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जब मंच से PM नरेंद्र मोदी ने दोहराईं 'रेणु' के 'मैला आंचल' की पंक्तियां, जानिए

बिहार के फारबिसगंज में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी सभा में आए तो लोगों को लगा कि केवल राजनीतिक बातें होंगी। लेकिन कुछ ही देर बाद नजारा बदल गया। क्या हुआ जानें इस खबर में।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sun, 21 Apr 2019 10:15 AM (IST)Updated: Sun, 21 Apr 2019 12:58 PM (IST)
जब मंच से PM नरेंद्र मोदी ने दोहराईं 'रेणु' के 'मैला आंचल' की पंक्तियां, जानिए
जब मंच से PM नरेंद्र मोदी ने दोहराईं 'रेणु' के 'मैला आंचल' की पंक्तियां, जानिए

पटना [भारतीय बसंत कुमार]। राजनीति के विशाल मंच पर यह थोड़ा सुखद लगता है कि एक दिवंगत लेखक की कृति प्रधानमंत्री के कर कमलों में शोभित होकर उनके उद्गार का हिस्सा बने। कुछ ऐसा ही हुआ बिहार के फारबिसगंज में शनिवार को, जब अमर कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के पुत्र पद्म पराग रेणु ने 'मैला आंचल' की प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपी। 'मैं साधना करूंगा, ग्रामवासिनी भारत माता के आंचल तले'- मोदी ने रेणु की इन पंक्तियों को याद किया और वे सारे संकल्प दोहराए जो राष्ट्र रचना में मजबूत गांव से मजबूत भारत के निर्माण की उनकी संकल्पना है। कभी यही संकल्पना रेणुजी ने की थी।
प्रधानमंत्री ने जिस 'भारत माता ग्रामवासिनी' की चर्चा रेणु के 'मैला आंचल' के संदर्भ में की, वह पूरी इस प्रकार है...
'भारतमाता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आंचल।

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उपन्यास के कथानक के जिस स्थान पर यह प्रसंग है, वहां कथानायक डागडर (डॉक्टर) प्रशांत अपने बुझे हुए मन को मोड़ता है। प्रशांत को ज्ञात नहीं है कि उनकी मां कौन हैं, वंश क्या है, जाति क्या है? चूंकि उन्होंने सुना है कि जिस मां ने जन्म दिया, उसने एक हांडी में रखकर छोड़ दिया था। एक ओर जीवन स्थिति के प्रति कथानायक की निराशा है, दूसरी ओर गांव में पसरी बेचारगी के प्रति कुछ करने की ललक है। डॉक्टर गांव को निरोग रखना चाहते हैं। चूंकि हैजा और मलेरिया से अनगिनत मौत उन्हें कचोटती है। वह गांव को आयुष्मान बनाना चाहते हैं। रेणु के इस उपन्यास के अंत में युगों से सोई हुई ग्राम चेतना तेजी से जाग रही है।
एक युवा जिसे खुद नहीं पता क्या है उसकी जात
एक युवा डॉक्टर प्रशांत इस उपन्यास का बड़ा पात्र है जो खुद नहीं जानता की उसकी जाति क्या है? सामाजिक शोषण, अभाव, वर्गभेद, ग्राम्य जीवन में असाक्षरों की दयनीय स्थिति सबका लेखा-जोखा। पात्रों की विपुलता के बाद भी कथानक का लय बरकरार रहता है। चाहे वह सहदेव मिसिर हो या कि महंगू दास, तहसीलदार हरगौरी और तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद का तो साथ चलता ही रहता है।
चरखा सेंटर की मास्टरनी मंगला देवी हो कि सोशलिस्ट वर्कर बासुदेव। कमला की मां, छलमी, मुसमात सुनरी, फुलिया, सोमा सबके सब बड़े जीवंत हैं। नरेंद्र मोदी रेणु की कृति का सार शब्द सुनाते हैं, जिसके निहितार्थ में आयुष्मान भारत, उज्ज्वला, सबको आवास और शौचालय का निर्माण कराकर स्वस्थ्य-स्वच्छ भारत के निर्माण की संकल्पना साकार करने का भरोसा देते हैं।
'कौमरेड' यानी देश के लिए काम करने वाला
'कालीचरण बोलता है जाय हिन्द कौमरेड (कॉमरेड)। बालदेव कहता है हम कौमरेड नहीं और कालीचरण उसे समझाता है। कौमरेड कोई गाली नहीं है। कौमरेड माने जो भी देश का काम करे। पब्लिक का काम करे, वही कौमरेड। प्रधानमंत्री भी भरोसा देते हैं- वहीं बचेगा जो देश का काम करेगा। देश पर स्वाभिमान करेगा।
एक हिस्‍से के एक गांव को प्रतीक बना लिखा उपन्यास
'मैला आंचल' की भूमिका लिखते हुए फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कथा भूमि की चौहद्दी बता दी थी। कथानक पूर्णिया जिला है, जिसके एक ओर नेपाल है, दूसरी ओर पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा रेखाओं में इसकी बुनावट मुकम्मल बनाते हुए स्वयं बताया है कि मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गांव को प्रतीक बनाकर इस उपन्यास कथा का क्षेत्र बनाया है।
उपन्यास की शुरुआत चेथरू की गिरफ्फ (गिरफ्तारी) से होती है। एक अंग्रेज अफसर डब्लूजी मार्टिन की दुलहिन की मलेरिया से मौत के साथ आगे बढ़ती है। इस मौत से आहत मार्टिन कैसे मलेरिया के रोगियों के लिए सेंटर का निर्माण कराते हैं, उस दौर से गुजरते हुए अनेक-अनेक घटना-परिघटना को समेटते यह उपन्यास गांधीवादी आंदोलन को सुलगाता हुआ मजबूत सुराज की नींव डालता है।
रागानुराग के अवरोह-आरोह से उनका कथानक तटस्थ रहता है। देश निर्माण की, बिहार के गांवों की बहुत चिंता उन्हें थी। मृत्यु से कुछ दिन पहले रघुवीर सहाय की मुलाकात रेणुजी से हुई थी। तब उन्होंने सहायजी से कहा था- 'लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी जीतकर आ गई तो हमलोगों को और अधिक काम करना पड़ेगा। अन्याय के प्रति सतत असहमति का और समाजवाद के विचार के विकास का काम आज के आपातकाल से भी तब अधिक आवश्यक हो जाएगा।
रेणु ने किया साहित्य और देश की राजनीति का अनुभव
रेणु का खुद का जीवन कम संघर्षमय नहीं रहा। वे चुनाव भी लड़े और साहित्य की राजनीति और देश की राजनीति दोनों का कड़वा अनुभव किया। जिस जगह प्रधानमंत्री रेणु को याद कर रहे थे, कभी वहीं रेणु को चुनाव में हार मिली थी। हिंदी आलोचकों ने रेणु की शैली को आंचलिक कहकर अपने को नागर जताने का खूब प्रयास किया। समर्थन में खड़े हुए तो निर्मल वर्मा जैसे लोग। जिन्होंने रेणु के बारे में लिखा-'हर संत व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि में कवि और हर कवि अपने सृजनात्मक कर्म में संत होता है।
रेणु जी का समूचा लेखन इस रिश्ते की पहचान है, इस पहचान की गवाही है और यह गवाही वह सिर्फ अपने लेखन में ही नहीं, जिंदगी के नैतिक फैसलों, न्याय और अन्याय, सत्ता और स्वतंत्रता की संघर्ष भूमि में भी देते हैं। रेणु जी की इस पहचान में सौंदर्य की नैतिकता उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी नैतिक अंतर्दृष्टि की संवदेना। दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर 'मैला आंचल' है तो दूसरे छोर पर है जयप्रकाश जी की संपूर्ण क्रांति।
कलात्मक विजन और क्रांति दोनों की पवित्रता और उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, संपूर्णता की मांग करती है। यह आकस्मिक नहीं था कि रेणु जी की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक संदेह की दृष्टि से देखते थे-कैसा है यह लेखक जो गरीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत इतना आनंदा छक सकता है।
आलोचकों का मैला आंचल
सूखी परती जीवन के उदास मरुस्थल में सुरों, रंगों और गंधों की रासलीला देख सकता है। रेणु एथीस्ट नहीं थे। किंतु वह हाय-हाय करते, छाती पीटते प्रगतिशील लोगों के आडंबर से बहुत दूर थे। इसलिए रघुवीर सहाय ने उन लोगों पर सवाल खड़े किये थे, जिन्होंने रेणु को आंचलिक उपन्यासकार कहकर अपने को नागर जताने का प्रयत्न किया था। निर्मल वर्मा ने तो साफ कर दिया था कि माक्र्सवादी आलोचक जिन्हें सबसे पहले रेणु जी के महत्व को पहचानना था, अपने थोथे नारों में इतना आत्मलिप्त हो गए कि जनवादिता की दुहाई देते हुए सीधे अपनी नाक के नीचे जीवंत जनवादी लेखक की अवहेलना करते रहे। यह था पूर्वाग्रह से युक्त आलोचकों का 'मैला आंचल'।
एक कहानी : नक्षत्र मालाकार और यायावर अज्ञेय के साथ की
नक्षत्र मालाकार की कहानी खुद रेणु जी ने अपनी रचनाओं में सुनाई है। नक्षत्र मालाकार 1942 की क्रांति का वीर योद्धा था। जब अकाल पड़ी तो सेठ-साहूकार और जमींदारों ने अनाज छिपा लिए। यह समय था आजादी के तुरंत बाद का। 1949 का। नक्षत्र ने बगावत की थी और भूखे लोगों की फौज बनाकर वह अनाज लूट लेता था। उस पर इनाम घोषित हो गया। एक हिंदी साप्ताहिक 'जनता' में रेणु जी ने बिहार के अकाल पर रिपोर्ट लिखी थी। इसमें उन्होंने इस बात की आलोचना की थी कि नक्षत्र अपने विरोधियों की नाक-कान काट लेता है। इस लेख के छपने के कुछ दिनों बाद नक्षत्र का संवाद रेणु को मिला था- 'जिस नाक-कान पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाकर लिखते-पढ़ते हो उसको काटने के लिए जब रात में पहुंचा तब तुम लिख रहे थे। उस समय तुम्हारा चेहरा फूल सा लगा। तुम जो मन में आए लिखो, गालियां दो मगर एक बार भूखे लोगों के गांवों में आकर देखो।  सात दिन के भूखे बच्चों के चेहरे पर अनाज मिलने के बाद की हंसी देखकर जेल-फांसी-नरक सब भूल जाओगे।
जब बिहार का हाल देखने आए अज्ञेय

1966 में बिहार के बड़े हिस्से में फिर सूखा पड़ा। दिल्ली तक हायतौबा मची। तब बिहार का हाल अपनी आंखों से देखने के लिए यायावर अज्ञेय जी आए थे। आने से पूर्व उन्होंने रेणु को टेलीग्राम किया था। जगह-जगह अकाल की साया में जी रहे लोगों का हाल देख कलेजा मुंह को आ गया था। इस समय भूख से बिलबिलाते एक बच्चे का जिक्र रेणु ने किया है। नवादा के सोखोदउरा आश्रम में रेणु और अज्ञेय को अमरूद भेंट किया गया था। एक मुसहर के बच्चे को हाथ में अमरूद लेकर जब अज्ञेय जी ने बुलाया तो पहले तो वह झिझका, लेकिन फिर हुलसता हुआ दौड़ पड़ा।
सूखे-मुरझाए चेहरे पर एकाएक आनंद की आभा देखकर लगा कोई अलौकिक दृश्य सामने हो। रेणु और अज्ञेय जीवन पर्यंत भूख से मुरझाए चेहरे पर एक मामूली फल के पाने से पैदा हुए आनंद की लहर को भूल न सके। तब रेणु को नक्षत्र मालाकार और उसकी बात याद आई। भूख के आगे फांसी-नरक- सजा सब बेईमानी। ऐसे थे रेणु। ऐसा था उनका जीवन और ऐसा था अपना देस। हम सबको इसी 'देस' को बुनना है नया बनाना है। यही निहितार्थ है राजनीतिक समर में रेणु के 'मैला आंचल' का।


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