'रामप्रसाद की तेहरवीं' में तुनकमिज़ाज बहू का किरदार निभा रहीं कोंकणा सेन शर्मा ने कहा- दौर बदलाव का है
सेट पर 10 से 15 कलाकार एक साथ काम कर रहे थे। मनोज पाहवा उस ग्रुप के लीडर थे। हम लखनऊ में थे ठंड का समय था। हमारा आधा समय खाने-पीने की चीजों पर चर्चा करने में जाता था। सीमा पाहवा निर्देशन के बीच में खाना बना लेती थी।
प्रियंका सिंह, मुंबई। नए साल के पहले दिन आज (1 जनवरी) सिनेमाघरों में सीमा पाहवा निर्देशित फिल्म रामप्रसाद की तेहरवीं रिलीज हुई है। फिल्म में कोंकणा सेन शर्मा तुनकमिजाज बहू की भूमिका में हैं। वह हमेशा नई कहानियों का हिस्सा बनना चाहती हैं। नए साल में वह कई प्रोजेक्ट्स में काम कर रही हैं। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश।
आप हमेशा नई कहानियां कहने की बात करती हैं। इस साल किस तरह के प्रोजेक्ट्स करने वाली हैं?
साल की शुरुआत में रामप्रसाद की तेहरवीं आ गई है। उसके बाद मसान फिल्म के निर्देशक नीरज घेवन के साथ मेरी एक शॉर्ट फिल्म आएगी, जो एंथोलॉजी होगी। निखिल आडवाणी के साथ अपनी पहली वेब सीरीज मुंबई डायरीज 26/11 की है। कई स्क्रिप्ट्स पढ़ रही हूं। बीते साल की सीख यही रही है कि बहुत ज्यादा योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होता है।
रामप्रसाद की तेहरवीं में परिवार इकठ्ठा होता है, तो कई ऐसी परिस्थितियां पैदा होती हैं, जो गमगीन माहौल को ह्यूमरस बना देती हैं। क्या वास्तविक जीवन में आपका ऐसी किसी परिस्थिति से सामना हुआ है?
मौत जिंदगी का सबसे बड़ा सच है। ऐसी परिस्थितियों से हर कोई गुजरता है। कई बार हम उस परिस्थिति में उस माहौल का ह्यूमर नहीं देख पाते हैं। हम अपनी भावनाओं में ही खोए रहते हैं। इस फिल्म में दूर से उस नजरिए को देखने का मौका मिलेगा।
फिल्म की शूटिंग लखनऊ में हुई है। इस सेट के माहौल ने किरदार को समझने में कितनी मदद की?
सेट पर 10 से 15 कलाकार एक साथ काम कर रहे थे। मनोज पाहवा उस ग्रुप के लीडर थे। हम लखनऊ में थे, ठंड का समय था। हमारा आधा समय खाने-पीने की चीजों पर चर्चा करने में जाता था कि आज नाश्ते में क्या है। सीमा पाहवा निर्देशन के बीच में खाना बना लेती थी। उन्होंने अमरुद की सब्जी के साथ कचौरी बनाई थी। यह मैंने पहले कभी नहीं खाई थी। पैकअप के बाद हम साथ बैठकर खाना खाते थे, फिल्में देखते थे।
आप लगातार महिला निर्देशकों के साथ काम कर रही हैं। क्या अब महिलाएं बदलाव के दौर में हैं?
दौर बदलाव का है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। कुछ महिला फिल्ममेकर्स हैं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। हम कभी पुरुष फिल्ममेकर नहीं कहते हैं, लेकिन महिला फिल्ममेकर कहते हैं। दोनों का काम समान होता है। इन चीजों को लेकर हमें जागरूक होना पड़ेगा। उसे बोलचाल की भाषा में लाना होगा। बदलाव आ रहा है, लेकिन वह धीमा है।
क्या लगता है कि साल 2021 में महिलाओं से जुड़ी नई कहानियां आएंगी?
जब तक हम स्टीरियोटाइप (घिसी पिटी) कहानियों के पीछे भागते रहेंगे, तब तक सही छवि बाहर नहीं आएगी। उदाहरण के तौर पर महिलाओं का फिल्मों में चित्रण सतही तौर पर होता है। वास्तविक जीवन में महिलाएं हमेशा महान नहीं होती हैं। जरूरी नहीं कि वह हमेशा सही निर्णय लें। वह भी जटिल इंसान हो सकती हैं, उनके भी कई शेड्स हो सकते हैं।
आप खुद निर्देशक हैं। अभिनय करते वक्त अपने अंदर के निर्देशक को कितना अंदर रख पाती हैं?
मैं पहले अभिनेत्री रही हूं। मैंने 50 फिल्में की हैं। स्वाभाविक है कि मेरा झुकाव अभिनय की ओर ही होगा। शुरुआती दौर में शायद यह बात मेरे अंदर थी कि वह निर्देशक ऐसे क्यों शूट कर रहे हैं, लेकिन अब मैंने वह सवाल पूछने बंद कर दिए हैं। मैंने खुद को उससे दूर कर लिया है, क्योंकि मुझे लगता है कि यह कलाकार का काम नहीं है। वैसे भी मैं सेट पर नखरे नहीं दिखाती हूं। समय पर आती हूं। एक्टर होने का फायदा यही होता है कि आप इन चीजों से खुद को दूर कर पाते हैं।
बीते साल आपकी फिल्म डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे डिजिटल पर रिलीज हुई थी। क्या जब वहां फिल्म रिलीज हो रही थी, तो कोई नर्वसनेस भीतर थी या बॉक्स ऑफिस का बिजनेस नर्वसनेस लाता है?
हां बिल्कुल नर्वस थी। बॉक्स ऑफिस का बिजनेस एक अलग मुद्दा है। हमारे लिए सबसे जरूरी यह होता है कि फिल्म ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। सिनेमाघरों की अपनी अपील होती है, क्योंकि फिल्म बड़े पर्दे के लिए बनी होती है। सिनेमेटोग्राफर फिल्म को इतनी खूबसूरती से शूट करते हैं कि उसे पर्दे पर देखना ही अच्छा लगता है। यह सब अस्थाई दिक्कतें हैं। ओटीटी भी अच्छा विकल्प है। हम चाहते हैं कि दर्शक हमारे काम से जुड़ें। ओटीटी रिलीज को लेकर भी मैं खुश थी।