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पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ पर पढ़े खास रिपोर्ट, जानें कैसे इसके बाद हिंदी सिनेमा में आया बदलाव

भारत में पहली बोलती फिल्म बनाने वाले अर्देशिर ईरानी का जन्म 1886 में पुणे में एक ईरानी-पारसी परिवार में हुआ था। धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए ईरानी के माता-पिता ईरान से हिंदुस्तान आए थे। अर्देशिर ईरानी मुंबई में पले-बढ़े और उन्होंने संगीत वाद्ययंत्र की दुकान चलाना शुरू कर दिया।

By Priti KushwahaEdited By: Published: Sat, 07 May 2022 03:59 PM (IST)Updated: Sat, 07 May 2022 03:59 PM (IST)
पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ पर पढ़े खास रिपोर्ट, जानें कैसे इसके बाद हिंदी सिनेमा में आया बदलाव
Photo Credit : Ardeshir Irani Instagram Photos Screenshot

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। आज अरबों रुपए की इंडस्ट्री बन चुके भारतीय सिनेमा की नींव सही मायने में देश की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ ने रखी थी। वर्ष 1931 में रिलीज हुई 124 मिनट लंबी इस हिंदी फिल्म को अर्देशिर ईरानी ने निर्देशित किया था। ‘आलम आरा’ के निर्माण और रिलीज की कहानी काफी दिलचस्प रही। ‘आलम आरा’ के बनने और भारतीय सिनेमा के स्वावलंबन की राह में उठे इस बड़े कदम से आए बदलावों की बात करता स्मिता श्रीवास्तव का आलेख...

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अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ हिंदी सिनेमा में बदलाव की बयार लेकर आई थी। ऐसा कहा जाता है कि ईरानी दूरदर्शी होने के साथ कुछ बड़ा करने का सपना देखते थे। उन्होंने न सिर्फ सपने देखे बल्कि उन्हें पूरा भी किया। उनके इन सपनों ने भारतीय सिनेमा को आकार दिया। देश की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ को बनाने की प्रेरणा ईरानी को वर्ष 1929 में अमेरिकन फिल्म ‘शो बोट’ देखने से मिली थी। हालांकि यह भी पूरी तरह सवाक फिल्म नहीं थी। पर इस फिल्म ने ईरानी को भारतीय भाषा में बोलती फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। यहीं से बालीवुड में शानदार संगीत बनाने की परंपरा भी शुरू हुई। ‘शो बोट’ का निर्माण यूनिवर्सल पिक्चर्स ने किया था।

जोखिम जो हुआ कामयाब

वर्ष 1926 में स्थापित ईरानी की इंपीरियल फिल्म कंपनी नवाचार के मामले में सबसे आगे थी। अपने ऐतिहासिक कास्ट्यूम ड्रामा के लिए प्रसिद्ध इंपीरियल स्टूडियो भारत का पहला स्टूडियो था जिसने फिल्म ‘ख्वाब-ए-हस्ती’ (1929) के दृश्यों के लिए रात में शूटिंग की और बाद में पहली स्वदेशी रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ (1937) का भी निर्माण किया। ‘आलम आरा’ सवाक होने के साथ कई वजहों से अग्रणी रही। इस फिल्म की रिलीज से पहले भारत में मूक फिल्मों का निर्माण होता था जो पौराणिक कहानियों के इर्दगिर्द होती थीं। अर्देशिर ईरानी ने उस लीक से अलग एक लोकप्रिय नाटक को चुनकर बड़ा जोखिम उठाया था। उन्होंने ‘आलम आरा’ में हिंदी और उर्दू का मिश्रण रखा। उन्हें यकीन था कि ऐसा करने से यह फिल्म व्यापक रूप से दर्शकों तक पहुंचेगी। यह फिल्म जोसेफ डेविड द्वारा लिखित पारसी नाटक का रूपांतरण थी। इसका मूल कथानक एक राजकुमार और एक बंजारा (जिप्सी) लड़की के बीच प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द घूमता है। फिल्म में अभिनेता मास्टर विट्ठल और जुबैदा ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी।

लगी कई गुना मेहनत

उस समय रिकार्डिंग उपकरणोें के अभाव में ‘आलम आरा’ को वास्तविक ध्वनि का उपयोग करके शूट करना पड़ा था। कलाकार संवादों को रिकार्ड करने के लिए अपनी जेब या कपड़ों में माइक्रोफोन छुपाकर रखते थे। अमेरिकी इंजीनियर विल्फोर्ड डेमिंग ने इंपीरियल की ध्वनि रिकार्ड करने की प्रक्रिया में आंशिक सहायता की थी। ‘आलम आरा’ को बांबे के मैजेस्टिक सिनेमा में आधी रात के बाद एक बजे से चार बजे के बीच फिल्माया गया था, क्योंकि शूटिंग स्टूडियो के पास ट्रेन ट्रैक था और उस समय सबसे कम ट्रेनें गुजरती थीं। फिल्म में गाने तनार साउंड सिस्टम पर बनाए गए थे, जिसमें तनार सिंगल-सिस्टम कैमरा का इस्तेमाल किया गया था, जो सीधे फिल्म पर ध्वनि को भी रिकार्ड कर सकता था। इसका गीत ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे’ भारतीय सिनेमा का पहला पाश्र्व गीत बना। इसे वजीर मळ्हम्मद खान ने आवाज दी थी, जिन्होंने फिल्म में फकीर का किरदार निभाया था। उस समय बैकग्राउंड संगीत और गाने वास्तविक ध्वनि का उपयोग करके बनाए गए थे, जिसमें संगीतकार सेट पर पेड़ों और कोनों के पीछे छिपे हुए थे। इस प्रकार ‘आलम आरा’ को बनाने में चार महीने लगे थे।

रोड़े आए कई

सवाक फिल्मों में कलाकारों के लिए अपने संवादों को स्पष्ट रूप से बोलना अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया था। उस समय की शीर्ष स्टार सुलोचना उर्फ रूबी मायर्स को मुख्य भूमिका निभाने के लिए नहीं चुना गया था क्योंकि वह अच्छी तरह से हिंदुस्तानी नहीं बोलती थीं। इसके बजाय फिल्म निर्माता और अभिनेत्री फातमा बेगम की बेटी जुबैदा को चुना गया था। फिल्म में एल. वी. प्रसाद सहायक कलाकार की भूमिका में थे, जो बाद में दक्षिण भारतीय फिल्मों के प्रख्यात अभिनेता बने। फिल्म के लिए हीरो का चुनाव भी आसान नहीं था। ऐसा माना जाता है कि ईरानी महबूब खान (जिन्होंने बाद में ‘मदर इंडिया’ बनाई) को हीरो के रूप में लेने के इच्छुक थे, लेकिन मास्टर विट्ठल की लोकप्रियता की वजह से उन्हें अपनी पसंद पर पुनर्विचार करना पड़ा। विट्ठल का शारदा स्टूडियो के साथ अनुबंध था। इंपीरियल फिल्म कंपनी के तहत बनने वाली पहली बोलती ऐतिहासिक फिल्म का हिस्सा बनने के लिए विट्ठल ने शारदा स्टूडियो के साथ अपना अनुबंध तोड़ दिया था। उनके पूर्व नियोक्ता ने उनके खिलाफ मामला दर्ज किया और विट्ठल ने बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना से मदद मांगी, जो बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने। जिन्ना ने प्रभावी ढंग से उनका बचाव किया और केस जीत लिया। आखिरकार पहली बोलती हिंदी फिल्म 14 मार्च, 1931 को रिलीज हुई।

हर दिल पर छाई आवाज

जाहिर है कि पहली बोलती हिंदी फिल्म को लेकर दर्शकों में भी बहुत उत्साह था। ‘आलम आरा’ की टिकट की कीमतें कल्पना से परे चार आना (25 पैसे) से पांच रुपए तक बढ़ गई थीं। फिल्म के प्रचार और विज्ञापन के दौरान, निर्माताओं ने टैगलाइन का इस्तेमाल किया- ‘आल लिविंग, ब्रीथिंग, 100 परसेंट टाकिंग।’ हिंदी में इसे लिखा गया - ‘78 मुर्दे इंसान जिंदा हो गए। उनको बोलते देखो’, क्योंकि ‘आलम आरा’ के लिए 78 कलाकारों ने अपनी आवाजें रिकार्ड की थीं। फिल्म के सात गाने आकर्षण का केंद्र बने। तबसे संगीत, गीत और नृत्य भारतीय फिल्मों के अभिन्न अंग बन गए। मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह फिल्म रिलीज के बाद आठ सप्ताह तक हाउसफुल रही। फिल्म की लोकप्रियता का आलम यह था कि भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बुलाना पड़ा था। इस फिल्म ने कई कलाकारों के करियर संवारे। इनमें पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान और एल. वी. प्रसाद बाद में फिल्म लीजेंड बने।

हुआ क्षेत्रीय सिनेमा का जन्म

‘आलम आरा’ की अपार सफलता ने अर्देशिर ईरानी को साल 1937 में भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म ‘किसान कन्या’ सहित कई और फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। ‘आलम आरा’ की सफलता के बीच फिल्म उद्योग में परिवर्तन दूरगामी थे। फिल्मों के लिए अच्छी बोलचाल और मधुर गायन आवाज वाले मंच कलाकारों की तलाश की जाने लगी। कई स्टूडियो जो ध्वनि के इस्तेमाल का उपयोग नहीं कर पाए उन्हें बंद होना पड़ा। समय के साथ, क्षेत्रीय सिनेमा को जन्म देते हुए देशभर की प्रमुख भाषाओं में बोलती फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। फिल्मों की अत्यधिक लोकप्रियता के कारण सिनेमा हाल की संख्या में भी उछाल आया। सवाक फिल्मों ने फिल्म निर्माण की तकनीकों में महत्वपूर्ण बदलाव को भी चिह्नित किया, जिसमें तकनीशियनों की एक पूरी शृंखला - गायक, संगीतकार, कोरियोग्राफर, साउंड डिजायनर की शुरुआत हुई। फिल्म व्यवसाय एक उद्योग में बदल गया। भारतीय सिनेमा फिर कभी पहले जैसा नहीं रहा। हालांकि दुर्भाग्य से इस ऐतिहासिक फिल्म का कोई प्रिंट उपलब्ध नहीं है।

प्रोजेक्टर से रील तक

भारत में पहली बोलती फिल्म बनाने वाले अर्देशिर ईरानी का जन्म 1886 में पुणे में एक ईरानी-पारसी परिवार में हुआ था। धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए ईरानी के माता-पिता ईरान से हिंदुस्तान आए थे। अर्देशिर ईरानी मुंबई में पले-बढ़े और उन्होंने संगीत वाद्ययंत्र की दुकान चलाना शुरू कर दिया। उनका फिल्मों में आना किस्मत की बात थी। वर्ष 1903 में उन्होंने 14 हजार रुपए की लाटरी जीती, जो उन दिनों एक बड़ी राशि थी। इस धनराशि से उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में पांव रखे। उन्होंने कुछ समय के लिए ‘टेंट सिनेमाघरों’ में प्रोजेक्टर से फिल्में दिखाने के लिए फिल्म वितरक बनने का फैसला किया। इसने फिल्में देखने की संस्कृति को बढ़ावा दिया। वहां से उनकी फिल्ममेकिंग में दिलचस्पी जगी। 1920 में उनके द्वारा निर्मित फिल्म ‘नल दमयंती’ रिलीज हुई। उसके बाद उन्होंने स्टार फिल्म्स लिमिटेड की स्थापना की। इस स्टूडियो ने भारतीय सिनेमा की पहली महिला निर्देशक फातमा बेगम के करियर को लांच किया। साल 1926 में उन्होंने इंपीरियल फिल्म स्टूडियो की स्थापना की। ‘आलम आरा’ की सफलता के बाद ईरानी ने वर्ष 1945 तक फिल्में बनाईं। उनकी आखिरी फिल्म ‘पुजारी’ थी। वर्ष 1969 में 82 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।


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