अंतरिक्ष की दुनिया में पांव पसारते भारत की कामयाबी के पीछे नंबी के योगदान को दर्शाती फिल्म राकेट्री- द नंबी इफेक्ट
विज्ञानी नंबी नारायण के योगदान से निर्मित इंजन विकास इसरो के मिशन मंगलयान में प्रयुक्त पीएसएलवी का आधार बना था। सिनेमाघरों में 1 जुलाई को रिलीज होने वाली फिल्म राकेट्री- द नंबी इफेक्ट विकास इंजन के निर्माण की कहानी को दर्शाती है।
स्मिता श्रीवास्तव। पिछली सदी के नौवें दशक के दौरान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व विज्ञानी नंबी नारायण अपनी उपलब्धियों के बजाय गद्दारी का आरोप लगने की वजह से सुर्खियों में छाए थे। वर्ष 1994 में यह आरोप भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम से जुड़े कुछ गोपनीय दस्तावेज विदेश को कथित तौर पर देने से जुड़ा था। सबसे पहले केरल पुलिस ने इस मामले की जांच की। बाद में इसे सीबीआई को सौंपा गया। सीबीआई ने अपनी जांच में पाया कि किसी प्रकार की जासूसी नहीं हुई।
बेदाग साबित होने के बाद भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में नंबी नारायण के योगदान को पहचाना गया और वर्ष 2019 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान विकास इंजन बनाने के लिए दिया गया था। अंतरिक्ष की दुनिया में पांव पसारते भारत की कामयाबी के पीछे नंबी के इस विकास इंजन को बनाने की कहानी फिल्म राकेट्री- द नंबी इफेक्ट में दिखाई जाएगी। रहना है तेरे दिल में, रंग दे बसंती, थ्री इडियट्स, तनु वेड्स मनु जैसी हिंदी फिल्मों में अपनी अभिनय का लोहा मनवाने वाले आर. माधवन ने राकेट्री- द नंबी इफेक्ट से निर्देशन में कदम रखा है। इस फिल्म में माधवन ने ही नंबी की भूमिका अभिनीत की है।
पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (पीएसएलवी) को निस्संदेह दुनिया में सबसे सफल और सुसंगत राकेटों में से एक माना जाता है। कम ही लोग जानते हैं कि इस राकेट की सफलता के पीछे दूसरे चरण का इंजन विकास है। इस अत्यधिक विश्वसनीय इंजन का पीएसएलवी में उड़ान परीक्षण किया गया था। साल 1994 के बाद से एक भी विफलता के बिना इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक जारी है। नंबी नारायणन फ्रांस के वर्नोन में भारतीय और फ्रांसीसी अंतरिक्ष विज्ञानियों के साथ संयुक्त रूप से वाइकिंग -3 राकेट इंजन विकसित करने के लिए जाने जाते हैं। इसके लिए वर्ष 1974 से 1980 तक, नंबी नारायण के नेतृत्व में 100 भारतीय वैज्ञानिकों (विभिन्न बैचों में) की एक टीम एक समझौते के तहत 60 टन-थ्रस्ट वाइकिंग-3 इंजन को संयुक्त रूप से विकसित करने के लिए फ्रांस के वर्नोन में थी। इस इंजन का विकास भारत का स्तर बढ़ाने वाला था, जहां अंतरिक्ष कार्यक्रम तब बहुत ही प्रारंभिक अवस्था में था। फ्रांसीसियों ने पहले ही अपने इंजन का नाम वाइकिंग रखा था। वहीं नंबी नारायण ने अनुबंध का मसौदा तैयार करते समय भारतीय नाम 'विकास' देने का फैसला कर लिया था।
संस्कृत में विकास का अर्थ प्रगति होता है। हालांकि इंजन को बनाने के लिए टीम का नेतृत्व करने वाले नंबी नारायणन ने गोपनीय रूप से इस बात का ध्यान रखा था कि यह नाम इसरो के संस्थापक, दूरदर्शी वैज्ञानिक और उद्योगपति डा. विक्रम ए. साराभाई को श्रद्धांजलि हो, जिन्हें वह अपना गुरु मानते हैं। यह रहस्य केवल दिवंगत टीएन शेषन को ही पता था, जो उस समय शीर्ष नौकरशाह थे, जिन्होंने बाद में भारत के सख्त मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में कार्य किया था। नौकरशाही प्रक्रियाओं और अनुमोदनों के कारण नंबी ने विकास के वास्तविक अर्थ को गुप्त रखा। इस इंजन की वजह से ही भारत ने अपना पहला पीएसएलवी राकेट लांच किया था। इसरो के ऐतिहासिक मिशन चंद्रयान और मंगलयान में भी इसका उपयोग हुआ है। किताब 'रेडी टू फायर- हाउ इंडिया एंड आई सरवाइव्ड द इसरो स्पाई केस' में नारायणन और पत्रकार अरुण राम ने इसरो जासूसी मामले की चीड़ फाड़ करते हुए विकास इंजन को बनाने और उसके रास्ते में आने वाले व्यवधानों का जिक्र किया है। उसके साथ ही साराभाई और बाकी सहयोगियों के सहयोग के बारे में भी लिखा है।
साराभाई ने न केवल युवा नंबी को इसरो में काम करने के दौरान अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में प्रतिनियुक्ति की अनुमति दी थी, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया था कि उनके जाने से पहले नौकरशाही से सुचारू रूप से मंजूरी दे दी जाए। नंबी ने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की फैलोशिप पर प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में लिक्विड प्रोपल्शन टेक्नोलाजी (द्यद्बह्नह्वद्बस्र श्चह्म्शश्चह्वद्यह्यद्बशठ्ठ ह्लद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्द4) का अध्ययन किया। उन्होंने एक वर्ष से भी कम समय के रिकार्ड समय में अपनी मास्टर डिग्री हासिल की। नंबी ने अपनी किताब 'रेडी टू फायर- हाउ इंडिया एंड आई सरवाइव्ड द इसरो स्पाई केस' में लिखा है कि जब उन्होंने रिकार्ड-टाइम में अपना कोर्स पूरा किया तो अमेरिकियों ने उन्हें लुभाने और उन्हें उच्च-स्तरीय अमेरिकी सुविधाएं दिखाकर अपने साथ जोडऩे की कोशिश की, तो यह विक्रम साराभाई ही थे जिन्होंने उन्हें सलाह दी कि अगली उड़ान लो और देश वापस आओ। साल 1993 में पहली बार पीएसएलवी ने उड़ान भरी, लेकिन उड़ान के बीच में एक त्रुटि का सामना करने के बाद मिशन विफल रहा। हालांकि, असफल मिशन के बावजूद रॉकेट की अधिकांश महत्वपूर्ण प्रणालियों को मान्य किया गया था।
लगभग एक साल बाद अक्टूबर 1994 में, पीएसएलवी ने शानदार ढंग से उड़ान भरी और कक्षा में 1000 किलो वजन उठाने की रॉकेट की क्षमता को साबित कर दिया। तब से अब तक पीएसएलवी 50 से ज्यादा उड़ान भर चुका है। 'विकास' इंजन अगली पीढ़ी के जीएसएलवी (जियोस्टेशनरी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) रॉकेटों को भी शक्ति प्रदान करता है। रॉकेट का उपयोग बड़े और भारी उपग्रहों को अंतरिक्ष में गहराई तक ले जाने के लिए किया जाता है।