'मदर इंडिया' के बिरजू से 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के फ़ैज़ल ख़ान तक खलनायक नहीं नायक हैं ये किरदार
फ़िल्मकारों ने इससे पहले भी ऐसे किरदारों को गढ़ा है जो आदर्श सामाजिक खांचे में फिट नहीं बैठते। लेकिन वे उस पर्दे पर चमकते हैं और दर्शकों पर गहरा असर छोड़ते हैं।
नई दिल्ली, जेएनएन। टॉड फिलिप्स ने एक किरदार बुना। जोकर आर्थर फ्लेक, जो अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। उसे किसी से प्यार नहीं है। उसकी हंसी शाह रुख़ ख़ान जैसी रोमांटिक नहीं है। उसकी हंसी वीभत्स है। वह अपने जीवन के सबसे अंधकार भरे लम्हों में चुकटले सुनाता है। वह दुखी है और हिंसक भी। वह लोगों की हत्या करके खुश हो जाता है। इसे देखने के बाद जब दर्शक थिएटर्स से बाहर आता है, तो उसे इस जोकर के प्रति एक अजीब-सी सहानुभूति होती है।
गज़ब है ना कि दर्शकों को उस किरदार से मोहब्बत है, जिसे किसी इश्क से नहीं। फ़िल्मकारों ने इससे पहले भी ऐसे किरदारों को गढ़ा है, जो आदर्श सामाजिक खांचे में फिट नहीं बैठते। लेकिन वे उस पर्दे पर चमकते हैं और दर्शकों पर असर छोड़ जाते हैं। इसका रिश्ता बॉलीवुड से भी काफी गहरा रहा है। 60 के दशक से लेकर अब तक हर दौर में ऐसे किरदार आए, जिन्हें इस दुनिया की परवाह नहीं थी। उन्हें बदलाव के लिए रास्ते की परवाह नहीं थी। वे हत्यारे थे, फिर भी वे उस कहानी के हीरो थे।
60 के दशक का बिरजू
साल 1957 में महबूब ख़ान ने एक ऐसा ही किरदार बुना। नाम था बिरजू। उसे इस दुनिया में सिर्फ अपने खेतों से मतलब था, जिस पर लाला कब्जा करना चाहता था। सितम की इंतेहा उसे ऐसे रास्ते पर ले जाती है, जिसकी मंज़िल शराफ़त नहीं होती। वह डाकुओं का सरदार बन जाता है। जैसे हर बुराई का अंत होता है, बिरजू की भी मौत होती है, मगर अपनी मां के हाथों। तमाम बुराइयों से आहत हुए भी बिरजू के किरदार से दर्शक को सहानुभूति रहती है। सुनील दत्त के इस किरदार के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। इस दौर में राजकपूर की आवारा और श्री 420 के मुख्य किरदार भी ग्रे शेड वाले थे।
70 के दशक का डॉन
बैलबॉट्म पैंट और नुकीले जूते। हीरो कोई पुलिस या आर्मी मैन नहीं है। उसका काम तस्करी का है। इस डॉन को एक नहीं बल्कि 12 मुल्कों की पुलिस खोज़ रही है। डॉन बने अमिताभ बच्चन का वो अंदाज़ दर्शकों को आज भी याद है। इस कहानी को सलीम-जावेद ने अपनी कलम से उतारा और चन्द्रा बरोट ने इसे लोगों का हीरो बनाया। इस डॉन का नशा ऐसा था कि इसे साल 2006 शाह रुख़ ख़ान ने पर्दे पर उतारा। वक़्त के साथ डॉन और शातिर और ख़तरनाक हो गया। इस बार यह डॉन मरता भी नहीं।
90 के दशक का बाज़ीगर
इस हत्यारे के चेहरे पर मुस्कराहट है। इसके दिल में प्यार भी है। लेकिन यह प्यारा नहीं है। यह मौत का बाज़ीगर है। ज़माने का सताया हुआ बाज़ीगर जो बदले के लिए किसी भी हद से गुज़र सकता है। अपनी कथित प्रेमिका को प्रपोज़ करने के बाद बदर्दी से उसे छत से नीचे फेंक देता है। 90 के दशक में बाजीगर एक मात्र ऐसा ही हीरो नहीं है। सुभाष घई का बड़े बालों खलानायक भी है। इसे शरीफ़ों से डर लगता है। यह खुद कहता है, 'नायक नहीं, खलनायक हूं मैं'। इस दशक के अंत में महेश मांजरेकर इसी खलानायक को वास्तव का रघु बनाते हैं। यह रघु मौत से इतना खेलता है कि इसे वहां भी सुकून नहीं मिलता। इसे मां की गोद में शांति नहीं मिलती। यहां तक कि इस हत्यारे की मौत पर दर्शक को भी सुकून नहीं मिलता।
90 के इस दशक में ऐसे खलनायकों को अपना सिनेमाई भगवान मिलता है, जिसका नाम है राम गोपाल वर्मा। रामू ने एक दो नहीं कई विलेन पैदा किये, जिनमें से एक है सत्या तो दूसरी तरफ उससे भी खतरनाक भीखू महात्रे। सबको हिंसा से मतलब है, पैसे से मतलब है। ये सब अपने आप में डॉन हैं। फिर भी दर्शकों के लिए ये एक हीरो हैं।
21वीं सदी का फ़ैजल
सत्या को गढ़ने वाले अनुराग कश्यप ने 21वीं सदी में एक और बड़े सिनेमाई हत्यारे फ़ैजल खान को पेश किया। गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के फ़ैजल ख़ान एक गोली नहीं मारता है, बल्कि कई मैगज़ीन खाली करता है। नवाज़उद्दीन अभिनीत फ़ैजल तो बस एक किरदार है। अनुराग कश्यप ने सरदार ख़ान, रामाधीर, सुल्तान और डेफिनिट जैसे कई नकारात्मक किरदारों को एक फ़िल्म में ही पर्दे का हीरो बना दिया। इनका जलवा ऐसा है कि सबके अपने फैन हैं।