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हैरान कर देगा हिंदी सिनेमा की इन 10 क्लासिक फ़िल्मों के पीछे का सच

1981 की फ़िल्म उमराव जान का नाम लीजिए और ज़हन में खय्याम साहब से लेकर इन आंखों की मस्ती के मस्ताने... गाती हुई रेखा की ख़ूबसूरत तस्वीर तैरने लग जाती है।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Mon, 19 Nov 2018 04:16 PM (IST)Updated: Mon, 26 Nov 2018 07:43 AM (IST)
हैरान कर देगा हिंदी सिनेमा की इन 10 क्लासिक फ़िल्मों के पीछे का सच
हैरान कर देगा हिंदी सिनेमा की इन 10 क्लासिक फ़िल्मों के पीछे का सच

मुंबई। हिंदी सिनेमा में ऐसी कई फ़िल्में आई हैं, जिन्हें देखते हुए आप आज भी बोर नहीं होते। इन फ़िल्मों को आप कल्ट कहते हैं, क्लासिक कहते हैं। मगर आपको ये जानकर हैरानी होगी कि आज कल्ट-क्लासिक कही जाने वाली ये फ़िल्में रिलीज़ के समय बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप रही थीं। आइए, जानते हैं ऐसी ही 10 फ़िल्मों के बारे में...

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ऐसी ही फ़िल्म है जाने भी दो यारों, जिसने 2018 में 35 साल का सफ़र पूरा किया। फ़िल्म 1983 में रिलीज़ हुई थी। यह वो दौरा था जब हिंदी सिनेमा की दुनिया एक्शन फ़िल्मों के इर्द-गिर्द घूम रही थी। ऐसे में सेटायर फ़िल्म 'जाने भी दो यारों' आयी। सिस्टम के करप्शन पर गहरी चोट करने वाली फ़िल्म में नसीरूद्दीन शाह, रवि वासवानी, पंकज कपूर, ओम पुरी और सतीश शाह ने मुख्य किरदार निभाए। आज ये कॉमेडी फ़िल्म भले ही आपको हंसा-हंसाकर लोट-पोट कर देती हो, मगर रिलीज़ के समय इसने निर्माताओं को रुला दिया था। दर्शकों ने फ़िल्म देखने में कोई रुचि नहीं दिखायी और यही कहा- जाने भी दो यारों। मगर, कुंदन शाह निर्देशित ये फ़िल्म इसकी टाइमलेस कहानी और अदाकारी की वजह से आज भी पसंद की जाती है।

  • इंटरनेट मूवी डेटाबेस (IMDB) की रेटिंग के अनुसार टॉप 100 बॉलीवुड फ़िल्मों में जाने भी दो यारों 33वें स्थान पर है।

राजकुमार संतोषी की कॉमेडी फ़िल्म 'अंदाज़ अपना-अपना' आज भी दर्शकों को गुदगुदाने में कामयाब रहती है। ये अकेली फ़िल्म है, जिसमें आमिर ख़ान और सलमान ख़ान साथ आए थे। आज ये कल्पना करना मुश्किल है कि आमिर-सलमान साथ आएं और फ़िल्म फ्लॉप हो जाए, मगर 'अंदाज़ अपना-अपना' फ्लॉप फ़िल्म है। हालांकि आमिर-सलमान के बीच नोक-झोंक ने दर्शकों के दिल में जगह बना ली और जैसे-जैसे वक़्त गुज़रा, 'अंदाज़ अपना-अपना' कल्ट बन गई।

  • IMDB की टॉप 100 फ़िल्मों में अंदाज़ अपना-अपना 12वें स्थान पर है।

विजय दीना नाथ चौहान... 'अग्निपथ' का ये किरदार अमिताभ बच्चन की यादगार भूमिकाओं में शामिल है। ख़ासकर उनके बोलने का अंदाज़। कहा गया कि बच्चन ने द गॉडफादर के मार्लो ब्रेंडो को फॉलो किया था। फ़िल्म क्रिटिकली और कमर्शियली फ्लॉप रही थी, मगर जब बिग बी को इसके लिए नेशनल अवॉर्ड मिला, तो 'अग्निपथ' को लेकर राय बदल गई। मिथुन चक्रवर्ती को भी इस फ़िल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड से नवाज़ गया था। मज़ेदार पहलू ये है कि करण जौहर ने जब रितिक रोशन को लेकर इसे रीमेक किया, तो फ़िल्म इंस्टेंट हिट रही।

शाह रुख़ ख़ान के करियर में कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो कहानी और फ़िल्ममेकिंग के हिसाब से क्लासिक फ़िल्मों की श्रेणी में आती हैं। इन्हीं में शामिल है दिल से...। मणि रत्नम निर्देशित यह फ़िल्म आज हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार है। दिल से... प्रीति ज़िटा के डेब्यू, एआर रहमान के संगीत और शाह रुख़ की ज़बर्दस्त परफॉर्मेंस के लिए जानी जाती है। ट्रेन की छत पर छैयां छैयां करते हुए शाह रुख़ और मलायका की छवि दिल से लेकर दिमाग तक बसी है। मगर, फिर भी यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल नहीं रही। मनीषा कोईराला ने फीमेल लीड रोल निभाया था।

शाह रुख़ की एक और फ़िल्म स्वदेस उनके करियर की चंद यादगार फ़िल्मों में शामिल होती हैं। आशुतोष गोवारिकर निर्देशित इस फ़िल्म में शाह रुख़ ने नासा के प्रोजेक्ट लीडर का किरदार निभाया था, जो भारत के एक गांव की तक़दीर बदलने के लिए नासा की नौकरी छोड़ देता है। फ़िल्म में गायत्री जोशी ने फीमेल लीड रोल निभाया था। गायत्री की यह अकेली स्क्रीन प्रेजेंस है। स्वदेस भारतीय बॉक्स ऑफ़िस पर भले ही ज़्यादा नहीं चली, मगर विदेशों में इसे पसंद किया गया और वक़्त के साथ यह हिंदी सिनेमा की कल्ट फ़िल्मों में शामिल हो गयी।

सत्तर और अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन ने कई ऐसी फ़िल्मों में काम किया है, जिन्हें क्लासिक फ़िल्मों की लिस्ट में शामिल माना जाता है। इन्हीं में एक फ़िल्म है 'शान'। इस मल्टीस्टारर में अमिताभ के साथ शत्रुघ्न सिन्हा और शशि कपूर ने लीड रोल्स निभाए थे, जबकि कुलभूषण खरबंदा ने बॉल्ड शाकाल का निगेटिव रोल निभाया था, जो जेम्स बांड सीरीज़ की फ़िल्मों का एक विलेन ब्लोफेल्ड पर आधारित था। एक हिट मसाला फ़िल्म के सारे तत्व होते हुए भी शान बॉक्स ऑफ़िस पर नहीं चली थी, जबकि निर्देशक रमेश सिप्पी ने इससे पहले शोले जैसी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म दी थी। हालांकि दोबारा रिलीज़ होने पर फ़िल्म को अच्छी-खासी सक्सेस मिली।

1981 की फ़िल्म उमराव जान का नाम लीजिए और ज़हन में खय्याम साहब से लेकर इन आंखों की मस्ती के मस्ताने... गाती हुई रेखा की ख़ूबसूरत तस्वीर तैरने लग जाती है। लखनऊ की दरबारी नर्तकी की इस दुखद कहानी के चाहने वाले तो बहुत मिल जाएंगे, मगर सिनेमाघरों में इसे देखने बार-बार जाने वाले ज़्यादा नहीं थे। इसीलिए उमराव जान कल्ट फ़िल्म तो बनी, मगर बॉक्स ऑफ़िस के इतिहास में अपना नाम ना दर्ज़ करवा सकी। इत्तेफ़ाक़ से इसका रीमेक 2006 में इसी नाम से आया, जो फ्लॉप रहा।

शोमैन राज कपूर की फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' को आज हिंदी सिनेमा की क्लासिक फ़िल्मों में गिना जाता है, मगर सन् सत्तर में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म इतनी बड़ी फ्लॉप रही कि राज कपूर की माली हालत काफी ख़राब हो गई थी। सर्कस के जोकर की ज़िंदगी को दर्शाती दार्शनिक मिज़ाज वाली इस फ़िल्म को बनाने में राज कपूर को 6 साल लगे थे। लगभग सवा चार घंटे की फ़िल्म का संगीत हिट रहा था। धर्मेंद्र, मनोज कुमार और राजेंद्र कुमार जैसे बड़े स्टार्स को केमियो भी फ़िल्म को बचा नहीं सका। मगर, इसकी सिनेमेटिक वैल्यू की वजह से फ़िल्म कल्ट-क्लासिक मानी जाती है।

शोले... यह नाम लेते ही आपके ज़हन में जय-वीरू, बसंती, गब्बर, ठाकुर और ब्लॉकबस्टर जैसे अलफ़ाज़ गूंजने लगते होंगे, मगर क्या आपको पता है कि रिलीज़ के दो हफ़्तों तक फ़िल्म फ्लॉप रही थी। 15 अगस्त 1975 को रिलीज़ हुई फ़िल्म को देखने के लिए दर्शक सिनेमाघरों तक नहीं पहुंचे। नौबत यह आ गयी कि निर्देशक रमेश सिप्पी फ़िल्म का क्लाइमैक्स बदलने की सोचने लगे। उन्हें लगा कि जय की मौत का सदमा दर्शक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे, लिहाज़ा सिनेमा हालों से दूर हैं। फ़िल्म की ख़राब मार्केटिंग और नकारात्मक रिव्यूज़ ने भी दर्शकों को इससे दूर रखा। फिर इसकी रेमेडी खोजी गयी और शोले के संवादों वाला ऑडियो रिलीज़ किया गया। यह स्ट्रैटजी काम कर गयी और बॉक्स ऑफ़िस पर शोले ऐसे भड़के कि आज भी उसकी आंच महसूस की जा सकती है। शोल हिंदी सिनेमा की कल्ट-क्लासिक फ़िल्म होने के साथ-साथ ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों में भी शामिल है।

हिंदी सिनेमा की नींव जिन फ़िल्ममेकर्स ने मजबूत की है, उनमें गुरुदत्त का नाम भी आता है। गोल्डन एरा में उनकी फ़िल्मों को मास्टर पीस कहा जाता था। 1959 में आयी काग़ज़ के फूल हिंदी सिनेमा की क्लासिक फ़िल्मों में गिनी जाती है। फ़िल्म और मीडिया संस्थानों में यह फ़िल्म ख़ास तौर पर दिखायी जाती है। संयोग देखिए, काग़ज़ के फूल एक निर्देशक के बनने, बुलंदी पर पहुंचने और गिरने की कहानी है। रिलीज़ के समय यह फ़िल्म बड़ी फ्लॉप साबित हुई थी, मगर इस फ़िल्म के ज़िक्र के बिना भारतीय सिनेमा की यात्रा पूरी नहीं होगी। उस दौर में दर्शकों द्वारा नकारी गयी इस फ़िल्म को आज कल्ट और क्लासिक माना जाता है।


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