राजस्थान में जाट सियासत किस करवट बैठेगी
राजस्थान में जाट सियासत किस करवट बैठेगी इसे लेकर अटकलें तेज हो गई है।
जयपुर, नरेन्द्र शर्मा। राजस्थान में जाट सियासत किस करवट बैठेगी इसे लेकर अटकलें तेज हो गई हैं। कभी कांग्रेस का पारंपरिक वोट बैंक रहा जाट समाज पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गया। लेकिन जाट समाज का अब कोई प्रभावी नेतृत्व कांग्रेस-भाजपा दोनों में ही नहीं है, क्योंकि अशोक गहलोत-वसुंधरा राजे के दो ध्रुवीय राजनीति में जाटों की सियासत पीछे छूट गई।
प्रदेश की राजनीति में जाटों का हमेशा महत्व रहा
राजस्थान की राजनीति में हमेशा से जाट सियासत का बड़ा महत्व रहा है। लेकिन अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के सियासी संघर्ष के चलते जाट राजनीति में सियासी शून्य कायम हो गया। 7 जिलों की करीब 50 विधानसभा सीटों पर खासा प्रभाव होने के बावजूद इस समाज को उतना महत्व नहीं मिला, जितने की इन्हें उम्मीद थी। साल 1998 के चुनाव में दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा के पीसीसी अध्यक्ष होने के नाते उन्हें सीएम फेस मानकर जाट समाज ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर मतदान किया।
कांग्रेस को 200 में से 153 सीटें मिली। जाट समाज यह मानकर चल रहा था कि राज्य में पहली बार जाट मुख्यमंत्री बनेगा और वे परसराम मदेरणा होंगे। लेकिन, जोड़तोड़ की राजनीति में माहिर अशोक गहलोत ने मदेरणा को पीछे छोड़ सीएम की कुर्सी हासिल कर ली। उसके बाद जाट समाज ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और फिर साल 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को समर्थन दिया। उस समय वसुंधरा राजे ने राजपूत की बेटी, जाट की बहू और गुर्जर की समधन का वास्ता देकर वोट मांगे। तत्कालीन वसुंधरा सरकार में जाट समाज को काफी महत्व भी मिला । लेकिन पिछले एक दशक से जाट समाज कांग्रेस और भाजपा दोनों से खुश नहीं है।
जाट राजनीति के शून्य को भरने का प्रयास
राजनीतिक रूप से जागरूक और ताकतवर कौम होने के चलते भी इस समुदाय को वो महत्व नहीं मिला, जिसकी वे उम्मीद लगाए बैठे थे। अब जाट राजनीति में आए इस शून्य को भरने के लिए कांग्रेस विधायक दल के नेता रामेश्वर डूडी और निर्दलीय विधायक हनुमान बेनिवाल ने पूरी बिरादरी को इकट्ठा करने की कवायद शुरू की है। डूडी जहां कांग्रेस में अधिक से अधिक जाट नेताओं को टिकट दिलाकर खुद सीएम की दावेदारी के सपने देख रहे हैं। वहीं बेनीवाल जाट समाज को नया मंच देने में जुटे हैं।
प्रदेश में जाट समाज को राजनीतिक और सामाजिक पहचान दिलाने में स्व. बलदेव राम मिर्धा को बड़ा श्रेय जाता है। इन्ही के परिवार के स्व. नाथूराम मिर्धा और स्व. रामनिवास मिर्धा ने भी समाज की पहचान कायम रखी । मिर्धा परिवार के अलावा स्व.परमराम मदेरणा, विश्वेन्द्र सिंह और शीशराम ओला कांग्रेस के बड़े नेता रहे, जिन्होंने केंद्र से लेकर राज्य में अहम भूमिका निभाई।
लेकिन पहले अशोक गहलोत और फिर वसुंधरा राजे के प्रदेश की राजनीति में उतरते ही चाहे जाट हो या राजपूत या ब्राह्मण इन प्रभावशाली जातियों के राजनीतिक वजूद को नियंत्रित कर दिया। बहरहाल अब देखना होगा कि दशकों से कायम सियासी शून्य को खत्म करने के लिए हनुमान बेनीवाल की अपील पर जाट सियासत का ऊंट किस करवट बैठता है।