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गुंडों को पीटा और हाजी मस्तान से सीखी संवाद अदायगी... सारा शहर इन्हें Lion के नाम से जानता है!

हिंदी सिनेमा में लॉयन के उपनाम से मशहूर हुए अजीत ठीक 20 साल पहले (22 अक्टूबर 1998) को इस दुनिया को छोड़कर चले गये थे और पीछ छोड़ गये एक ऐसी विरासत, जो आज भी संवादों में ज़िंदा है।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Mon, 22 Oct 2018 04:21 PM (IST)Updated: Tue, 23 Oct 2018 07:33 AM (IST)
गुंडों को पीटा और हाजी मस्तान से सीखी संवाद अदायगी... सारा शहर इन्हें Lion के नाम से जानता है!
गुंडों को पीटा और हाजी मस्तान से सीखी संवाद अदायगी... सारा शहर इन्हें Lion के नाम से जानता है!

मुंबई। मोना डार्लिंग और रॉबर्ट... इन दो शब्दों को कहते ही ज़हन में एक ख़ास तरह की आवाज़ और शख़्सियत की छवि उभर आती है। लकदक पोशाक, आंखों पर गहरे रंग का चश्मा, हाथ में छड़ी और होठों में दबा सिगार... ताव ऐसा कि नज़र ना ठहरे। हिंदी सिनेमा में विलेन तो बहुत हुए हैं, मगर खलनायकी को जिस नफ़ासत और तहज़ीब के साथ अजीत ने पेश किया है, वो उन्हें परंपरागत खलनायकों से अलग करता है। सत्तर के दशक में सफ़ेदपोश खलनायकों की धारा को अजीत ने अपने संवादों और तौर-तरीक़ों से एक अलग पहचान और दिशा दी।

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हिंदी सिनेमा में लॉयन के उपनाम से मशहूर हुए अजीत 20 साल पहले (22 अक्टूबर 1998) को इस दुनिया को छोड़कर चले गये थे और पीछ छोड़ गये एक ऐसी विरासत, जो आज भी उनके निभाये किरदारों और कहे गये संवादों में ज़िंदा है। अजीत का असली नाम हमिद अली ख़ान था। पर्दे पर उन्हें यह नाम महेश भट्ट के पिता नानाभाई भट्ट ने दिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि हामिद अली ख़ान कुछ लंबा है। बात सही निकली और अजीत नाम ने हामिद अली ख़ान को हिंदी सिनेमा का लीजेंडरी कलाकार बना दिया।

अजीत मूल रूप से हैदराबाद से थे और 22 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर फ़िल्मों में करियर बनाने के लिए घर से भागकर मुंबई आ गये थे। उन दिनों एक्टिंग को अच्छा व्यवसाय नहीं समझा जाता था। कुलीन घरानों के लड़के-लड़कियां इस पेशे में नहीं आना चाहते थे। अजीत के दादा निज़ाम मिलिट्री में थे और सख़्तमिज़ाज थे। वो उन्हें डॉक्टर या वक़ील बनाना चाहते थे।

सीमेंट के पाइपों में रहे, गुंडों को पीटा

अजीत के फ़िल्मी सफ़र की कहानी भी किसी पटकथा से कम नहीं है। मुंबई आकर उन्हें कुछ दिन दक्षिण मुंबई में सीमेंट के बने पाइपों में गुज़ारने पड़े थे, जिन्हें नाला कहा जाता था। 50 के दशक की बात होगी। उन दिनों मुंबई में गुंडे मजलूमों और ग़रीबों से हफ़्ता वसूली करते थे। अजीत से भी एक गुंडे ने हफ़्ता वसूली करने की कोशिश की, मगर कद-काठी से मज़बूत अजीत ने उसे धुन दिया और उस दिन से वो उस इलाक़े के दादा बन गये।

अजीत ने फ़िल्मों में करियर जूनियर आर्टिस्ट के रूप में शुरू किया था। नानाभाई भट्ट ने अजीत को बतौर हीरो फ़िल्मों में ब्रेक और नया नाम दिया। फ़िल्मालय स्टूडियो ने अजीत को कुछ सालों के लिए साइन किया था। शुरुआत में अजीत ने दारा सिंह के साथ कई फ़िल्मों में काम किया था। नास्तिक, बड़ा भाई, मिलनस बारादरी और ढोलक जैसी फ़िल्मों के वो नायक बने, जबकि मुग़ले-आज़म और नया दौर में उन्होंने दिलीप कुमार के साथ सेकंड लीड रोल निभाया।

ऐसे शुरू हुआ खलनायकी का सफ़र

नायक से खलनायकी के सफ़र की कहानी भी मज़ेदार है। एक वक़्त ऐसा आया, जब चार साल तक अजीत के पास कोई काम नहीं था। इस दौरान वो अपने दोस्त राजेंद्र कुमार के साथ एक क्लब में पत्ते खेलने जाते थे। साउथ इंडियन डायरेक्टर टी प्रकाश राव राजेंद्र कुमार और वैजयंतीमाला के साथ सूरज बनाना चाहते थे।

इस फ़िल्म में प्रेमनाथ को विलेन के किरदार के लिए चुना गया था, लेकिन उनके साथ काम करने को लेकर अभिनेत्रियां हिचकिचाती थीं। इसलिए राजेंद्र कुमार ने अजीत का नाम निर्माताओं को सजेस्ट किया और इस तरह अजीत के विलेन बनने की यात्रा शुरू हुई। ज़ंजीर, यादों की बारात और कालीचरण जैसी सुपरहिट फ़िल्मों ने अजीत की खलनायकी को हिट कर दिया।

हाजी मस्तान से प्रेरित थी संवाद अदायगी

अजीत की खलनायकी की सबसे ख़ास बात थी उनका लहज़ा और नफ़ासत। कालीचरण में जब वो बड़े इत्मिनान से कहते हैं कि 'सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है' तो सुनने वाला शेर के आत्मविश्वास को उनकी संवाद अदायगी में महसूस कर सकता है। अजीत की खलनायकी को नया आयाम देने में सलमान ख़ान के पिता सलीम ख़ान की अहम भूमिका रही। दोनों दोस्त थे। सलीम हीरो बनना चाहते थे। कहते हैं कि अजीत ही उन्हें उन्हें इंदौर से मुंबई लाए थे।

खलनायक के किरदारों को लोकप्रिय बनाने में अजीत की सबसे बड़ी ख़ूबी उनकी अवाज़ ही थी, जिसकी आज भी मिमिक्री की जाती है। अजीत का संवाद अदायगी का नफ़ासतभरा अंदाज़ हाजी मस्तान जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन से प्रभावित था। ज़ंजीर जब बन रही थी तो अजीत ने डायरेक्टर प्रकाश मेहरा को यह आइडिया सुझाया था कि बड़े-बड़े डॉन कैसे धीमी आवाज़ में मुस्कुराते हुए बातें करते हैं। आइडिया कारगर रहा और विलेन का यह सॉफिस्टिकेटेड अवतार हिट हो गया। कहा यह भी जाता है कि ज़ंजीर में अजीत के किरदार के मैनेरिज़्म इंदौर के एक शख़्स पर आधारित थे, जिसे सलीम ख़ान जानते थे। उसके बोलने और उठने-बैठने का तरीक़ा सीखने के लिए अजीत उसके साथ भी रहे थे।

अजीत के कुछ यादगार संवाद-

  • कुत्ता जब पागल हो जाता है तो उसे गोली मार देते हैं- ज़ंजीर
  • सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है- कालीचरण
  • जिस तरह कुछ आदमियों की कमज़ोरी बेईमानी होती है, उसी तरह कुछ आदमियों की कमज़ोरी ईमानदारी होती है- ज़ंजीर
  • ज़िंदगी सिर्फ़ दो पांवों से भागती है और मौत हज़ारों हाथों से उसका रास्ता रोकती है- आज़ाद
  • मेरा जिस्म ज़रूर ज़ख़्मी है, लेकिन मेरी हिम्मत ज़ख़्मी नहीं- मुग़ले-आज़म
  • शाकाल जब बाज़ी खेलता है तो जितने पत्ते उसके हाथ में होते हैं, उतने ही उसकी आस्तीन में होते हैं- यादों की बारात

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