Republic Day 2022: 'रंग दे बसंती' से 'अंतिम' तक गणतंत्र पर गंभीर समझ का अभाव दिखातीं हैं ये फिल्में
आधुनिक कथित विज्ञानी शिक्षा ने हमें और कुछ न दिया हो अपनी विरासत ज्ञान-परंपरा और लोक-संस्कृति पर अविश्वास की खूब नसीहत दी है। दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली हमारी गणतांत्रिक शासन प्रणाली को आए दिन सवालों से जूझना पड़ता है।
प्रियंका सिंह, मुंबई। ‘कोई देश परफेक्ट नहीं होता, उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है’ जैसा प्रेरक संवाद कहने वाली फिल्में अंत में हमारे गणतंत्र को ही सवालों के घेरे में ला देती हैं। विनोद अनुपम के अनुसार, सिनेमा को सस्ते समाधान ढूंढ़ने की जगह गणतंत्र का सम्मान सीखने की जरूरत है...
आधुनिक कथित विज्ञानी शिक्षा ने हमें और कुछ न दिया हो, अपनी विरासत, ज्ञान-परंपरा और लोक-संस्कृति पर अविश्वास की खूब नसीहत दी है। दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली हमारी गणतांत्रिक शासन प्रणाली को आए दिन सवालों से जूझना पड़ता है। ये सवाल नायकों की कथाभूमि को समर्पिर्त हिंदी सिनेमा को कहीं न कहीं गणतंत्र को खारिज करने की ताकत देते हैं। गणतंत्र में नायकों के लिए अमूमन गुंजाइश नहीं होती और सिनेमा को नायक ही चाहिए। सलमान खान की ‘अंतिम’ में पहले गैंगस्टर में नायक दिखता है, फिर पुलिस अधिकारी में। हम नहीं याद कर सकते कि कोई फिल्म ऐसी बनी हो, जिसमें चुने हुए प्रतिनिधि को लोगों के लिए नायक की तरह लड़ते देखा हो। अधिकांश फिल्मों में जनप्रतिनिधि आपराधिक सरगना होते हैं और ‘अंतिम’ भी उससे परे नहीं।
जिम्मेदारी से बचता आ रहा सिनेमा
प्रत्येक वर्ष बनने वाली 800 से अधिक फिल्मों को संदर्भ माना जाए तो यह विश्वास करना कठिन हो सकता है कि भारत एक गणतांत्रिक देश है। यदि है भी तो यहां गणतंत्र सही-सलामत है। हर पांच वर्षों में हो रहे आम चुनाव और उसके बाद शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन को सारा विश्व जरूर हसरत और आश्चर्य से देखता हो, भारतीय फिल्में आमतौर पर इसके प्रति निरपेक्ष ही रही हैं। मात्र मनोरंजन को समर्पित भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की यह निरपेक्षता उतनी चिंतित नहीं करती, क्योंकि इसने हमेशा मानवीय सरोकारों से सुरक्षित दूरी रखने की कोशिश की है। चिंता तब होती है जब भारतीय गणतंत्र को चित्रित करने के लिए यह अपनी समझ के झरोखे खोलने की कोशिश करती है, लेकिन भरे-पूरे पूर्वाग्रह और अंतत: गलत निष्कर्ष पर पहुंचते-पहुंचाते हुए फिर समझ के द्वार बंद कर लेती है।
उलझ जातीं मन की गांठें
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’ भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए आस्कर तक पहुंच गई थी। आम दर्शकों ने भी इसकी प्रस्तुति को सराहा और बुद्धिजीवियों को भी इसकी राजनीतिक समझ आंदोलित करने में सक्षम रही, लेकिन थोड़े ठंडे दिमाग से ‘रंग दे बसंती’ का स्मरण करने की कोशिश करें। पांच खिलंदड़े युवक, समाज और समझ से बेपरवाह, भगत सिंह और उनके साथियों को एक फिल्म के लिए अभिनीत करते हुए गंभीर होते हैं। भ्रष्टाचार के विरोध में रक्षा मंत्री की हत्या कर देते हैं और रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर जनता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं, अंतत: कमांडो कार्रवाई में मारे जाते हैंर्। हिंदी सिनेमा में लगातार खून का बदला खून की कहानियां को देखते हुए हम इतने कंडीशंड हो चुके हैं कि ऐसी कहानियां हमें बेचैन नहीं करतीं।
हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि ये सामान्य बदले की कहानियां नहीं हैं। यह ऐसी कहानी है जो हमारे गणतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। ‘गुलाब गैंग’ में इंतहा तब दिखती है जब हार के डर से एक सीजंड राजनेता अपने विरोधियों पर स्वयं गोलियों की बौछार कर देता है। पूरी फिल्म जनता की ताकत को रेखांकित करती है और खत्म इस नोट पर होती है कि चुनावों के माध्यम से कुछ नहीं बदल सकता। प्रकाश झा की ‘राजनीति’ में भी कहानी किसी प्रताप परिवार की होती है, लेकिन वास्तव में वह डेमोक्रेसी के उस खेल को चित्रित करती है, जिसमें जनता की कोई भूमिका नहीं होती, सिवाय नारे लगाने और भीड़ जुटाने के। हां, भूसे के ढेर में सळ्ई के बराबर अपवाद यहां भी हैं।
यहां मणि रत्नम की ‘युवा’ का स्मरण स्वाभाविक है। एक छात्र नेता राजनीतिक सक्रियता के कारण कालेज से निकाल दिया जाता है, लेकिन वह अपने निर्णय पर पश्चाताप नहीं करता। वह युवाओं को सक्रिय राजनीति में आने का आह्वान करता है। वे लोग चुनाव लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं, लेकिन उनके लिए जीत महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि एक साथी जब मजाक में उन्हें हार की सूचना देता है तो वे उसी सहजता से स्वीकार करते हैं कि ‘कोई बात नहीं, हम लोग और काम करेंगे, लोगों से मिलेंगे, उन्हें वास्तविकता समझाएंगे।’ संसदीय लोकतंत्र पर युवाओं का यह अटूट विश्वास संतोष देता है।
गणतंत्र से ही है यह स्वतंत्रता
वास्तव में गणतंत्र और चुनाव आदि के प्रति सिनेमा की यह अनौपचारिक अभिव्यक्ति कहीं न कहीं हमारी अन्यमनस्कता को भी अभिव्यक्त करती है। जाहिर है गणतंत्र के प्रति सवाल व अविश्वास हमारे ही मन में है, जिसकी पुष्टि भारत के वोट प्रतिशत भी करते रहे है, तो सिनेमा भी उसी को आकार देने की कोशिश करता है। वास्तव में जब कोई चीज हमें मिल जाती है तो उसके महत्व से हम निरपेक्ष हो जाते हैं। गणतंत्र की कीमत जाननी हो तो हमें उन मुल्कों के लोगों से रूबरू होने की जरूरत है, जिन्होंने गणतंत्र का स्वाद ही नहीं चखा। गणतंत्र जैसा भी है, समूह का सम्मान है, हमारी समझ का सम्मान है, इसका विकल्प संभव नहीं। यह अच्छा हो सकता है, बुरा हो सकता है, लेकिन हम इसे खारिज नहीं कर सकते। खारिज करते हुए भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि यह अवसर भी हमारे पास इसलिए है कि हमारे पास गणतंत्र है। यदि भारत में गणतंत्र नहीं होता तो शायद ‘रंग दे बसंती’ न तो बनाए जाने की हिम्मत जुटाई जाती न दिखाए जाने की।