आपकी अंगुली पर लगी स्याही से ही मिलती है देश को मजबूती, जाना ना भूलें
याद रखिए आने वाला आम चुनाव लोकसभा का राष्ट्रीय चुनाव है। इसलिए उम्मीदवारों को राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
[गुरुचरण दास]। अच्छा, एक बात बताओ। पांचवीं कक्षा के इम्तिहान में दसवीं के पेपर आ जाएं तो परीक्षार्थी क्या करेंगे या फिर दसवीं कक्षा की परीक्षा में पांचवीं के सवाल पूछे जाएं तो क्या स्थिति होगी। 17वीं लोकसभा के सदस्यों के चुनाव का पर्व देश भर में धूमधाम से मनाया जा रहा है, लेकिन इस सबके बीच चुनाव विश्लेषकों से लेकर राजनेताओं और मतदाताओं सहित समाज के हर तबके को एक सवाल मथ रहा है कि देश का राष्ट्रीय चुनाव सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों पर ही लड़ा जाना चाहिए।
दरअसल पिछले कुछ दशक से देश के केंद्रीय चुनाव के ‘राष्ट्रीय’ चरित्र की रंगत फीकी पड़ती जा रही है। राष्ट्रीय दलों की वोट हिस्सेदारी कम हो रही है तो क्षेत्रीय दलों की पकड़ मजबूत हो रही है। इस बीच क्षेत्रीय दलों के आचार, विचार, व्यवहार और निष्ठा में दिखे अवसरवादिता ने लोकतंत्र को कमजोर करने का ही काम किया है। अपने हितों के लिए केंद्र की सरकार को पंगु और अस्थायी बनाना इन दलों का प्रमुख शौक रहा है।
केंद्र की सरकार के स्थायित्व से देश के समग्र विकास के साथ जन कल्याण, विदेश नीति जैसे तमाम राष्ट्रीय मसलों का सीधा और गहरा नाता है। यह चुनाव एक मौका है। मतदाता को राष्ट्र हित में ऐसे लोगों का चुनाव करना चाहिए जो राष्ट्रीय मुद्दों पर समग्रता में विचार रखते हों, स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हों। आखिर जब हम पंचायत जैसे नितांत स्थानीय चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर वोट करते हैं, राष्ट्रीय मुद्दे मतदाता की प्राथमिकता में नहीं होते तो राष्ट्रीय-केंद्रीय संसद के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट क्यों नहीं और स्थानीय मुद्दों को तरजीह क्यों मिले? ऐसे में 2014 के केंद्रीय-राष्ट्रीय संसद के चुनाव के दौरान राष्ट्रीय मसलों पर वोट किए जाने के प्रति मतदाताओं के बीच जागरूकता फैलाना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
2019 का मुख्य मुकाबला भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के बीच है। ऐसे में किसी अन्य पार्टी के लिए मतदान करना वोट को बर्बाद करने के बराबर है। इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि राष्ट्र को और अधिक समृद्ध कैसे बनाया जाए। इसके लिए निवेश, उच्च विकास और नौकरियों की आवश्यकता होती है। इनमें रोजगार महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत के पास विशिष्ट युवा आबादी वाले जनसांख्यिकीय लाभांश का सीमित अवसर है। अगर कामकाजी उम्र के लोगों को उत्पादक नौकरियों में नियोजित किया जाए तो यह राष्ट्र की जीडीपी में किसी बोनस सरीखा होता है। यह अवसर कुछ ही वर्षों में गायब हो जाएगा। क्योंकि भारत में भी चीन और अन्य देशों की तरह उम्रदराज लोगों की संख्या बढ़ने लगेगी। यदि भारत पर्याप्त नौकरियां पैदा करने में विफल रहता है तो यह एक और पीढ़ी खो देगा। यह दुखद है कि लाइसेंस राज की समाजवादी नीतियों के कारण हमारा देश 1950 से 1990 तक दो पीढ़ियों को खो चुका है। इसलिए मतदाता के रूप में हमें उस उम्मीदवार को वोट देना चाहिए, जो अधिकतम संख्या में नौकरियां लाने में सक्षम होगा।
मुझे दुख होता है कि चुनाव अभियान में बयानबाजी विकास की आकांक्षाओं से दूर हो चली है, जिसने देश को इतनी उम्मीद दी, और 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी को जिताया। आज हम केवल थके हुए पुराने गरीबी हटाओ जैसे लोकलुभावन नारों को सुन रहे हैं। मैं भाजपा से निराश हूं, जिसने विकास की बात करनी बंद कर दी है। भले ही अच्छे दिन और नौकरियां नहीं आई हैं, लेकिन मोदी को उन युवा आकांक्षी लोगों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जो उन्हें सत्ता में लाए थे। उन्हें यह समझाना होगा कि नौकरियां आने में समय लगता है। मैं कांग्रेस से और भी ज्यादा निराश हूं। मुझे लगता है कि राहुल गांधी की न्याय योजना एक विनाशकारी विचार है। 20 फीसद सबसे गरीब परिवारों को प्रति वर्ष 72,000 रुपये देना भारतीय इतिहास में सबसे गैर-जिम्मेदार लोकलुभावन चुनावी वादा है और यह देश को बर्बाद करने की गारंटी है।
सरकार के पास गरीबी के आंकड़े ही नहीं हैं क्योकि भारत में आय को लेकर कोई सर्वे ही नहीं हुआ है। यह लोगों को उनकी आय के बारे में झूठ बोलने के लिए प्रेरित करेगा या झूठे आय प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए सरपंचों और अन्य अधिकारियों को रिश्वत देने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। योजना का लाभ पाने के लिए लोग अपनी वास्तविक आय को छिपाएंगे। ऐसे में सबसे बड़ा झूठ बोलने वाला ही सबसे अधिक लाभान्वित होगा। कल्पना कीजिए कि इंफ्रास्ट्रक्चर में 3.60 लाख करोड़ रुपये का निवेश करके हम कितना अच्छा काम कर सकते हैं, जिसके कारण नौकरियों में वृद्धि होगी। यहां तक कि गरीब भी अपना स्वाभिमान चाहते हैं। यह स्वाभिमान किसी उत्पादक काम करके ही आती है न कि खैरात लेने से।
अच्छे दिन न आने के बावजूद मोदी ने नौकरी सृजन के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। बैंक्रप्सी कानून, जीएसटी और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर जैसे कदम भारत को अच्छा करने में सहायक हैं। नोटबंदी खतरनाक कदम रहा लेकिन बहुप्रतीक्षित जीएसटी भारत के लिए गेम चेंजर हैं। बैंक्रप्सी कानून यह सुनिश्चित करेगा कि भविष्य में संपत्तियों को अधिक उत्पादकता में इस्तेमाल किया जाए। करोड़ों भारतीयों के बैंक खाते हैं, मोबाइल बैंकिंग तेजी से बढ़ रही है। जिससे सरकार की रिसाव वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे नकदी हस्तांतरण में बदलना संभव हो गया है। भ्रष्टाचार को कम करने के लिए नागरिक और राज्य के बीच लेनदेन ऑनलाइन हो रहा है, और विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में भारत का स्थान 30 पायदान ऊपर चढ़ गया है।
2019 के लोकसभा चुनावों में तमाम उम्मीदवारों के बीच, मोदी रोजगार सृजन के लिए कहीं अधिक काम करेंगे, हालांकि उनको लेकर भी सियासी आरोपों की लंबी फेहरिस्त है। इस सरकार में सामाजिक समरसता को ज्यादा चोट पहुंचने के आरोप लगते रहे हैं। देश की उस विचारधारा में बदलाव आने की बात कही जाने लगी है जिसे अब तक हम सब प्यार करते रहे हैं। अल्पसंख्यकों की असुरक्षा भी बड़ा मसला है। मतदाता के रूप में हममें से प्रत्येक को अपने लिए निर्णय लेना चाहिए। मतपेटी के मूल्यों में हमेशा एक व्यापार बंद होता है और हमें धर्मनिरपेक्षता या जनसांख्यिकीय लाभांश के बीच किसी एक का चयन करना है।
विचारधारा का संकट
जनका विरोध करते हुए क्षेत्रीय पार्टियां खड़ी होती हैं, अक्सर मौकापरस्ती साधते हुए वे उससे ही गलबहियां कर लेती है। एक, दो नहीं नजीरों की पूरी फेहरिस्त है। जम्मू कश्मीर से शुरू कीजिए तो यह समीकरण तमिलनाडु तक बड़ी सहजता से लागू होता जाता है। जम्मू कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टी नेशनल कांफ्रेंस कभी केंद्र में कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा बनती है तो कभी भाजपा का दामन थामती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सहित तमाम प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों की यही फितरत रही है। इससे कहीं न कहीं जनमानस में इनके विचारधारा के अभाव और सत्ता की भूख का संदेश जाता है।
‘लोकतंत्र चल नहीं रहा है’ यह सुन-सुनकर मैं थक चुका हूं। सचमुच यह नहीं चलता है। हमें इसे चलाना पड़ता है।
-अलेक्जेंडर वूलकॉट (अमेरिकी लेखक और समीक्षक)
सत्ता का सुख
अजीत सिंह (रालोदप्रमुख): 1991 में नरसिंह राव सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। 1999 में वाजपेयी सरकार में भी मंत्री रहे। 2012 में मनमोहन सरकार में भी शामिल रहे।
फारुख अब्दुल्ला (नेशनल कांफ्रेंस): 1999 में भाजपा नेतृत्व वाले राजग में मंत्री रहे। 2009 में कांग्रेस के संप्रग का भी हिस्सा रहे।
ममता बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस): 1999 में राजग की हिस्सा रहीं। 2009 में संप्रग से जुड़ीं।
शिबू सोरेन (झामुमो): 1991 में राव सरकार का हिस्सा फिर 1999 में वाजपेयी सरकार में शामिल। संप्रग से भी नाता बरकरार रहा।
करुणानिधि (द्रमुक): 1999 में राजग के सहयोगी फिर 2004 और 2009 में संप्रग का दामन थामा।
राम विलास पासवान (लोजप): राजनीतिक गलियारे में इस खास गुण के चलते इनके कई उपनाम तक रखे जा चुके हैं। 1999 में राजग सरकार में रहे फिर सरकार बदली तो इन्होंने भी पाला बदलते हुए संप्रग का दामन थामा। फिर केंद्रीय स्तर पर सरकार बदली और फिर इनकी निष्ठा बदली।
[पूर्व सीईओ, प्रॉक्टर एंड गैंबल]