याचार के लिए न्याय की बाट जोह रहे हैं। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने 19 जनवरी, 1990 को कश्मीरी पंडितों को अपने ही घर से जाने के लिए मजबूर किया था। ऐसा न करने पर इस्लाम में परिवर्तित होने अन्यथा उनके अत्याचारों का सामना करने का विकल्प दिया था। परिणामस्वरूप कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़कर दूसरी जगह शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसी कहानी को दर्शाती है विवेक रंजन अग्निहोत्री की ‘द कश्मीर फाइल्स’।
अधूरा सच दर्शाने पर आलोचनाएं
यह पहली बार है जब कोई फिल्ममेकर इतनी सच्चाई और मुखरता के साथ कश्मीरी पंडितों के दर्द को पर्दे पर सामने लाया है। इससे पहले विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ बनाई थी, लेकिन वह कश्मीरी पंडितों की असल सच्चाई को नहीं दर्शा पाई थी। जिसके लिए उनकी तीखी आलोचना भी हुई थी। इससे पहले भी सिनेमा में समाज की कई सच्चाइयों को लाने का प्रयास हुआ है। उस सच की कीमत फिल्ममेकर्स को चुकानी पड़ी।
आपातकाल में लगाए गए प्रतिबंध
वर्ष 1975 में आई पालिटिकल ड्रामा फिल्म ‘आंधी’ ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं। उस समय देश में इमरजेंसी लगी हुई थी। एक राजनेता की बेटी और एक होटल मैनेजर के बीच प्रेम से शुरू हुई ये कहानी राजनीति का सच दिखाते हुए आगे बढ़ती है। आर. डी. बर्मन द्वारा दिया गया इस फिल्म का गीत-संगीत खासा लोकप्रिय हुआ था। गुलजार द्वारा निर्देशित इस फिल्म में संजीव कुमार तथा सुचित्रा सेन मुख्य भूमिका में थे। उसी दौरान दिल्ली के एक अखबार में विज्ञापन छपा जिसमें लिखा था कि आजाद भारत की एक महान महिला नेता की कहानी। खबरें उड़ीं कि यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी और उनके जीवन से प्रेरित है। यह विवाद फिल्म में प्रमुख भूमिका निभाने वाली सुचित्रा सेना के किरदार को लेकर आगे बढ़ता गया, क्योंकि फिल्म में उनके किरदार का पहनावा, चाल-ढाल सब इंदिरा गांधी से मिलता-जुलता था। इससे बवाल बढ़ता गया। इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया। हालांकि गुलजार ने स्पष्ट भी किया था कि इस फिल्म का इंदिरा गांधी के जीवन से कोई संबंध नहीं है। आखिरकार 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद जब कांग्रेस पार्टी की सरकार गिरी और जनता पार्टी की सरकार बनी, तब इस फिल्म को रिलीज किया जा सका। 23वें फिल्मफेयर अवार्ड में इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म तथा संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के अवार्ड से नवाजा गया।
विरोध ने बनाया निर्देशक
1977 में आई फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ में राजनीति पर करारा व्यंग्य किया गया था। फिल्म में एक डायलाग था कि ‘राजनीति में सही और गलत नहीं होता, राजनीति में मंजिल ही सब कुछ है रास्ते चाहे कोई भी हों।’ फिल्म का केंद्र बिंदु भी यही था। इसे निर्देशित किया था अमृत नाहटा ने जो खुद राजनेता थे और आपातकाल के दौरान अपनी ही पार्टी के विरोध में खड़े हो गए थे। इसी विरोध ने उन्हें फिल्म निर्देशक बना दिया। बताया जाता है कि ‘किस्सा कुर्सी का’ इंदिरा गांधी व उनके छोटे बेटे संजय गांधी पर आधारित है। इंदिरा गांधी की सरकार हिलाने से लेकर आपातकाल के बाद हुए चुनावों में यह फिल्म बड़ा मुद्दा बनी। यह फिल्म भी 1975 में ही बन चुकी थी, लेकिन इसे रिलीज नहीं होने दिया गया। इसके प्रिंट को जब्त करके जला दिया गया था। उस फिल्म में राज बब्बर मुख्य भूमिका में थे। आपातकाल हटने के बाद अमृत नाहटा ने 1977 में दोबारा फिल्म बनाई। हालांकि दूसरी बार बनी फिल्म में राज ने काम नहीं किया।
विविध रूपों की झांकी
वर्ष 1993 में केतन मेहता निर्देशित फिल्म ‘सरदार’ रिलीज हुई थी। यह फिल्म भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात राजनेता सरदार वल्लभभाई पटेल के जीवन पर आधारित है। फिल्म में सरदार पटेल के स्वाधीनता संघर्ष और राजनीति में उनकी भूमिका के बारे में विस्तृत रूप से बताया गया है। इस फिल्म को देखते हुए अंदाजा होता है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ उस समय देश की राजनीति में क्या चल रहा था। इसी तरह 2007 में फिल्म ‘गांधी माई फादर’ में महात्मा गांधी और उनके बेटे के जटिल संबंध को दर्शाया गया था। राष्ट्रपिता को अपने ही बेटे के नजरिए से दिखाया जाना कई गांधी समर्थकों के गले नहीं उतरा था और फिल्म पर पाबंदी तक की मांग उठी थी।