महाराष्ट्र चुनाव: थके हुए चेले और स्मार्ट गुरू की कहानी, कांग्रेस की हताशा का परिचय तो नहीं
Maharashtra Assembly Election 2019 21 अक्टूबर को होने वाले मतदान के मद्देनजर राज्य में राजनीति सरगर्मियां जोरों पर हैं। ऐसे में शिंदे के बयान के कई मायने निकाले जा रहे।
मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। पहले कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का यह कहना कि हमारे तो नेता ही हमें छोड़कर चले गए और फिर सुशील कुमार शिंदे का कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस को थकी हुई पार्टी बताकर आपस में विलय का सुझाव देना कांग्रेस की अति हताश स्थिति का परिचय देने के लिए काफी हैं। दूसरी ओर शिंदे के इस बयान के बाद कांग्रेस के युवा नेता यह सवाल कर रहे हैं कि आखिर हमें थकाने वाले लोग कौन हैं? सुशील कुमार शिंदे का यह बयान उस समय आया है, जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव का प्रचार अभियान जोरों पर है और पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरे जाने की जरूरत है।
शिंदे ने राकांपा अध्यक्ष शरद पवार को अपनी ही उम्र का बताते हुए कहा कि हम दोनों की तरह कई और नेता भी बुजुर्ग हो चले हैं। इसलिए हमारी पार्टियां थकी हुई महसूस कर रही हैं। अब इन दोनों पार्टियों का आपस में विलय हो जाना चाहिए। संभव है शिंदे ने यह बात पार्टी के हित में अच्छी भावना से कही हो, क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र में पार्टी का शिखरकाल भी देखा है और अब बुरा वक्त भी देख रहे हैं। पार्टी की यह स्थिति उन्हें कचोटती होगी। पार्टी को इस बुरे वक्त से निजात दिलाने के लिए उनके मन में यह विचार आया होगा कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस एक होकर भाजपा-शिवसेना का मुकाबला और बेहतर तरीके से कर सकते हैं।
पवार की प्रेरणा से राजनीति में आए शिंदे
शिंदे ने महाराष्ट्र में पवार का नेतृत्व देखा है। वास्तव में पुलिस सेवा से जुड़े रहे सुशील कुमार शिंदे को राजनीति में आने की प्रेरणा देने वाले शरद पवार ही थे। उन दिनों शिंदे मुंबई की लोकल इंटेलिजेंस यूनिट में सब इंस्पेक्टर थे और राजनीति जगत की सूचनाएं जुटाने के लिए प्रदेश कांग्रेस कार्यालय तिलक भवन जाना पड़ता था। वहीं उनकी मुलाकात तब के युवा विधायक शरद पवार से हुई। उन्हीं की प्रेरणा से शिंदे ने राजनीति में कदम रखा और विधायक चुने गए।
शरद पवार ने किया पहला पलटवार
शिंदे की सोच इस मामले में सही हो सकती है कि इस समय कांग्रेस में (महाराष्ट्र और दिल्ली दोनों जगह) उन्हें शरद पवार जैसा सूझ-बूझ वाला नेता दूसरा दिखाई नहीं दे रहा होगा। हो सकता है, वह यह भी सोच रहे हों कि जब राहुल के रणछोड़दास साबित होने के बाद पुन: सोनिया गांधी कांग्रेस की कमान संभाल सकती हैं, तो अपेक्षाकृत अधिक अनुभव वाले उनके पुराने मित्र शरद पवार में क्या कमी है? संभव है, उन्हें पवार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का तारनहार दिखाई दे रहा हो! लेकिन उनकी इन भावनाओं को समझे बिना फिलहाल तो उनकी आलोचना शुरू हो गई है। वह भी सबसे पहले शरद पवार ने ही उनकी बात काटते हुए बयान दे दिया कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का प्रमुख मैं हूं। मैं अपनी पार्टी की स्थिति शिंदे से ज्यादा बेहतर जानता हूं। हमारी पार्टी पूरी तरह ऊर्जावान है और हम चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। शिंदे अपनी पार्टी पर ध्यान दें।
नई नहीं है कांग्रेस-राकांपा विलय की बात
दरअसल कांग्रेस-राकांपा के विलय की बात शिंदे के मुंह से पहली बार नहीं उठी है। पहले भी कई बार दोनों दलों के विलय की बात उठ चुकी है। लगभग छह माह पहले जब राकांपा प्रमुख सोनिया गांधी से मिलने गए थे, तब भी यह बात उठी थी। पवार ने तब भी इसका खंडन ही किया था। संभवत: शिंदे ने दोनों दलों का हित सोचते हुए खुले दिल से यह बात कही हो। लेकिन राकांपा अध्यक्ष राजनीति में शिंदे के गुरु तो हैं ही, वह शुरू से राजनीति के शातिर खिलाड़ी रहे हैं। उनकी नजर में हमेशा अपना, अपने परिवार और अपने समूह का हित सवरेपरि रहा है। यही कारण है कि वह अब तक कई बार कांग्रेस छोड़कर पुन: उसी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।
बिखर गई अमर-अकबर-एंथोनी की जोड़ी
शरद पवार को जब अवसर मिला, वह एक राष्ट्रीय पार्ट के राष्ट्रीय खिलाड़ी बन गए। जब वहां नहीं पटी तो क्षेत्रीय दल के छत्रप बन गए। इसी रणनीति के तहत उन्होंने 1999 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया और तबसे लगातार उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी स्वयं ही बने हुए हैं। तब उनका साथ देने वाले तारिक अनवर और पीए संगमा को भले ही तब अमर-अकबर-एंथोनी की तिकड़ी माना गया हो, लेकिन वे कभी इस पार्टी के शीर्ष पद पर नहीं पहुंच पाए। अब संगमा रहे नहीं, और तारिक अनवर कांग्रेस में वापस जा चुके हैं।
पवार के लिए सत्ता सर्वोपरि!
जानकार मानते हैं कि पवार के लिए सत्ता महत्वपूर्ण है, वो चाहे किसी भी रूप में मिले। यही कारण है कि 1999 में पवार जिस कांग्रेस से अलग हुए, मौका मिलते ही उसी कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य की सत्ता हासिल करने में उन्होंने जरा भी गुरेज नहीं किया। इसी तरह 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जब भाजपा सत्ता से 23 सीट पीछे, यानी 122 सीट पर सिमट कर रह गई और शिवसेना उसके साथ जाने को तैयार नहीं थी, तो पवार ने अपने 40 विधायकों का समर्थन देकर देवेंद्र फड़नवीस की सरकार कई महीनों तक टिकाए रखी। इसमें बहाना तो राज्य को स्थिर सरकार देने का था, लेकिन लालसा मौका मिलने पर सत्ता में बने रहने की भी थी। आगे भी पवार का फायदा कांग्रेस जैसे बड़े राष्ट्रीय दल में शामिल होने में नहीं, बल्कि एक छोटे दल के रूप में मजबूती हासिल करने की है। ताकि अवसर मिलने पर जोड़तोड़ करके राज्य की सत्ता में वापसी की जा सके।