Interview: कभी शादी नहीं करना चाहती थीं Vidya Balan, सिद्धार्थ रॉय कपूर से मिलने के बाद बदला मन
विद्या बालन हिंदी सिनेमा की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों में से एक हैं। उन्होंने फिल्म प्रोड्यूसर सिद्धार्थ रॉय कपूर से शादी की है। विद्या की फिल्म दो और दो प्यार सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है जिसमें उनके साथ प्रतीक गांधी लीड रोल में हैं। विद्या ने दैनिक जागरण को दिये इंटरव्यू में अपनी पर्सनल लाइफ और करियर को लेकर कई दिलचस्प बातें शेयर की हैं।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। पिछले कुछ अर्से से गंभीर भूमिकाओं में नजर आईं विद्या बालन अब दर्शकों से सिर्फ हंसी बांटना चाहती हैं। सिनेमाघरों में आज प्रदर्शित होने वाली रोमांटिक कामेडी फिल्म 'दो और दो प्यार' में वह नजर आएंगी। इस फिल्म, प्रेम के गणित, पहली बार वोट डालने के अनुभव व निजी जीवन को लेकर विद्या बालन से स्मिता श्रीवास्तव की विशेष बातचीत के अंश...
इस इंडस्ट्री में आपके 20 वर्ष पूरे हो रहे हैं। महिला सशक्तीकरण आधारित सिनेमा आपके कंधों पर है...
अच्छा लगता है कि मैंने जब करियर की शुरुआत की तो एक ही तरह की फिल्में बन रही थीं। फिर धीरे-धीरे महिला केंद्रित कहानियों का सिलसिला आरंभ हुआ। मैं सही जगह सही वक्त पर थी। उसका बहुत लाभ हुआ। इस तरह महिला प्रधान फिल्मों के साथ जुड़ गई। उनकी वजह से बहुत प्यार बटोरा और फिल्मों में तब्दीली भी आई, खास तौर पर महिला प्रधान फिल्मों में। अधिक संख्या में महिला प्रधान फिल्में बनने लगी हैं और बॉक्स ऑफिस पर चलने भी लगी हैं। इन सब बातों की मुझे बहुत खुशी है। इसमें हम सबका योगदान है।
दो और दो प्यार क्या कहना चाहती है?
यहां के लोगों को लगता है कि दो और दो चार हो सकते हैं, लेकिन यहां पर प्यार है, यही गुत्थी सुलझा रहे हैं। मजेदार रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है। रोमांस है, मस्ती भी है इसमें। इस वजह से यह फिल्म मुझे बहुत अच्छी लगी। इस वक्त मैं बस हंसना-हंसाना चाहती हूं। दर्शकों के लिए भी यही सही है, क्योंकि मैं बतौर दर्शक भी बहुत थक गई थी। पक गई थी उसी तरह का कंटेंट देख देखकर। इतनी मारधाड़। इतना क्लेश (हंसती हैं)। अब थोड़ा सा रोमांस और प्यार होना चाहिए।
प्यार को लेकर आपका गणित क्या रहा है?
मेरा तो सही रहा है (जोर का ठहाका मारती हैं)। मैं खुशकिस्मत रही। वास्तव में मैंने कोई गणित नहीं बिठाया। जब आप गणित नहीं बिठाते तभी चीजें सही चलती हैं। अगर हम योजना बनाकर चलें कि किसी इंसान में ये गुण होने चाहिए, फिर हमारी पटेगी तब शायद आपको निराशा हो। मैंने तो सोचा था कि कभी शादी नहीं करूंगी, क्योंकि मैंने करियर इतना देरी से शुरू किया। मुझे लगता था इतना कुछ करना है, लेकिन सिद्धार्थ ने आकर वो इरादा बदल दिया।
कैसा था जीवन में पहला रोमांस?
मेरा तो अच्छा नहीं था। शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। उस समय मैं 14 या 15 साल की थी। मुझे उस लड़के की आवाज बहुत अच्छी लगती थी। एक दिन मैंने उसे गुनगुनाते हुए सुना, फिर मैं वहां से भाग गई (ठहाका मारती हैं)।
यह फिल्म द लवर्स की रीमेक है?
वास्तव में यह रीमेक नहीं है। नींव वही है पर कहानी काफी अलग है उससे। जो दिशा शीर्षा गुहा (लेखक और निर्देशक) ने स्क्रिप्ट दी, वो बहुत अलग थी। यह रोमांटिक कामेडी है। मूल फिल्म थोड़ा गंभीर थी। अभी तो आप किसी को सीधे मैसेज भेजकर मन की बात कह सकते हैं। जहां तक लव स्टोरी की बात है तो जीवन में लव स्टोरी खत्म हो रही हैं। समाज में जो होता है, हमारा सिनेमा उसी को दर्शाता है। आजकल हम सब बहुत अधीर हो गए हैं। हम इंस्टाग्राम पर किसी का प्रोफाइल चेक करते हैं। अगर वो पसंद आए तो उसे संदेश भेजते हैं। एकाध बार मैसेज पर बात कर लेते हैं। अगर अच्छा लगा तो ठीक है वरना डिलीट, ब्लाक। किसी दूसरे को जानने का मौका ही नहीं दे रहे हैं।
शादी के किन पहलुओं को फिल्म में दिखाया गया है?
शादी में एक वक्त के बाद दंपती इतने सहज हो जाते हैं कि वे एक-दूसरे को हल्के में लेने लगते हैं। उस वजह से वे साथ अधिक समय नहीं बिताते। एक-दूसरे में अधिक रुचि नहीं लेते। उसका असर रिश्तों पर पड़ता ही है। दूरियां बढ़ती जाती हैं। ये सब बातें आपको फिल्म में दिखाई देंगी।
जब रिश्तों में कोई धोखा दे जाए, तो क्या माफ कर देना आसान होता है?
अगर किसी से प्रेम संबंध है तो माफ करने में दिक्कत होती है। (धीरे से बोलते हुए) मैं शायद नहीं कर पाऊंगी। उम्मीद करती हूं कि इसकी आवश्यकता ही न पड़े।
असल जिंदगी में दांपत्य के झगड़ों को सुलझाने में कौन आगे आता है ?
झगड़ा शांत करने में सिद्धार्थ। (शर्माते हुए) मनाने के उनके अपने तरीके हैं।
देश में चुनाव का माहौल है। सही सरकार चुनना कितना आवश्यक है?
वो सबसे आवश्यक है, क्योंकि सरकार देश चलाती है। अगर आप देश में कोई भी परिवर्तन लाना चाहते हैं तो वह आप से शुरू होना चाहिए। आपका वोट सबसे अहम योगदान है उसकी तरफ। वोट जरूर कीजिए।
जब पहली बार चुनाव में डाला वोट...
चुनाव में वोट डालना बड़ी जिम्मेदारी है, इसका एहसास पापा ने कराया। मैं 18 वर्ष की हुई थी उस वर्ष चुनाव नहीं हुए थे। जब 20 वर्ष की हुई तब चुनाव हुए। मुझे तो वह छुट्टी वाला दिन लग रहा था। मैंने कहा कि मुझे वोट नहीं करना है। तब पापा ने कहा कि अगर तुम्हें आगे जाकर देश के बारे में कुछ भी कहना हो या सरकार के बारे में कोई भी राय रखनी हो तो तुम वो हक खो दोगी अगर तुमने वोट नहीं किया। वोट करने के बाद ही तुम इसकी हकदार बनोगी। वो बात मुझे छू गई। मैंने वोट दिया। उसकी अहमियत का अहसास हुआ। जब अंगुली पर वो काली स्याही लगी तो मैं उसे देखती रह गई। कितने दिन तक वो निशान रहा था।