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कामयाबी और दर्द की दास्तान है 'मुगल-ए-आज़म' की अनारकली मधुबाला की ज़िंदगी

मधुबाला दिल की बीमारी से पीड़ित थीं जिसका पता 1950 में चल चुका था। लेकिन, यह सच्चाई सबसे छुपा कर रखी गयी। लेकिन, जब हालात बदतर हो गये तो ये छुप ना सका।

By Hirendra JEdited By: Published: Wed, 14 Feb 2018 09:21 AM (IST)Updated: Fri, 16 Feb 2018 08:40 AM (IST)
कामयाबी और दर्द की दास्तान है  'मुगल-ए-आज़म' की अनारकली मधुबाला की ज़िंदगी
कामयाबी और दर्द की दास्तान है 'मुगल-ए-आज़म' की अनारकली मधुबाला की ज़िंदगी

मुंबई। 'मुगल-ए-आज़म' की अनारकली यानी मधुबाला का जन्म 14 फरवरी 1933 को दिल्ली में हुआ था। महज 36 साल की उम्र में ही इस दुनिया के रंगमंच से अपना किरदार निभा कर विदा लेने से पहले मधुशाला ने अपने अभिनय से हिंदी सिनेमा के आकाश पर एक ऐसी अमिट छाप छोड़ दी कि आज भी कई अभिनेत्रियां उन्हें अपना रोल मॉडल मानती हैं।

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मधुबाला के बचपन का नाम मुमताज़ जहां था। दिल्ली आकाशवाणी में बच्चों के एक कार्यक्रम के दौरान संगीतकार मदनमोहन के पिता ने जब मुमताज़ को देखा तो पहली ही नज़र में उन्हें वो भा गईं, जिसके बाद बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म 'बसंत' में एक बाल कलाकार की भूमिका मुमताज़ को दी गई। जैसे नियति ने तय कर दिया था कि इस बच्ची का जन्म अभिनेत्री बनने के लिए ही हुआ है। एक बाल कलाकार से लेकर एक आइकॉनिक अभिनेत्री तक का सफ़र तय करने वाली मधुबाला की जीवन यात्रा अविस्मरणीय रही है!

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ऐसा कहा जाता है कि एक ज्योतिष ने उनके माता-पिता से पहले ही कह दिया था कि मुमताज़ अत्यधिक ख्याति और संपत्ति अर्जित करेगी लेकिन, उनका जीवन दुखःमय होगा। उनके पिता अयातुल्लाह ख़ान ये भविष्यवाणी सुन कर दिल्ली से एक बेहतर जीवन की तलाश मे मुंबई आ गये थे। बहरहाल, ‘बसंत’ के बाद रणजीत स्टूडियो की कुछ फ़िल्मों में अभिनय और गाने गाकर मुमताज़ ने अपना फ़िल्मी सफर आगे बढ़ाया। देविका रानी ‘बसंत’ में उनके अभिनय से बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने ही उनका नाम मुमताज़ से बदल कर 'मधुबाला' रख दिया। मधुबाला की सिनेमाई ट्रेनिंग चलती रही, क्या आप यकीन करेंगे वो महज 12 साल की उम्र में ही ड्राइविंग सीख चुकी थीं!

मधुबाला को पहली बार हीरोइन बनाया डॉयरेक्टर केदार शर्मा ने। फ़िल्म 'नीलकमल' में राजकपूर उनके हीरो थे। इस फ़िल्म मे उनके अभिनय के बाद से ही उन्हे 'सिनेमा की सौन्दर्य देवी' (Venus Of The Screen) कहा जाने लगा। लेकिन, उन्हें बड़ी सफलता और लोकप्रियता फ़िल्म 'महल' से मिली। इस सस्पेंस फ़िल्म में उनके नायक थे अशोक कुमार। ‘महल’ ने कई इतिहास रचे।

'महल' की सफलता के बाद मधुबाला ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उस समय के स्थापित अभिनेताओं के साथ उनकी एक के बाद एक कई फ़िल्म आती गयीं और सफल भी रहीं। उन्होंने राज कपूर, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवानंद आदि उस दौर के सभी दिग्गज अभिनेताओं के साथ काम किया।

इस दौरान उनकी कुछ फ़िल्में फ्लॉप भी हुईं क्योंकि परिवार उन्हीं की आमदनी से चलता था ऐसे में गलत फ़िल्मों का चुनाव उनके लिए भारी पड़ा! उनके पिता ही उनके मैनेजेर भी थे। लेकिन, असफलताओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और साल 1958 में आई उनकी चारों फ़िल्में- ‘फागुन’, ‘हावरा ब्रिज’, काला पानी’, ‘चलती का नाम गाड़ी’ सुपर हिट साबित हुईं!

1960 में जब ‘मुगल-ए-आज़म’ रिलीज़ हुई तो इस फ़िल्म ने मधुबाला को एक अलग ही स्तर पर पहुंचा दिया! इसमें 'अनारकली' की भूमिका उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कही जाती है। फ़िल्म के दौरान उनका स्वास्थ्य भी काफी बिगड़ने लगा था लेकिन, वो पूरे जतन से जुटी रहीं! इस फ़िल्म को बनने में नौ साल का लंबा वक़्त लगा! 

मधुबाला के लव लाइफ की बात करें तो दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को बॉलीवुड की चुनिंदा कहानियों में गिना जाता है। इनकी प्रेम कहानी किसी रोमांटिक फ़िल्म की स्क्रिप्ट की तरह शुरू हुई और खत्म भी हो गई। दिलीप कुमार की ज़िंदगी में जब मधुबाला आई तो वह महज 17 साल की थीं। लेकिन, दोनों की प्रेम कहानी में मधुबाला के पिता विलेन बन बैठे और अंत में इस प्रेमी जोड़े की राहें अलग हो गईं।

मधुबाला का दिल एक बार फिर से धड़का गायक और नायक किशोर कुमार पर। फ़िल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में 'एक लड़की भीगी-भागी-सी...' गाना गाकर किशोर ने मधुबाला का दिल जीत लिया और दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद पता चला कि मधुबाला के दिल में एक छोटा-सा छेद है। लाचार होकर मधुबाला बरसों तक बिस्तर पर पड़ी रहीं। किशोर कुमार उनकी सेवा करते रहे और 23 फरवरी 1969 को वह इस दुनिया को अलविदा कह कर चली गईं।

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मधुबाला दिल की बीमारी से पीड़ित थीं जिसका पता 1950 में चल चुका था। लेकिन, यह सच्चाई सबसे छुपा कर रखी गयी। लेकिन, जब हालात बदतर हो गये तो ये छुप ना सका। कभी-कभी फ़िल्मो के सेट पर ही उनकी तबीयत बुरी तरह खराब हो जाती थी। चिकित्सा के लिये जब वह लंदन गईं तो डॉक्टरों ने उनकी सर्जरी करने से मना कर दिया क्योंकि उन्हे डर था कि कहीं सर्जरी के दौरान ही उन्हें कुछ हो ना जाए! जीवन के आखिरी नौ साल उन्हें बिस्तर पर ही बिताने पड़े। उनके निधन के दो साल बाद उनकी एक फ़िल्म ‘जलवा’ रिलीज़ हुई, जो उनकी आख़िरी फ़िल्म थी!


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