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मप्र में चेहरों की अपनी चमक, जनता के आइने में दिखेगी असलियत

मप्र में विधानसभा चुनाव कार्यक्रमों के एलान के साथ सियासी योद्धा रणभूमि में उतर आए हैं। बगैर किसी लहर और मुद्दे के हो रहे इस चुनाव में व्यक्तित्व और चेहरा ही चयन का मुख्य आधार होगा।

By Prateek KumarEdited By: Published: Sun, 07 Oct 2018 10:26 PM (IST)Updated: Sun, 07 Oct 2018 10:29 PM (IST)
मप्र में चेहरों की अपनी चमक, जनता के आइने में दिखेगी असलियत
मप्र में चेहरों की अपनी चमक, जनता के आइने में दिखेगी असलियत

ऋषि पाण्डे : भोपाल। मप्र में विधानसभा चुनाव कार्यक्रमों के एलान के साथ सियासी योद्धा रणभूमि में उतर आए हैं। बगैर किसी लहर और मुद्दे के हो रहे इस चुनाव में व्यक्तित्व और चेहरा ही चयन का मुख्य आधार होगा। चेहरे के मसले पर कांग्रेस में गफलत की स्थिति है जो अब बहुमत आने के बाद ही साफ हो पाएगी, जबकि भाजपा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पार्टी द्वारा घोषित चेहरा हैं। यूं तो कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को  कांग्रेस का चेहरा माना जा रहा है, लेकिन ताज किसके सिर पर रखा जाना है यह सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही जानते हैं।

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कांग्रेस ने इस कारण किया सपा और बसपा से किनारा
मप्र में लंबे समय से दो दलीय व्यवस्था रही है। 1990 में दो सीटों पर जीत के साथ बसपा का प्रदेश की राजनीति में प्रवेश हुआ। 1996 में दो लोकसभा और 1998 के विधानसभा चुनाव में 11 सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद ऐसा लगने लगा था कि बसपा तीसरी ताकत के रूप में उभर रही है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। प्रदेश में बसपा का वोट बैंक तो स्थायी रहा, लेकिन सीट घटती-बढ़ती रही। लगभग तीन दर्जन सीटों पर 20 फीसदी वोट लाने के बावजूद बसपा सीटों के मामले में कंगाल ही रही। भोपाल से दिल्ली तक के कांग्रेस नेता मानकर चल रहे हैं कि 'अभी नहीं तो कभी नहीं।' बसपा और सपा के कांग्रेस से गठबंधन से इन्कार के बाद साफ हो गया है कि कांग्रेस को अपने दम पर भाजपा से मुकाबला करना है, तब उन चेहरों पर निगाह डालना अपरिहार्य हो जाता है जो इस चुनाव के केंद्र में हैं।

भाजपा के चेहरे

शिवराज सिंह चौहान
कहा जा सकता है कि भाजपा की नैया के शिवराज अकेले खेवैया हैं, जो 14 सालों से लगातार मुख्यमंत्री हैं। लोगों से सीधा संवाद और रिश्ता कायम करने में उनकी महारत है। 14 साल में उन्होंने योजनाओं की झड़ी लगा दी। मेहनत के मामले में समकालीन नेताओं में सबसे भारी शिवराज पिछले दो माह से रात तीन बजे तक जन आशीर्वाद यात्रा के जरिए प्रदेशभर में घूमे हैं। राहुल गांधी उन्हें घोषणा मशीन कहते हैं। कांग्रेस के पास उनकी सरकार के खिलाफ कई मामले हैं, जिन्हें वह ठीक से भुना नहीं पाई। भाजपा में शिवराज के बाद सेकंड लाइन खड़ी नहीं हो पाई। संगठन पूरी तरह सरकार की शरण में रहा।

नरेंद्र सिंह तोमर
मोदी सरकार में ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को शिवराज का विकल्प माना जाता है। तोल-मोल के बोलने में सिद्घहस्त तोमर को संगठन का खासा अनुभव है। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में वे प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। कार्यकर्ताओं में स्वीकार्यता होने के बावजूद वे पूरे प्रदेश में अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित नहीं कर पाए।

राकेश सिंह
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह महाकोशल क्षेत्र से आते हैं। वे जबलपुर से सांसद हैं। उन्हें अमित शाह का करीबी माना जाता है। सिंह को अध्यक्ष बने इतना कम समय हुआ है कि उनकी पहचान को लेकर बहस करना ही बेमानी है।

कांग्रेस के चेहरे

कमलनाथ
इनकी पहचान अपने शानदार मैनेजमेंट के लिए होती है। हालांकि बसपा और सपा से गठबंधन की विफलता से उनकी यह छवि प्रभावित हुई है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद उनका पूरा जोर संगठन की मजबूती पर रहा, जिसमें वे सफल भी रहे।

ज्योतिरादित्य सिंधिया 
कांग्रेस के युवा चेहरे। आकर्षक व्यक्तित्व के चलते कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय। कांग्रेस ने इस बार उन्हें चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया है। यह जिम्मेदारी उनके पास पिछले चुनाव में भी थी। समर्थकों को लगता है कि यदि पार्टी उन्हें चेहरा घोषित करती तो मुकाबला बहुत नजदीक का रहता।

दिग्विजय सिंह
दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय को पार्टी ने समन्वय का जिम्मा सौंपा है। अब तक वे 45 जिलों का दौरा कर एक लाख से ज्यादा कार्यकर्ताओं से वन-टू-वन चर्चा कर चुके हैं। संगठन पर उनकी गहरी पकड़ है। इसके बावजूद पार्टी उन्हें फ्रंट पर लाने से डरती है। वजह है मुख्यमंत्री रहते विकास को लेकर उनकी जो छवि बनी थी, उससे वे अब तक नहीं उबर पाए हैं।


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