दूसरों के बारे में पहले सोचते थे शहीद 'मेजर' संदीप उन्नीकृष्णन: अभिनेता अदिवी शेष
15 मार्च 1977 को केरल के कोझिकोड में के. उन्नीकृष्णन और उनकी पत्नी धनलक्ष्मी उन्नीकृष्णन के घर में जन्मे संदीप को बचपन से ही सेना में जाने का शौक था। उनके पिता के. उन्नीकृष्णन इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन (इसरो) में अधिकारी थे।
दीपेश पांडेय, मुंबई। 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान होटल ताज में आतंकियों की फायरिंग के बीच उन्हें घेरने व अपने साथियों को बचाने की कोशिश मेंबलिदान देने वाले मेजर संदीप उन्नीकृष्णन का जीवन प्रत्येक देशवासी के लिएप्रेरक है। तेलुगु अभिनेता अदिवी शेष ने हिंदी और तेलुगु भाषा में उनकीजिंदगी पर बायोपिक ‘मेजर’ बनाई है। इसमें वह मेजर उन्नीकृष्णन के किरदार को जीवंत कर रहे हैं...
15 मार्च, 1977 को केरल के कोझिकोड में के. उन्नीकृष्णन और उनकी पत्नी धनलक्ष्मी उन्नीकृष्णन के घर में जन्मे संदीप को बचपन से ही सेना में जाने का शौक था। उनके पिता के. उन्नीकृष्णन इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन
(इसरो) में अधिकारी थे। साल 1995 में संदीप ने नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) में प्रवेश लिया और वर्ष 1999 में बिहार रेजीमेंट की सातवीं बटालियन में लेफ्टिनेंट पद पर तैनात हुए। उसी वर्ष पाकिस्तान के खिलाफ
कारगिल युद्ध हुआ। इस दौरान वह छह सिपाहियों की टीम को लीड करते हुए आपरेशन विजय का हिस्सा बने। उसके बाद लद्दाख के सियाचिन, गुजरात, राजस्थान और हैदराबाद की विभिन्न सैन्य गतिविधियों में शौर्य को देखते हुए साल 2003 में उन्हें कैप्टन तथा 2005 में मेजर पद पर पदोन्नति दी गई।
जनवरी, 2007 में उन्होंने एनएसजी के 51 स्पेशल एक्शन ग्रुप को ज्वाइन किया। 26/11 के आतंकी हमले के दौरान एनएसजी द्वारा आपरेशन ब्लैक टारनेडो चलाया गया। इसके तहत मेजर संदीप 10 कमांडो की टीम के साथ होटल में गए। करीब 15 घंटे तक चले इस आपरेशन के दौरान उन्होंने होटल में फंसे कई लोगों और आतंकियों की फायरिंग में घायल अपने साथियों को बाहर निकाला। इस बीच आतंकियों को घेरने के इरादे से 27 नवंबर को मेजर संदीप और उनकी टीम ने सीढ़ियों से ऊपर जाने का जोखिमभरा निर्णय लिया। यह देख आतंकियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें उनके साथी कमांडो सुनील जोधा बुरी तरह से घायल हो गए। मेजर संदीप ने अकेले ही आतंकियों का पीछा किया और वह उन्हें होटल के उत्तरी बालरूम में घेरने में सफल रहे। अन्य लोगों का जीवन बचाते हुए इस मुठभेड़ में बलिदान हो गए। उनके इस प्रयास से एनएसजी का आपरेशन ब्लैक टारनेडो सफल हो पाया। मेजर संदीप को मरणोपरांत साल 2009 में अशोक चक्र अवार्ड से सम्मानित किया गया।
मेजर संदीप के बारे में अदिवी शेष बताते हैं, ‘मेजर संदीप के अंतिम शब्द थे, डोंट कम अप, आई विल हैंडल इट (ऊपर मत आओ, मैं इन्हें संभाल लूंगा। ये शब्द उन्होंने अपने साथियों से कहे थे। ये सिर्फ कुछ शब्द नहीं थे, बल्कि उनके जिंदगी जीने का तरीका था कि वह पहले दूसरों के बारे में सोचते थे। रिसर्च के वक्त मैंने इन शब्दों के लेंस से उनकी पूरी जिंदगी को देखा, तब जाना कि अलग-अलग मौकों पर वह कैसे दूसरों के बारे में पहले सोचते थे। उम्र आठ वर्ष हो, 16 या फिर 30 वर्ष, मेजर संदीप की सोच हमेशा यही थी। उनके पिताजी खुद मानते हैं कि मेजर संदीप उनके मेंटर थे। उन्होंने मेजर संदीप को कम, बल्कि मेजर संदीप ने उन्हें ज्यादा सिखाया। जैसे अंकल (मेजर संदीप के पिता) को स्कूटर और मोटरसाइकिल चलाना उन्होंने सिखाया था। हम 26/11 के हमले के बारे में फिल्म नहीं बनाना चाहते थे, बल्कि मेजर संदीप की जिंदगी के बारे में यह फिल्म बनाना चाहते थे। वह एक साधारण परिवार से थे। आर्मी में जाने वाले वह अपने परिवार के पहले सदस्य थे। माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह सेना में जाएं, पर बेटे ने उन्हें इसके लिए मना लिया। मैंने मेजर संदीप के माता-पिता, बहन, दोस्तों, सीनियर और साथियों के साथ घंटों बैठकर उनके जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त की। वो पैदा हुए केरल में, पले बढ़े बेंगलुरू में, ग्रेजुएशन पुणे से किया, ट्रेनिंग देहरादून में की, हैदराबाद और कारगिल में कार्यरत रहे और शहीद हुए मुंबई में।
26/11 के हमले के वक्त टीवी पर मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की तस्वीर देखकर मैं उनका फैन बन गया था। मैं लोगों से मेजर संदीप के बारे में बातें करता तो वेकहते थे कि आप तो बिल्कुल मेजर संदीप जैसे लगते हैं। जब मैंने टीवी पर पहली बार उनकी तस्वीरें देखी थीं, तब मुझे खुद लगा था कि जैसे वह मेरे बड़े भाई हों। फिर यह तय किया कि अगर फिल्म बनी तो मैं ही उनका किरदार निभाऊंगा। आर्मी आफिसर के बारे में सोचकर लोगों के मन में गंभीर व्यक्तित्व उभर आता है, लेकिन मेजर संदीप गंभीर परिस्थितियों में चुटकुले कहा करते थे। सबको हंसाते थे। उन्हें डांस करना अच्छा लगता था। वह सिनेप्रेमी थे। उन्हें हालीवळ्ड अभिनेता अर्नाल्ड श्वार्जनेगर की कमांडो वाली फिल्में बहळ्त पसंद थीं। खुल के जीना ही वह जिंदगी मानते थे। हमने पूरी फिल्म को उनके इसी नजरिए से दिखाने की कोशिश की है।’