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गोलियों का असर है..

हां, तो पिछली मुलाकात में मैंने बताया था कि कैसे गुरुदत्त ने अपनी पत्नी गीता दत्त को फिल्म 'चौदहवीं का चांद' के गीत गाने से मना कर दिया था और इस फिल्म से जुड़ी कुछ बातें भी की थीं। अब इस फिल्म से जुड़ी आगे की बात करता हूं। थोड़ा रुकने के बाद फिल्म 'चौदहवी

By Edited By: Published: Sun, 28 Apr 2013 04:42 PM (IST)Updated: Sun, 28 Apr 2013 05:14 PM (IST)
गोलियों का असर है..

नई दिल्ली। हां, तो पिछली मुलाकात में मैंने बताया था कि कैसे गुरुदत्त ने अपनी पत्नी गीता दत्त को फिल्म 'चौदहवीं का चांद' के गीत गाने से मना कर दिया था और इस फिल्म से जुड़ी कुछ बातें भी की थीं। अब इस फिल्म से जुड़ी आगे की बात करता हूं।

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थोड़ा रुकने के बाद फिल्म 'चौदहवीं का चांद' से जुड़ी एक और अहम बात याद आती है रवि जी को। वे कहते हैं, 'जब 'चौदहवीं का चांद' बन रही थी, तब एक दिन मुझे पता चला कि गुरुदत्त को नींद की गोलियां खाने की आदत पड़ गई है। यह जानकारी मिलने के बाद मैं इस बारे में सोचने लगा। मेरा कुछ समय इस बारे में सोचते हुए भी बीतता था। मेरे साथ इस बात को लेकर एक दुविधा भी थी। मैं गुरुदत्त के बारे में सोचता तो था, लेकिन उनसे इस बारे में बोल नहीं सकता था। वजह साफ थी कि उनकी ख्याति बहुत ऊंची थी और मैं अपनी औकात जानता था। मैं एक संगीतकार था, जिसकी कला ही पूंजी होती है, लेकिन वह संगीत तभी देगा, जब कोई निर्माता उसे काम करने के लिए देगा। तो वे निर्माता थे और वह भी कमाल के निर्माता, तो मैं एकदम से इस बारे में उनसे बात नहीं कर सकता था। क्या पता, वे क्या समझ लें और उसका असर जाने क्या हो? इस तरह ऊहापोह में समय बीतता गया। एक दिन वह भी आया जब फिल्म 'चौदहवीं का चांद' रिलीज हो गई और इसने सिल्वर जुबली मनाया। फिल्म जब रिलीज हुई, तो इसे लोगों ने बेहद पसंद किया। फिल्म तो अच्छी थी ही, इसके संगीत ने भी गुरुदत्त फिल्म्स को असफलता के अंधेरों से उबारा था। इस फिल्म से पहले गुरुदत्त की कई फिल्में 'आर पार', 'मिस्टर ऐंड मिसेज 55', 'प्यासा' और 'कागज के फूल' को असफलता हाथ लगी थी। खासकर 'प्यासा' और 'कागज के फूल' को आज बहुत पसंद किया जाता है, लेकिन तब इसे लोगों ने नहीं पसंद किया था और इस बात ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया था, जबकि इन चारों फिल्मों के गीत आज भी लोग सुनते हैं और तब भी ये खूब सुने गए थे।

हां, तो बात हो रही थी फिल्म 'चौदहवीं का चांद' के सफलता की। बेशक कमाल की इस फिल्म के निर्देशक थे एम सादिक, लेकिन दुनिया इस फिल्म को आज भी गुरुदत्त की ही मानती है और यह सही भी है। इस फिल्म से जुड़ा ऐसा कोई काम नहीं हुआ, जिसमें गुरुदत्त की भूमिका न हो। खैर, यह फिल्म बेहद सफल हुई और वहीदा रहमान और गुरुदत्त की जोड़ी को लोगों ने खूब पसंद किया। फिल्म की सफलता में संगीत ने भी पैराशूट की तरह काम किया। इस सफलता से गुरुदत्त बहुत खुश थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसके पहले इन दोनों की जोड़ी वाली फिल्म 'प्यासा' और 'कागज के फूल' असफल रही थी। इस बात को गुरुदत्त ने माना कि उनकी कंपनी को बचाने में मेरे संगीत ने बड़ी मदद की। फिल्म से जुड़े सभी लोग खुश थे। निर्देशक एम सादिक तो हर जगह यही कहते थे, 'भई जितना काम मेरा या कलाकारों का है, उतना ही काम रवि जी का भी है। फिल्म के गीतों ने समां बांध दिया। जहां जाता हूं, इसी फिल्म के गीत कानों में गूंजते हैं।' मैं भी उनकी बात सुनकर खुश होता था।

फिर फिल्म 'चौदहवीं का चांद' की सफलता की भव्य पार्टी हुई। इसी क्रम में जहां भी फिल्म अच्छा करती, वहां से कलाकारों के उस शहर जाने की बात होती और फिल्म से जुड़े सभी मुख्य लोग वहां जाते थे। इस बुलावे के तहत उस दौरान कई शहरों में जाना हुआ।

एक दिन की बात है। मैं अपना काम करके घर लौटा ही था और हाथ-मुंह धोकर चाय पी रहा था। तभी गुरुदत्त के प्रोडक्शन मैनेजर का फोन आया कि मुझे कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचना है। पूरी यूनिट के लोग जाएंगे। उन्होंने आगे कहा, 'आप सुबह छह बजे एयरपोर्ट पर आ जाइए।' उनकी बातों से मैं समझ गया कि वहां से भी बुलावा आया होगा, तभी ये लोग जा रहे हैं।

अगले दिन मैंने ड्राइवर से अपना सामान कुछ समय पहले भिजवा दिया, फिर थोड़ी देर बाद मैं भी एयरपोर्ट पहुंचा, तो मैंने देखा कि फिल्म से जुडे़ सभी लोग वहां हैं और सब मेरा ही इंतजार कर रहे हैं। वहीं मैंने देखा कि गुरुदत्त सिकुड़न और सिलवट वाला ऐसा कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे, जैसे उसे वर्षो से मटके में रखा गया हो और उसमें से सीधे निकाल कर उन्होंने पहन लिया हो। जब उन्होंने मुझसे बात की, तो बात करते समय उनकी जबान भी लड़खड़ा रही थी। उनकी हालत देखकर मैं थोड़ा अलग हो गया। फिर मैंने उनके मैनेजर को भी उधर बुलाया और उससे इस बारे में पूछा, 'क्या अब ये सुबह-सुबह ही पीने लगे हैं?' उसने बताया, 'नहीं साहब, इन्होंने पी नहीं है, ये जो गोलियां खाते हैं न, यह उसी का असर है। पता नहीं यह बुरी लत इन्हें कैसे लग गई?'

खैर, हम लोग कलकत्ता पहुंच गए। वहां कुछ देर बाद हमें पता चला कि शाम को उस सिनेमाघर में भी जाना है, जिसमें फिल्म 'चौदहवीं का चांद' रिलीज हुई है और वहीं कार्यक्रम भी है। तब सभी लोगों के बीच यही चर्चा हो रही थी कि गुरुदत्त को वहां कैसे ले जाएंगे? उनकी तो हालत खराब है। जब शाम हुआ और वहां जाने की बात हुई तो फिर जैसे-तैसे उनके करीबी नौकर ने उन्हें शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा पहनाया। स्टेज पर हम सब गए। रहमान, जॉनी वाकर, शकील बदायूंनी साहब और मैंने स्टेज पर आकर जो बन सका, फिल्म के बारे में और इससे जुड़ी तमाम कहानियां लोगों को सुनाई और जो भी बन पड़ा, बोला..। लोग सभी की बातों को आनंद से सुन रहे थे और खुश थे, लेकिन कुछ ही समय बाद पब्लिक की ओर से आवाजें आने लगीं, 'वी वांट गुरुदत्त, वी वांट गुरुदत्त..।' फिर देखते ही देखते पूरी भीड़ से यही आवाज आने लगी।

अब क्या किया जाए? किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लोगों की आवाज सुनने के बाद तो स्टेज पर खड़े हम यूनिट के लोगों की हालत खराब होने लगी। उधर गुरुदत्त की हालत एकदम खराब थी, वे इस हालत में नहीं थे कि लोगों के सामने आएं और दो शब्द कह सकें। फिर किसी तरह उन्हें माइक के सामने लाया गया। वे लोगों के जरिए माइक के सामने आए तो, लेकिन उनसे बिल्कुल भी बोला नहीं जा रहा था। वे मुश्किल से कुछ शब्द बोल पाए, लेकिन लोगों को उनकी बात पसंद नहीं आई। लोग उनकी बातें सुनकर और उनकी हालत देखकर हैरान-परेशान थे। सभी के मन में एक ही बात चल रही थी कि इतनी बेहतरीन फिल्में बनाने वाले गुरुदत्त कैसे इंसान हैं?

क्रमश:

इस अंक के सहयोगी : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित कर्ण, दुर्गेश सिंह, दिल्ली से रतन, स्मिता, पंजाब से वंदना वालिया बाली, पटना से संजीव कुमार आलोक

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