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बेदर्दी मेरे सैंया..

पिछली बातचीत में हमने यह बताया था कि 'चौदहवीं का चांद' का शीर्षक गीत 'चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..' कैसे बना। अब उससे आगे की बात, तो 'चौदहवीं का चांद' के शीर्षक गीत की रिकार्डिग में भी एक मजेदार बात हुई। जब यह गाना रफी साहब गा रहे थे, वहां जो भी सुन

By Edited By: Published: Sun, 14 Apr 2013 06:17 PM (IST)Updated: Sun, 14 Apr 2013 07:29 PM (IST)
बेदर्दी मेरे सैंया..

नई दिल्ली। पिछली बातचीत में हमने यह बताया था कि 'चौदहवीं का चांद' का शीर्षक गीत 'चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..' कैसे बना। अब उससे आगे की बात, तो 'चौदहवीं का चांद' के शीर्षक गीत की रिकार्डिग में भी एक मजेदार बात हुई। जब यह गाना रफी साहब गा रहे थे, वहां जो भी सुनने वाले थे, सभी ने खूब वाहवाही की। चूंकि इसके बोल इतने प्यारे बने थे कि जवाब नहीं। सभी लोग खुश थे। खुद मुझे भी गाना बहुत अच्छा लगा, लेकिन बीच में एक लाइन रफी साहब ने शराबी जैसे अंदाज में गा दिया। उस वक्त तो सभी ने यही कहा कि चलो गाना रिकार्ड हो गया अब जो भी कुछ कमी होगी, बाद में ठीक कर लेंगे। सभी के चेहरे पर यह सुकून था।

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कुछ दिन बाद जब इस गीत का रफ रिकार्ड तैयार होकर आया, तो उसे लेकर मैं घर आ गया। एक रिकार्ड गुरुदत्त साहब भी ले गए। जब मैं घर पहुंचा, तो खाना खाते हुए इस गीत को सुन रहा था। गीत सुनते हुए मुझे अच्छा लगा रहा था। मैं गीत को सुनते हुए उसके भाव को भी महसूस कर रहा था। एक जगह आकर मैं अचानक चौंक गया। एक बार तो मैंने सोचा कि शायद कुछ गलत सुन लिया है, लेकिन फिर से सुना, तो एक गड़बड़ी उसमें सुनाई दी जो मुझे अजीब लगी और मैं परेशान हो गया। मैंने तभी गुरुदत्त साहब को फोन मिलाया कि इस बारे में बात करूं, लेकिन तब बात नहीं हो पाई। कुछ ही समय बाद उनका फोन आया कि क्या बात है? तो उनसे बताया कि फलां जगह गीत में गड़बड़ी हो गई है। आपको सुनते हुए कैसा लगा? उनका जवाब आया, अभी मैंने सुना नहीं है। थोड़ी देर बाद सुनकर बताता हूं।

इस बातचीत के बाद मैं उस रिकार्ड को लगातार बजाता और सुनता रहा और गुरुदत्त के फोन का इंतजार करता रहा। मैं परेशान था कि यह तो बड़ी भूल हो जाएगी। आधा घंटा हुआ होगा, उसके बाद गुरुदत्त साहब का फोन आया और उस बारे में बातचीत हुई, तो उन्होंने कहा कि मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया..। मुझे तो गीत सही लग रहा है। फिर मैंने उनसे कहा कि फलां जगह ऐसा लगता है जैसे कोई शराबी गीत गा रहा हो। उनका जवाब आया, फिर क्या किया जाए? मैंने कहा, मैं गीत की इस लाइन को फिर से रिकार्ड करना चाहता हूं.., और भी कुछ तब्दीलियां करनी हैं, इसी के साथ उसे भी ठीक कर लूंगा। गुरुदत्त ने कहा, 'ठीक है, कर लीजिएगा, लेकिन कल तो मैं शूटिंग के लिए जा रहा हूं। वहां वहीदा रहमान के शॉट ले लूंगा। अभी रफी साहब भी बाहर गए हुए हैं। उनके आने के बाद फिर से रिकार्डिग कर लेंगे।' उनकी बात सुनने के बाद मुझे तसल्ली हुई। उनके ऐसा कहने के बाद मैं सुकून महसूस कर रहा था।

उसके बाद हम फिल्म के दूसरे गीतों पर काम करने लगे और इन गीतों की तैयारी में कहीं कोई बाधा नहीं आई। सब काम मजे में होता चला जा रहा था। दरअसल, जब हम धुन बनाते थे, तो उसे गुरुदत्त साहब को सुना देते थे। उनसे कोई भी धुन स्वीकृत कराने में जरा भी दिक्कत नहीं हुई। लोग कहते थे कि वे बहुत मुश्किल व्यक्ति हैं, लेकिन मुझे ऐसा कुछ भी नहीं लगा। मेरे ख्याल से धुन सुनाने के लिए मुझे गुरुदत्त जैसा स्पष्ट फिल्मकार कभी नहीं मिला। 'चौदहवीं का चांद' के लिए शुरू में पंद्रह गाने बने थे, और मैंने हर गाने के लिए पांच धुनें बनाई थीं। इन धुनों को मैं गुरुदत्त को सुनाया करता था। गुरुदत्त ने हर गाने की पांचों धुनों में से हर बार जिसे चुना, वह वाकई अच्छी धुन थी। यानी संगीत अच्छा कौन सा है, इस चीज की तमीज उन्हें थी। तो उन्हें जो सबसे अच्छी धुन लगी, उन्होंने उसे चुन ली। मुझे भी उन्हें संतुष्ट करने में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। वे संगीत की बारीकियों को कायदे से समझते थे। उनके साथ काम करने में मुझे भी आनंद आता था और कुछ सीखने को मिलता था।

गुरुदत्त साहब मुझसे और मेरे काम से बेहद खुश थे। मैंने 'चौदहवीं का चांद..' गीत को 'पहाड़ी' धुन पर तैयार किया था और उसे रफी की आवाज ने अमर बना दिया। बाकी बातें मैं कर ही चुका हूं। गुरुदत्त को यह भी पता चल गया कि बेशक रवि ने शकील बदायूंनी के साथ पहले काम नहीं किया है, लेकिन दोनों को साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं है। वे यह भी जान गए कि रवि वैसे तो पंडित हैं, लेकिन ऐसे पंडित हैं, जो उर्दू भाषा की बारीकियों को अच्छी तरह समझते हैं। गुरुदत्त को इस फिल्म के रफी की आवाज वाले और भी गीत पसंद आए, जैसे 'मिली खाक में मुहब्बत..', 'ये लखनऊ की सरजमीं..', 'मेरा यार बना है दूल्हा..' और 'ये दुनिया गोल है..' आदि।

इसी फिल्म के काम के समय गुरुदत्त ने यह महसूस किया और दूसरों को बताया कि मैं उनकी इस फिल्म के लिए बेहतर संगीतकार हूं, क्योंकि मैं गंभीर और हलके-फुलके दोनों तरह के गीतों की धुनें अच्छी बना लेता था। मैंने भी अपनी समझ से गीतों के बोल और सीन के भाव को समझा और उसी के हिसाब से संगीत बनाया और सिंगर का चयन किया। जैसा कि मैंने बताया है कि गीत 'बेदर्दी मेरे सैंया शबनम हैं कभी शोले..' और मुजरे टाइप के गीत 'दिल की कहानी रंग लाई है..' के लिए आशा भोसले की आवाज को चुना। इसी सोच के तहत मैंने लता से एकमात्र गीत 'बदले बदले मेरे सरकार नजर आते हैं..' गवाया। इसी में एक गीत गीता दत्त से 'बालम से मिलन होगा, शरमाने के दिन आए..' भी गवाया। इन गीतों को सुनकर गुरुदत्त काफी खुश हुए थे, लेकिन एक गीत जिसे गीता दत्त ने गाया था, मेरी समझ से वह फिल्म का सबसे अच्छा गीत था, लेकिन बाद में वही गीत सबसे कमजोर गीत बना। इस गीत की भी अपनी कहानी है।

थोड़ी देर रुकने के बाद रवि कहते हैं, 'हां, तो बात हो रही है 'चौदहवीं का चांद' की, तो गुरुदत्त की फिल्म हो और उसमें उनकी पत्नी गीता दत्त का गाया गाना न हो, ऐसा कैसे हो सकता था? उनकी लगभग हर फिल्म में गीता दत्त के गाये गीत होते ही थे। जब मैंने फिल्म का पहला गाना बनाया, वह था कोठे वाली का। उसके बोल थे 'बेदर्दी मेरे सैंया शबनम हैं कभी शोले..'। यूनिट के सभी लोगों ने कहा कि यह गाना आशा भोसले की आवाज में अच्छा लगेगा। उन लोगों ने यह भी कहा कि चुलबुले अंदाज वाले गाने आशा भोसले की आवाज में बहुत अच्छे लगते हैं। दूसरी तरफ गुरुदत्त को भी यह फील हो रहा था कि मेरी फिल्म है और गीता का गाया कोई गाना नहीं है?

क्रमश:

इस अंक के सहयोगी : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित कर्ण, दिल्ली से रतन, यशा माथुर, स्मिता, पंजाब से जगतार सिंह धंजल, पटना से संजीव कुमार आलोक

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