मेकर्स बन्दर बन जाते हैं, अपने हिसाब से कभी नहीं बना पाते फ़िल्म- 'चुम्बक' डायरेक्टर संदीप मोदी
संदीप ने भी कहा कि हम बन्दर बन जाते हैं, जैसा लोग चाहते हैं वैसे फ़िल्में बनानी पड़ती हैं। कई बार फ़िल्में ऐसी बन जाती हैं जैसा हमने सोचा भी नहीं होता।
अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। काम करने की आज़ादी सभी को है मगर फ़िल्मी दुनिया में लोग अब भी कहीं न कहीं बंधे रहते हैं। फ़िल्ममेकर्स अपने हिसाब से फ़िल्म नहीं बना पाते, कभी बजट तो कभी स्टार पॉवर की वजह से भी वो फ़िल्म को वो आकार नहीं दे पाते जो वो चाहते हैं। Independent Film Making के इस विषय पर हाल ही में मुंबई में हो रहे दैनिक जागरण फ़िल्म फेस्टिवल पर खुलकर चर्चा हुई।
आपो बता दें कि इस चर्चा में शामिल थे भारतीय फ़िल्म डायरेक्टर और प्रोड्यूसर अनिल शर्मा, फ़िल्म 'फ़िल्मिस्तान' के डायरेक्टर नितिन कक्कड़, फ़िल्म 'चुम्बक' के डायरेक्टर संदीप मोदी और फ़िल्म 'जुगनी' की डायरेक्टर शेफाली भूषण। इन सभी बेहतरीन डायरेक्टर्स का कहना है कि फ़िल्म मेकर को फ़िल्म बनाने की पूरी आजादी होनी चाहिए, जैसे कि पहले होती थी। संदीप कहते हैं कि पहले जो कैमरामैन होता था, फ़िल्में उसके नज़रिए से बनती थी।
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वहीं नितिन कहते हैं कि इंडिपेंडेंट फ़िल्म मेकिंग अपने आप में जुनून है, यह पागलपन की हद तक जा सकता है। क्यूंकि इसमें आपका पैसा लगा होता है, मेरी फ़िल्म 'फ़िल्मिस्तान' को ढाई साल हो गए हैं लेकिन, 'रामसिंह चार्ली' को अब भी रिलीज़ नहीं मिल रही। यही वजह है कि डायरेक्टर्स कमर्शियल फ़िल्म बनाकर पहले पैसे कमाते हैं फिर इंडिपेंडेंट फ़िल्म बनाने के बारे में सोचते हैं। मुझे एक बड़े प्रोडक्शन हाउस ने अपनी कहानी सुनाने के लिए बुलाया, मैंने कहानी सुनाई, उन्हें अच्छी भी लगी मगर उन्होंने कहा फ़िल्म मेकिंग हमारे हिसाब से होगी। तो, आपको अपने तरह के सिनेमा बनाने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है।
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वहीं स्टार्स का सपोर्ट भी बहुत जरुरी माना गया है। नितिन कहते हैं कि स्टार्स होते हैं तो प्रोडक्शन हाउस का बजट भी बढ़ जाता है पर हमें तो जूनियर आर्टिस्ट के बजट में फ़िल्में बनानी पड़ती हैं। स्टार्स का सपोर्ट मिलता है तो उस फ़िल्म की ऑडियंस भी बनती हैं और फ़िल्म सक्सेस होती है। अगर इन बातों पर कोई स्टार ट्वीट कर दे तो लोग भी इस बारे में सोचेंगे। संदीप ने भी कहा कि हम बन्दर बन जाते हैं, जैसा लोग चाहते हैं वैसे फ़िल्में बनानी पड़ती हैं। कई बार फ़िल्में ऐसी बन जाती हैं जैसा हमने सोचा भी नहीं होता। आर्ट को बैलेंस करना जरुरी है, इस तरह के फेस्टिवल्स का होना जरुरी है जहां इन मुद्दों पर खुलकर बात हो सके।