‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे...’, पुण्यतिथि पर याद आये मन्ना डे
मन्ना डे ने डॉ. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला के प्राइवेट अल्बम में अपनी आवाज़ दी थी..
मुंबई। प्रबोध चंद्र डे उर्फ मन्ना डे की आज पुण्यतिथि है। मन्ना डे भले ही आज हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन अपने गानों के जरिए हमेशा वो हमारे यादों में बने रहेंगे। मन्ना डे का जन्म 1 मई 1920 को कोलकाता में हुआ था। मन्ना डे के पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे लेकिन, उनका मन तो शुरुआत से ही संगीत की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते थे।
मन्ना डे के चाचा कृष्ण चंद्र डे का बड़ा नाम था। वो नेत्रहीन थे और न्यू थियेटर्स में बतौर गायक-अभिनेता काम कर रहे थे। मन्ना डे नाम उन्हीं का दिया हुआ है। वही संगीत में उनके प्रारंभिक गुरु बने। एक बार मन्ना डे के कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता आयोजित हुई लेकिन पहले चाचा ने मन्ना डे वहां जाने से मना कर दिया। बाद में मान गए। मन्ना डे ने प्रतियोगिता के दसों वर्गो में भाग लिया और नौ में प्रथम पुरस्कार जीता। मज़े की बात अपनी मातृभाषा बांग्ला में वो सेकेंड आये। वह कुश्ती और मुक्केबाजी की प्रतियोगिताओं में भी खूब भाग लेते थे। साल 1941 में न्यू थियेटर्स के कई कलाकार जब बंबई आए तो उनके साथ मन्ना डे भी आ गए। 1942 में उन्होंने 'तमन्ना' फ़िल्म के लिए 'जागो आई ऊषा, पंछी बोले जागो..' गीत गाकर अपने गायन करियर की शुरुआत की, लेकिन फ़िल्म 'रामराज्य' में 'बुद्धं शरणं..' गीत गाने के बाद मन्ना डे का नाम जाना गया।
मन्ना डे ने गायन के अलावा स्वतंत्र संगीतकार के रूप में फ़िल्मों में संगीत भी दिया, जिसकी शुरुआत संगीतकार खेमचंद प्रकाश के सहायक के रूप में हुई। उन दिनों खेमचंद प्रकाश जयंत देसाई के निर्देशन में बनने वाली फ़िल्म 'गणेश जन्म' का संगीत-निर्देशन कर रहे थे। तभी वो गंभीर रूप से बीमार हो गए। उनकी बीमारी के चलते फ़िल्म का संगीत अधूरा रह गया, तो देसाई के आग्रह पर मन्ना डे ने उसे पूरा किया। परिणाम यह हुआ कि मन्ना डे को बॉलीवुड में बतौर संगीतकार काम करने के निमंत्रण मिलने लगे। जिन फ़िल्मों के लिए आमंत्रित किया गया, उनमें 'महापूजा', 'जय महादेव', 'गौरीपूजा' जैसी फिल्में थीं।
पौराणिक फ़िल्मों के इस मायाजाल से दुखी होकर मन्ना डे ने म्यूज़िक डायरेक्शन बंद करने का मन बना लिया और तय किया कि वो सिर्फ गायेंगे। उसी साल उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म 'मशाल' में पार्श्वगायन का ऑफर मिला और उन्होंने सचिन देव बर्मन के संगीत-निर्देशन में एक गीत गाया, 'ऊपर गगन विशाल...'। इस गीत ने मन्ना डे को पार्श्वगायन में स्थापित कर दिया। और उसके बाद मन्ना दा ने अपने गीतों का अलग संसार ही बसा लिया। साल 1961 में आई फ़िल्म 'काबुली वाला' के गीत 'ऐ मेरे प्यारे वतन' ने मन्ना डे को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया।
मन्ना डे ने 1942 से 2013 के बीच सौ से अधिक निर्देशकों के लिए 4000 से ज्यादा गाने गाए। इनमें हिंदी में 1500, पंजाबी में 18, बांग्ला में 1200, गुजराती में 85, भोजपुरी में 35, असमिया में छह, मराठी में 70 और इसके अलावा मैथिली, कोंकणी, सिंधी, कन्नड़, मलयालम और मगध भाषा में भी गाने गाये। फ़िल्म चोरी चोरी का ‘आजा सनम...’, आनंद का ‘जिंदगी कैसी है पहेली...’, पड़ोसन का ‘एक चतुर नार...’ सीमा का ‘तू प्यार का सागर है...’, शोले का ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...’ मेरा नाम जोकर का ‘ऐ भाई जरा देख के चलो...’ ज़ंजीर का ‘यारी है ईमान मेरा...’तीसरी कसम का ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे...’ उपकार का ‘कस्में वादे प्यार वफा...’ वक्त का ‘ऐ मेरी जोहरा जबीन...’ और ऐसे कई गीत जो आज भी मन्ना दा को याद करने का जरिया हैं।
मन्ना डे के दौर में समकालीन गायक मोहम्मद रफी और महेंद्र कपूर उनके सबसे बड़े प्रशंसक थे। बताते हैं कि एक बार मन्ना दा ने किशोर कुमार को रिकार्डिंग के समय गलत राग में गाने पर टोक दिया था तब महमूद ने मन्ना डे को समझाया कि फ़िल्म के सीन में कुछ ऐसा ही दिखाया गया है इसलिए किशोर कुमार को इस तरह से गाना पड़ रहा है। जाने माने कवि गोपाल दास नीरज का गीत 'ऐ भाई जरा देख के चलो' व रविंद्र जैन का 'दूर है किनारा' को मन्ना डे ने अपनी आवाज देकर अमर कर दिया था। साल 1970 में देव आनन्द की फ़िल्म 'प्रेम पुजारी' के गीत 'ताकत वतन की हमसे है' को मन्ना डे ने मोहम्मद रफी के साथ आवाज दी। इसी वर्ष रिलीज हुई फ़िल्म 'चंदा और बिजली' में लिखे मेरे गीत 'काल का पहिया घूमे रे भइया' मन्ना डे के हिट गानों में है।
मन्ना डे ने डॉ. हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला' के प्राइवेट अल्बम में अपनी आवाज़ दी थी। पहली रुबाई खुद अमिताभ बच्चन के बाबूजी की थी और बाकी की मन्ना डे ने गाई। तब संगीतकार जयदेव ने कहा था, 'अगर बच्चनजी 'मधुशाला' लिखने के लिए बने थे, तो मन्ना डे इसे गाने के लिए।' साल 1991 में आई फ़िल्म 'प्रहार' में गाने ‘हमारी ही मुट्ठी में...’ के बाद मन्ना डे ने पार्श्वगायन से संन्यास ले लिया। साल 1971 में उन्हें पद्मश्री और 2005 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया।
साल 2007 में मन्ना डे को इंडस्ट्री में उनके योगदान के लिए दादासाहेब फाल्के पुरस्कार दिया गया। मन्ना दा जब 94 साल के हुए उससे पहले ही उनकी छाती में संक्रमण की शिकायत हुई। गुर्दे भी ख़राब हो गए थे और लंबी बीमारी के बाद 24 अक्टूबर, 2013 को बेंगलुरु में उनका निधन हो गया। आज भी रेडियो पर जब हम उनके गाये गीत सुनते हैं तो बरबस ही 'तीसरी कसम' का वो गीत हम सबके मन में गूंज उठता है- 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे!'