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कंगना रनोट के स्वभाव में है निर्भीकता, उसका सम्मान किया जाना चाहिए

Kangana Ranaut कंगना रनोट अपनी निर्भीकता की वजह से अभिनेत्री कंगना रनोट बराबर चर्चा में रहती हैं।

By Mohit PareekEdited By: Published: Mon, 14 Sep 2020 12:04 PM (IST)Updated: Mon, 14 Sep 2020 12:04 PM (IST)
कंगना रनोट के स्वभाव में है निर्भीकता, उसका सम्मान किया जाना चाहिए
कंगना रनोट के स्वभाव में है निर्भीकता, उसका सम्मान किया जाना चाहिए

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विनोद अनुपमअपनी निर्भीकता की वजह से अभिनेत्री कंगना रनोट बराबर चर्चा में रहती हैं। निर्भीकता उनके स्वभाव में है। आज के समय में दुर्लभ हो रही इस निर्भीकता का सम्मान किया जाना चाहिए...

हिंदी सिनेमा की शायद पहली अभिनेत्री होंगी कंगना रनोट, जिन्हें भारत सरकार द्वारा वाई श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की गई है। इसका कारण भी है, कंगना शायद पहली पद्मश्री होंगी, जिन्हें किसी राज्य सरकार का गृह मंत्री स्पष्ट कह रहा हो कि आपको इस शहर और राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं। ...जिन्हें सत्ताधारी पार्टी का प्रवक्ता सरेआम मीडिया पर गालियां और धमकियां दे रहा हो, जिसके श्राद्ध करने की बात कही जा रही हो तो केंद्र सरकार द्वारा एक पद्मश्री और राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित अभिनेत्री की सुरक्षा लाजमी बन जाती है। कमाल यह कि कंगना का शिवसेना से कोई विवाद ही नहीं था, उन्होंने तो लड़ाई हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में फैले मगरमच्छों के खिलाफ शुरू की थी।

कुछेक साल पहले करण जौहर के एक इंटरव्यू से शुरू हुए नेपोटिज्म के विवाद ने इंडस्ट्री को कठघरे में खड़ा कर दिया और अपनी झेंप मिटाने इंडस्ट्री कंगना पर फूहड़ आक्रमण में एकजुट हो गई, जिसका पुरजोर मुकाबला कंगना लगातार करती रहीं। इससे बड़ी बात नहीं हो सकती कि इंडस्ट्री के तमाम बड़े नामों से मुकाबला करते हुए भी वह अपने काम के लिए गुंजाइश निकालती रहीं। ‘मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ झांसी’ जैसी फिल्म का निर्माण आसान नहीं, कंगना ने वह कर दिखाया। विवाद के बाद भी कंगना ने फिल्म ‘पंगा’ और ‘जजमेंटल है क्या’ में यादगार किरदार निभाए।

कंगना ने मणिर्किणका फिल्म्स के नाम से एक प्रोडक्शन हाउस की भी शुरुआत की। इस बीच अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने सिनेमा इंडस्ट्री को कितना झकझोरा पता नहीं, देश तो जरूर एकबारगी हिल सा गया। जब पूरी इंडस्ट्री अपने युवतम सितारे की मौत पर गुम साधे पड़ी थी, कंगना ने एक बार फिर कमान संभाली और उनकी मौत को नेपोटिज्म से जोड़ते हुए मुंबई पुलिस के इन्वेस्टिगेशन पर सवाल उठाए। यह अजीब बात है कि कंगना सवाल मुंबई पुलिस की कार्यक्षमता पर उठा रही थीं और शिवसेना नेता व्यक्तिगत रूप से उसे अपने पर ले रहे थे। अपनी पुलिस की बचाव में किसी सरकार के इस तरह उग्र रूप से खडे़ होने का शायद यह पहला दृष्टांत होगा।

लड़ाई का रुख पुलिस से हटाकर शिवसेना की ओर मोड़ लेने की उसके प्रवक्ता संजय राउत ने भरसक कोशिश की और उसमें सफल भी रहे। शायद इसलिए कि पुलिस की गलती या गड़बड़ी का राजनीतिक मुकाबला कर पुलिस का चेहरा बचाया जा सके। कंगना की जिन बातों को लेकर शिवसेना ने हंगामा खड़ा किया, उसके केंद्र में कहीं शिवसेना थी ही नहीं। शिवसेना और संजय राउत को यह लगा होगा कि कंगना के तेवर नरम पड़ जाएंगे, लेकिन कंगना ने शायद नरम होना सीखा ही नहीं था। ऋतिक रोशन से जब उनके रिश्ते तल्ख हुए तो उन्होंने खुलकर मुकाबला करने में कोई संकोच नहीं किया। मामला राममंदिर का हो या कश्मीरी ब्राह्मणों का कंगना अपनी ईमानदार राय देने से कभी नहीं चूकतीं।

हिमाचल प्रदेश में जन्मीं कंगना की पढ़ाई पहले चंडीगढ़ फिर दिल्ली में हुई। दिल्ली में ही उन्होंने थिएटर सीखा और थिएटर की छोटी सी, लेकिन मजबूत विरासत लेकर अपने दृढ़ इरादे के साथ मुंबई आ गर्इं। पहली फिल्म मिली ‘गैंगस्टर’। इस फिल्म में कई ऐसे दृश्य थे जिन्हें निभाना सहज नहीं हो सकता था, लेकिन कंगना ने बेहिचक उन दृश्यों को अभिनीत किया। इसी साल कंगना को ‘वो लम्हें’ मिली, जो परवीन बाबी और महेश भट्ट के जीवन से प्रेरित बताई जा रही थी। कंगना अपने काम के प्रति कितनी ईमानदार थीं और किस साहस और जीवट के साथ अपनी भूमिका को उतारने की कोशिश की इसकी गवाह आज भी ये फिल्में हैं। आश्चर्य नहीं कि ‘वंस अपान ए टाइम इन मुंबई’ से लेकर ‘फैशन’ और ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ तक कंगना एक खास तरह की फिल्मों की पसंद बनी रहीं।

‘तनु वेड्स मनु’ के बाद हिंदी सिनेमा को एक नई कंगना मिली, ‘गैंगस्टर’ और ‘फैशन’ के डार्क कैरेक्टर से मुक्त। यह वो चरित्र था, जो जीने का संदेश लेकर आ रहा था, जिसके पास जीने की जिद थी और लड़ने का आत्मविश्वास। शायद ‘तनु वेड्स मनु’ में कंगना को अपने को जीने का अहसास हुआ होगा। फिर उसने पलटकर नहीं देखा। हाल ही में आई फिल्म ‘पंगा’ तक, जिसमें उन्होंने एक ऐसी कबड्डी खिलाड़ी की भूमिका निभाई, जो अपने बटे की जिद पर ग्राउंड पर दोबारा उतरती है और अपनी पहचान कायम करती है। फिल्म ‘क्वीन’ तो महिला सशक्तिकरण की प्रतीक फिल्म के रूप में हिंदी में देखी जाती रहेगी। यहां कंगना अपने अकेलेपन के साथ नहीं, बल्कि परिवार, दोस्त और समाज के साथ दिखती थीं।

फिल्म ‘क्वीन’ के बाद जब हिंदी सिनेमा की अभिनेत्रियों की नई पहचान बनकर कंगना उभर रही थीं, उन्होंने अभिनय से ब्रेक लेकर पटकथा लेखन की पढ़ाई करने न्यू यॉर्क फिल्म एकेडमी ज्वाइन करने का निर्णय ले लिया, जो अभिनेता आज कंगना की शिक्षा पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हेंं अहसास नहीं कि सिनेमा में लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए पढ़ाई के लिए ब्रेक लेने का निर्णय कोई सामान्य अभिनेता नहीं ले सकता, उसके लिए कंगना चाहिए। चौदह वर्षों में तीन नेशनल अवार्ड और पद्मश्री पाने के लिए किसी अभिनेता को कितने जन्मों से गुजरना पड़ता है, यह अपने अहंकार में ऐंठे और बड़बोले नहीं समझ सकते।

कंगना के साथ मुश्किल यह है कि वह जितनी ईमानदार अपने चरित्र के प्रति रहती हैं, उतनी ही वास्तविक जीवन में भी। कितनी अभिनेत्री हो सकती हैं, जो अपनी पहली ही फिल्म में परदे पर भरी पार्टी में अपने कपड़े उतारकर फेंकती दिखें, कंगना वहां भी निर्भीक दिखी थीं, कंगना आज भी निर्भीक दिखती हैं। निर्भीकता कंगना के स्वभाव में है, आज के समय में दुर्लभ हो रहे इस निर्भीकता का सम्मान किया जाना चाहिए।

(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म समीक्षक हैं) 


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