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चुनावी चौपाल : कारोबार बिचाैलियों के हवाले, बुनकरों को रोटी के लाले

जैदपुर में हुई जागरण की चौपाल में छलका बुनकरों का दर्द। एक जिला-एक उत्पाद योजना में जिले के बने स्टोल चयनित होने के बावजूद नहीं सुधरी माली हालात।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Fri, 19 Apr 2019 04:15 PM (IST)Updated: Fri, 19 Apr 2019 04:15 PM (IST)
चुनावी चौपाल : कारोबार बिचाैलियों के हवाले, बुनकरों को रोटी के लाले
चुनावी चौपाल : कारोबार बिचाैलियों के हवाले, बुनकरों को रोटी के लाले

बाराबंकी, जेएनएन।  जिले के बुनकरों के हाथों से बने स्टोल की मांग देश ही नहीं विदेशों में है। एक दिन में पांच लाख से ज्यादा स्टोल तैयार होकर बाहर भेजे जाते हैं। इससे विदेशी मुद्रा भी मिलती लेकिन विडंबना की स्टोल तैयार करने वाले बुनकरों को फिर भी दो वक्त की रोटी के लाले हैं। पूरे हथकरघा उद्योग पर बड़े कारोबारियों व बिचौलियों का कब्जा इस कदर हो गया है कि बुनकर खुलकर बोलने में भी कतराते हैं। बुधवार को ‘बुनकरों के भविष्य का नहीं बुना गया धागा’ मुद्दे को लेकर बुनकर बहुल नगर पंचायत जैदपुर में दैनिक जागरण की हुई चुनावी चौपाल में सकुचाते हुए ही सही लेकिन बुनकरों की पीड़ा उभरकर सामने आई। 

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परिवार चलाना हो रहा मुश्किल

साहित्यकार अजय प्रधान ने बुनकरों का हाल बयां करते हुए कहा-जिनको सत्ता की मदिरा मिल गई वो सब मतवाले हैं, लगे हुए देखो हथकरघा उद्योगों पर ताले हैं। जिन्होंने दुनिया भर को पहनाए कपड़े उनको ही रोटी के लाले हैं।’ इससे बने माहौल में नौजवान बुनकर मो. बिलाल ने बताया कि व्यापारी से सूत लेकर उसका पूरा परिवार मिलकर एक हफ्ते में दो सौ स्टोल तैयार करता है। एक हजार रुपये मजदूरी मिलती है। इस तरह एक महीने में चार-पांच हजार रुपये ही मिलते हैं। परिवार का पालन-पोषण करने में दिक्कत होती है। एक स्टोल बनाने में सूत व मजदूरी सहित 40 से 50 रुपये खर्च होते हैं। इसकी बिक्री 90 से 10 रुपये में स्थानीय व्यापारी करते हैं। विदेशों में इसकी कीमत तीन से चार सौ रुपये प्रति पीस होती है। 

बुनकर नहीं बन पाए कारोबारी 

मो. ताहिर ने बताया कि बुनकर मजदूर बनने को इसलिए विवश हैं क्योंकि उनके बनाए स्टोल को स्थानीय स्तर पर खरीदने वाला कोई नहीं हैं। जिस तरह सरकार धान-गेहूं समर्थन मूल्य पर खरीदती है उसी तरह स्टोल खरीदे तो बुनकर सीधे सूत खरीदकर स्टोल बना सकते हैं। बुनकर अब्दुल कवी ने खुलकर कहा कि वह एक बुनकर समिति के सदस्य हैं लेकिन उन्हें मालूम नहीं कि एक किलो सूत पर कितनी सब्सिडी मिलती है। इस पर वह बताते हैं कि सूत खरीदने की जरूरत ही नहीं है।

कारोबारियों के कारखानों में मजदूरी की विवशता है। 14 रुपये प्रति स्टोल मिलता है। बुनकरों की ऋण माफी के बारे में उन्होंने रोचक किस्सा बताया कि वर्ष 1988 में तीन-तीन हजार रुपये बुनकरों को कर्ज दिया गया था और बाद में कर्जमाफी की घोषणा हो गई वर्ष 2006 में आरसी जारी हो गई। साढ़े चार हजार रुपये अदा कर कर्ज से मुक्ति मिली। तब से कर्ज नहीं लिया। एखलाक रहमान ने बताया कि पहले गमछा व लुंगी बनती थी जिसकी स्थानीय मार्केट में मांग थी। सफदरगंज व जिला मुख्यालय पर सट्टी बाजार में थोक में बेच आते थे लेकिन अब सबसे ज्यादा अराफात रूमाल बनता है जिसकी सउदी अरब में ज्यादा मांग है। इसके साथ ही पसमीना स्टोल, साटन स्टोल भी बनाया जाता है जिसे विदेशों में भेजते हैं। 

बुनकरों के खाते में भेजी जाए राशि

प्रताप सिंह चौधरी ने बताया कि जैदपुर में कांशीराम  कालोनी के निकट अत्याधुनिक सूत रंगाई घर 10 साल पहले संचालित किया गया था जो बंद हो गया। बुनकरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उनकी मेहनत का फल उन्हें सीधे मिलने की वकालत की। जैदपुर देहात के प्रधान सैयद हुसैन ने कहा कि स्टोल के विदेशों में निर्यात करने वाले बुनकर नहीं हैं। यही इस कुटीर उद्योग से जुड़े बुनकरों की आर्थिक स्थिति खराब होने का अहम कारण है। विदेशी बाजार भी डाउन है। सरकार को चाहिए कि बुनकरों का माल सीधे खरीदने की व्यवस्था करने के साथ ही उन्हें अपना माल उत्पादन करने के लिए आर्थिक सहयोग भी दे। 

राजनीतिक दलाें को नहीं है फिक्र

धनंजय बुनकरों की माली हालत खराब होने के लिए राजनीतिक दलों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों के एजेंडे में बुनकारों के विकास का एजेंडा होना चाहिए। शिक्षक रामदेव ने इसे लघु उद्योग के रूप में विकसित करने पर जोर दिया। शत्रोहनलाल और राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि हथकरघा जिले की पहचान है, लेकिन इसका आधार माने जाने वाले बुनकर परिवार रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राजेंद्र प्रसाद, शिव नंदन, धर्मराज, मलखान सिंह, रिंकू, धनंजय, मलखान सिंह, विनोद कुमार, दिनेश कुमार, विकास वर्मा आदि ने भी विचार रखे। 

फैक्ट फाइल : जिले में बुनकर : 80 हजार परिवार। सालाना कारोबार-पांच अरब रुपये। पॉवरलूम-नौ हजार। 


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